Sunday 28 February 2021

चेखब की कहानी - वार्ड नंबर सिक्स की समीक्षा

चांद और कारागार
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यह मात्र एक संयोग हो सकता है कि रूस से सटे नार्वे में हेनरिक इब्सन अपना प्रसिद्ध नाटक ‘ऐन एनेमी ऑफ द पिपुल’ लिखते हैं, और उसके ठीक दस साल बाद ऐंतन चेखव की श्रेष्ठ कहानी ‘वार्ड नंबर सिक्स’ आती है- दोनों रचनाओं में व्यक्ति और समाज के सत्य के बीच पारस्परिक टकराहट तो अपरिहार्य-सा  मौजूद है, किंतु जहाँ उनके नायकों/ प्रतिनायकों की प्रतिक्रिया एक दूसरे के विपरीत होती है, पाठक पर उनका प्रभाव एक-सा- यथास्थिति के खिलाफ- होता है।
कहानी के पात्रों और परिवेश का सूक्ष्म से सूक्ष्म विवरण देने वाले चेखव ने ‘वार्ड नंबर सिक्स’ में चांद और कारागार का विम्ब कहानी के अंतिम भाग में उस समय प्रयोग किया है, जब रैगिन को मानसिक आरोग्यशाला में जबरन धकेल दिया जाता है; जब उसे इसका बोध होता है कि वह वहाँ से बाहर नही निकल सकता और बाकी जीवन अन्य पाँच रोगी-कैदियों के साथ उसी नरक में गुजारना पड़ेगा‌। रैगिन आरोग्यशाला की खिड़की की झँझरी से सटकर बाहर देखता है- दिन डूब चुका है, अंधेरा घिरने लगा है; आरोग्यशाला की कील लगी चारदीवारी से बाहर सामने दो सौ गज से भी कम की दूरी पर पत्थरों की दीवारों से घिरे सफेद रंग के कारागार का ऊँचा भवन (ह्वाइट हाउस!) खड़ा है और पेड़ों के बीच से क्षितिज पर किरमिजी चांद धीरे-धीरे ऊपर उठ रहा है; और उससे भी आगे हड्डियों से चारकोल बनाने वाली फैक्ट्री से आग की लपटें उठ रही हैं- वह पूरा भयावह दृश्य देख उसका दिल भी डूब जाता है, जिसका एहसास उसे पहले कभी नहीं हुआ था; चांदनी में कमरे के फर्श पर गिरती झंझरी की छाया भी उसे एक जाल-सी प्रतीत होती है; और वह दुश्चक्र से निकलने को खिड़की के ग्रिल को उखाड़ फेकने का निष्फल प्रयास करता है।
(The moon and the prison, and the nails on the fence, and the far-away flames at the bone-charring factory were all terrible. ….Andrey Yefimitch assured himself that there was nothing special about the moon or the prison,… and that everything in time will decay and turn to earth, but he was suddenly overcome with desire; he clutched at the grating with both hands and shook it with all his might. The strong grating did not yield.)
चांद के विंब से मुझे ‘वार्ड नंबर सिक्स’ से सत्ताइस-अठाइस साल बाद लिखे गए फ्रांसीसी कथाकार समरसेट मॉम के उपन्यास ‘द मून ऐंड सिक्स पेंस’ की याद आती है. मॉम का उपन्यास एक चित्रकार के जीवन पर है, जो चित्रकला (चांद) के अटूट अनुराग में इतना लीन हो जाता है कि उसके पैर के पास पड़ा सिक्स पेंस (यथार्थ) दिखाई नहीं देता; परिणामस्वरूप उसे अभाव और कुष्ट-रोग की वजह से मरना पड़ता है; ‘वार्ड नंबर सिक्स’ का आंद्रे रैगिन किताबों के संसार में जीने का आदी होकर इतना अव्यावहारिक और निष्क्रिय बन जाता है कि यथार्थ की कठोर धरती पर गिरते ही टूटकर बिखर जाता है; जबकि इन दोनों से विपरीत ‘ऐन एनेमी ऑफ द पिपुल’ का डॉक्टर टॉमस स्टॉकमैन समूचे शहर की बेवकूफियों और बदमाशियों के सामने चट्टान की तरह अडिग रहता है।
रैगिन और टॉमस स्टॉकमैन दोनों डॉक्टर हैं; लेकिन जहाँ स्टॉकमैन लोगों की सेहत के लिए पूरे शहर और यहाँ तक कि अपने भाई और ससुर का भी विरोध करता है; और इस विरोध में उसकी पत्नी की नौकरी छूट जाती है, उसे तमाम जलालत झेलनी पड़ती है; वहीं आंद्रे रैगिन अस्पताल की दुर्दशा को पूर्ण रूप से जानने के बाद भी उसकी बेहतरी का कोई प्रयास तो नहीं ही करता; ऊपर से शिकायत करने वाले ग्रोमोव को सीख देता है कि दुख और पीड़ा से आदमी का चरित्र निखरता है और जब एक दिन सबको मर जाना है, तो फिर क्या बीमारी और अभाव के बीच यह वार्ड नंबर सिक्स और क्या आराम की जिंदगी! रैगिन के पास न तो कोई रचनात्मक आदर्श है, न ही परदुख-कातरता. दुनिया की तमाम कुरुपताओं के प्रति अगर उसके मन में कोई मनोभाव है तो वह है- उदासीनता.

ऐसा नहीं कि वह हमेशा से आलसी रहा है. उस अस्पताल में आने के बाद बहुत दिनों तक उसने रोगियों का इलाज इतनी दक्षता के साथ किया था कि लोग उसे बच्चों और स्त्रियों की बीमारियों के कुशल डॉक्टर एवं सर्जन के रूप में जानने लगे थे। लेकिन अचानक से दुखों के प्रति दार्शनिक उदासीनता और उपेक्षा के भाव ने उसे आलसी और अकर्मण्य बना डाला. एक कुशल डॉक्टर की संतान के रूप में बचपन से खाया-अघाया आंद्रे रैगिन वोदका की चुस्की के साथ पढ़ने और बौद्धिकों के साथ हवाई गप्पें लड़ाने में ही जीवन बिताने लगता है. शहर में एकमात्र अस्पताल के प्रभारी डॉक्टर होने के बाद भी रैगिन धीरे-धीरे अपनी चिकित्सा की जिम्मेवारी को भार समझने लगता है. अस्पताल की जर्जर अवस्था, और भ्रष्ट व्यवस्था के बीच बीस साल से मुफ्त के घर में पीने-खाने-पढ़ने में समय गुजारते हुए, संयोगवश अस्पताल-परिसर के एक कोने में स्थित मानसिक आरोग्यशाला में जब एक दिन पहली बार जाता है, तो वहाँ एक पढ़े-लिखे ‘बीमार’ इवान ग्रोमोव से मिलता है। वहाँ उसकी झिड़की और व्यंग्य-वाण सुनने के बावजूद, उसकी विद्वता से प्रभावित हो थोड़ा-बहुत किए जा रहे चिकित्सा-कार्य को भी भूल, केवल उससे मिलने और बातें करने में पूरा दिन गुजारना शुरू कर देता है. ऐसा नहीं है कि उसे पता नहीं कि वह गलत है. वह स्वयं अपने आप से कहता है कि वह अपनी ड्यूटी के प्रति बईमान है और मुफ्त की सुविधाएँ और वेतन ले रहा है.; फिर भी उसकी उदासीनता और विवशता आश्चर्यजनक और दूसरों के लिए असहनीय है. वह खुद तो आराम से सुविधाओं का उपभोग कर रहा है, लेकिन दूसरों को आत्मसंयम और तितिक्षा (Stoicism) का पाठ पढ़ाते हुए, डायोज़नीज़ जैसों का उदाहरण देकर और अस्पताल के प्रति अपनी उदासीनता को औचित्य प्रदान करते हुए कहता है कि 
‘If the aim of medicine is by drugs to alleviate(राहत देना) suffering, the question forces itself on one: why alleviate it? In the first place, they say that suffering leads man to perfection; and in the second, if mankind really learns to alleviate its sufferings with pills and drops, it will completely abandon religion and philosophy, in which it has hitherto found not merely protection from all sorts of trouble, but even happiness.’
पिता द्वारा जबरन डॉक्टरी के पेशे में लाए गए (पर वास्तव में पादरी बनने की इच्छा रखने वाले) रैगिन के व्यक्तित्व,  मनोभावों और कुतर्कों को इवान ग्रोमोव अपने इस कथन से आधारहीन और दोषपूर्ण सिद्ध कर देता है- 
“A doctrine which advocates indifference to wealth and to the comforts of life, and a contempt for suffering and death, is quite unintelligible to the vast majority of men, since that majority has never known wealth or the comforts of life; and to despise suffering would mean to it despising life itself, since the whole existence of man is made up of the sensations of hunger, cold, injury, and a Hamlet-like dread of death. The whole of life lies in these sensations; one may be oppressed by it, one may hate it, but one cannot despise it. Yes, so, I repeat, the doctrine of the Stoics can never have a future; from the beginning of time up to to-day you see continually increasing the struggle, the sensibility to pain, the capacity of responding to stimulus."
इस प्रकार आंद्रे रैगिन न केवल रूस के तत्कालीन, बल्कि हमारे देश के वर्तमान बौद्धिकों के एक बड़े वर्ग का भी प्रतिनिधित्व करता है. 

उपर्युक्त वार्तालाप के बीच से ऐसा आभास हो सकता है कि रैगिन कहानी का प्रतिनायक है और इवान ग्रोमोव, मरीज होते हुए भी नायक. तथापि,यह सही होने के बावजूद कि इवान को बचपन से दुख और परेशानियों से जूझना पड़ा है, और उसके मानसिक रोग की पुष्टि किसी डॉक्टर ने नहीं की है बल्कि लोगों की शिकायत पर पुलिस ने उसे इस मानसिक आरोग्यशाला में ला पटका है,  वास्तविकता तो यह है कि वह भी अपनी पिछली जिंदगी में कोई आदर्श व्यक्ति नहीं रहा है. वस्तुत:, पूरी कहानी में केवल ‘प्रेमविहीन’ प्रतिनायकों का जमावड़ा दिखाई देता है- ज़ारशाही, समाज का बौद्धिक वर्ग, स्थानीय स्वशासी निकाय (Zemestvo), अस्पताल के कर्मचारी, रैगिन का सहायक डॉक्टर, रैगिन से पहले का प्रभारी डॉक्टर,जिला अस्पताल से आने वाला एक अन्य डॉक्टर होबोतोव जो रैगिन का पद हथिया लेना चाहता है, दरवान, रसोइया तक सभी के सभी ठग और चोर हैं और उनके बीच पिसता हुआ मजदूर और किसान वर्ग है. 

गुलामी से मिलती-जुलती सर्फ-व्यवस्था के 1861 में समाप्त होने के बावजूद गरीबी और जहालत की संड़ांध चारों ओर बास मार रही है. यह यूँ ही नहीं है कि चेखव ने वार्ड नंबर सिक्स में पाँच मानसिक रोगियों में से तीन को कारीगर, कामगार/किसान दिखाया है और एक को यहूदी (जिसका कारखाना बीस साल पहले जला डाला गया था- जिसके लिए सांप्रदायिकता को जिम्मेदार माना जा सकता है). रेल स्टेशन से 160 किलोमीटर दूर के इस शहर और अस्पताल की जो हालत है, उसकी तुलना में आज के बिहार या यूपी के किसी भी गलीज सरकारी अस्पताल की स्थिति किसी निजी अस्पताल सरीखी लग सकती है।

चेखव ने जिस ठंडेपन और तटस्थता के साथ अस्पताल के माध्यम से समाज और व्यवस्था का जैसा चित्रण किया है, उसे पढ़-जान कर किसी भी संवेदनशील व्यक्ति में विद्रोही बन सकने की संभावना पैदा हो सकती थी। कहा जाता है कि लेनिन ने जब यह कहानी पढ़ी तो उन्होंने ऐसा महसूस किया जैसे वार्ड नंबर सिक्स में वे खुद बंद कर दिए गए हों. यही नहीं, उन्होंने किसी जगह यह भी लिखा था कि उनके क्रांतिकारी बनने में इस कहानी की भी एक (उत्प्रेरक) भूमिका रही है. इस कहानी से यह मिथक भी टूट जाता है कि केवल नकारात्मक पक्ष के उल्लेख से कहानी में सकारात्मक प्रभाव उत्पन्न नहीं किया जा सकता. और यह कहानी उन लोगों के लिए भी एक मिसाल है, जो व्यक्ति या समाज की नकारात्मकता का चित्रण करने वालों को हिकारत की नजर से देखते हुए यह सीख देते हैं कि ‘Don’t run after negativity’| 

फकीरी और यथार्थवाद
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आंद्रे रैगिन का सहायक डॉक्टर सर्गेयिच एक सुबह रैगिन से कहता है, ‘हम गरीब इसलिए हैं, क्योंकि हम मन से दयालु ईश्वर की प्रर्थना नहीं करते’। डॉक्टर बनने से पहले रैगिन भी अति धार्मिक व्यक्ति रहा है। वह पादरी का कैरियर अपनाना चाहता था, लेकिन डॉक्टर पिता ने उसे जबरन चिकित्सा के क्षेत्र में जोत दिया। जाहिर है, उसका पैशन दबकर रह गया, जो समय पाकर फ़लसफ़े की किताबों के माध्यम से बार-बार प्रकट होता है। एक बार वह ईसा मसीह की उदारता का हवाला देता है, तो दूसरी बार बेहद अमानवीय ढंग से कहता है कि ‘यदि दवाओं का काम दुख-दर्द से राहत देना है तो प्रश्न उठता है कि आखिर राहत पहुँचाई ही क्यों जाय? पीड़ा तो आदमी को संपूर्णता प्रदान करती है, और दूसरी बात कि यदि मनुष्य इन दवाओं द्वारा अपनी पीड़ा को दूर करना सीख गया, तो वह पूर्ण रूप से धर्म और फलसफ़े को त्याग देगा, जिनमें वह अपनी परेशानियों से सुरक्षा और शांति पाता रहा है’। रैगिन के साथ हुईं बहसों में इवान ग्रोमोव उसके नजरिए को खारिज करते हुए कहता है कि ‘आपका फ़लसफ़ा मात्र सुविधा का फ़लसफ़ा है। चूँकि आप कुछ नहीं कर सकते, आप आलसी हैं, इसलिए आपका यह फक़ीरवाद (Fakirism) दृष्टि की उदारता नहीं, केवल आलस और जड़ता है। आप पीड़ा से उदासीन हैं, लेकिन मैं दावे के साथ कहता हूँ कि यदि आपकी उंगलियाँ दरवाजे में दब जायँ तो पूरी शक्ति के साथ चीख उठेंगे।’

आंद्रे रैगिन और सर्गेयिच- दोनों की धर्म संबंधी बातें सुनकर ऐसा लगता है मानो कोई डॉक्टर नहीं, धार्मिक गुरु प्रवचन दे रहा हो। और इवान द्वारा प्रयुक्त शब्द ‘फ़क़ीरवाद’ को सुन हमारे ज़ेहन में अपने देश का सर्वोच्च राष्ट्रवादी फकीर का चेहरा नाचने लगता है, जो विश्वव्यापी महामारी को भगाने के लिए नागरिकों से थाली और ताली बजवाता है, मोमबत्तियाँ जलवाता है और उसकी अनुगामी मीडिया उनकी वैज्ञानिकता पर दिन-रात बहसों का आयोजन करती है; और गोया इतनी मूर्खताएँ नाकाफ़ी हों, कोई बड़ा-सा अस्पताल बनाने की जगह न्यायालयों और अन्य योगियों-फ़क़ीरों की सांठ-गाठ से महामारी-काल में ही अरबों रुपयों से राम मंदिर बनाने का मुहूर्त भी ताड़ाताड़ी निकाल डाला जाता है।

शुरू में हेनरिक इब्सन के नाटक ‘ऐन एनेमी ऑफ द पिपुल’ का जिक्र किया गया था। उसका भारतीयकरण  कर के सत्यजित रॉय ने एक फिल्म बनाई थी- ‘गणशत्रु’, जो 1990 में रिलीज़ हुई थी। यह वही समय था, जब बीजेपी द्वारा राम मंदिर के लिए भारत के कोने-कोने से ईंट अयोध्या ले जाए जाने का अभियान चलाया जा रहा था। इब्सन के नाटक में स्पा व थर्मल स्नान से रोग-मुक्ति का टूरिस्ट स्पॉट स्थापित किया गया है, जहाँ के जल की डॉक्टर स्टॉकमैन द्वारा की गई जाँच से उसके रोगाणुयुक्त होने का पता चलता है तो व्यवसाय का हित खतरे में पड़ जाता है। ‘गणशत्रु’ में त्रिपुरेश्वर मंदिर के चरणामृत के जल में हानिकारक बैक्टीरिया पाए जाते हैं और डॉक्टर अशोक गुप्ता जलशोधन होने तक मंदिर को बंद करने का सुझाव देते हैं, लेकिन उनके वैज्ञानिक सोच के खिलाफ़, तुलसी-पत्ते से विषाणुओं के नष्ट होने का झाँसा देकर अपने बर्चस्व के लिए धर्म का वास्ता देते हुए, उसका भाई शहर का मेयर निशीथ गुप्ता अंधविश्वासी जनता और मीडिया को अपने पक्ष में करके डॉक्टर को ही जनशत्रु घोषित करवा देता है; लेकिन नाटक की तरह फिल्म में भी तमाम विरोध, घर में तोड़-फोड़ और धमकियों के बाद भी उसके पक्ष में, मुट्ठी भर ही सही, खड़े होने वालों की ताकत से उत्साहित होकर डॉक्टर हार नहीं मानता और जनता के हित के लिए प्रदूषित पानी की रिपोर्ट कलकत्ता भेजने का निर्णय लेता है।

‘वार्ड नंबर सिक्स’ में चेखव ने इवान ग्रोमोव के लिए कहानी का एक बड़ा भाग सहानुभूतिपूर्वक समर्पित किया है। उस तर्क से कहानी का अगर कोई नायक हो सकता है तो वह इवान ग्रोमोव ही है। वह संयोग, समाज और सरकार, तीनों का मारा हुआ करुणा से युक्त खुद का एक कारुणिक और त्रासद पात्र है। उसके पिता एक सरकारी कर्मचारी थे और अच्छी-खासी संपन्नता घर में मौजूद थी। उस समय इवान पीटर्सबर्ग के विश्वविद्यालय का छात्र था, जब परिवार पर अचानक से विपदा का प्रकोप होना आरंभ हुआ। पहले उसका छोटा भाई बीमारी से मरा, और हफ़्ते भर के अंदर उसके पिता किसी सच्चे-झूठे गबन के केस में जेल गए; कुछ ही दिनों के अंदर जेल ही में टॉयफायड से मर गए और पैतृक घर और संपत्ति की कुड़की-नीलामी हो गई। इवान कुछ समय तो पीटर्सबर्ग में ट्यूशन और अन्य अंशकालिक कार्य के माध्यम से अर्थोपार्जन करते हुए पढ़ाई के साथ परिवार में बची एकमात्र माँ के पास घर-खर्च के पैसे भेजता रहा, लेकिन अंतत: दिन-रात के श्रम को बर्दाश्त न कर सकने के कारण उसे वापस भाड़े के घर में रह रही माँ के पास लौटना पड़ा। यहाँ उसे एक स्कूल में शिक्षक की नौकरी मिली, लेकिन सहकर्मियों के साथ नहीं बन सकी और नौकरी छूट गई या खुद से छोड़नी पड़ी। इस बीच माँ भी मर गई। छह माह तक बिना किसी आय के किसी तरह ब्रेड-पानी पर काम चलाने के बाद उसे कोर्ट-अशर (संनिधाता/प्रवेशक) की नौकरी मिली, जो वह ईमानदारीपूर्वक तब तक करता रहा जब तक उसे उत्पीड़न संबंधी उन्माद (Persecution Mania) के दौरे आने की बीमारी की घोषणा के बाद उसे मुअत्तल नहीं कर दिया गया।

वह बचपन से कमजोर और जल्दी बीमार पड़ जाने वाला आदमी था। एक सच्चा, ईमानदार और हमेशा समाज की चिंता करने वाला होने के बाद भी उसके शक्की और चिड़चिड़े मिज़ाज के कारण उसका कोई दोस्त नहीं था। उसे यह देख-देख कर हमेशा क्षोभ होता था कि अच्छे और ईमानदार आदमी बड़ी कठिनाई से दो जून की रोटी का जुगाड़ कर पाते हैं, जबकि बेईमान और दुष्ट लोग फिजूलखर्ची और आरामदेह जिंदगी जीते हुए संपन्नता में खेलते रहते हैं। उसे नगर में एक अच्छे स्कूल, प्रगतिशील अखबार, थियेटर, जनसंवाद तथा बौद्धिक-लोगों द्वारा समन्वय की जरूरत महसूस होती थी, ताकि समाज अपनी असफलताओं और बुराइयों से संत्रस्त होकर उनसे निजात पाने पर गंभीरता से विचार कर सके।

परिवार एवं खुद की त्रासदी और कोर्ट में जजों और वकीलों से नजदीकी की वजह से उसे कानून का सूक्ष्म ज्ञान हो गया है। वह जान गया है कि ‘दूसरे लोगों की पीड़ाओं से व्यावसायिक संबंध रखने वाले जज, पुलिस, डॉक्टर, जैसे अधिकारी लगातार एक ही काम करते-करते एक समय के बाद इतने संवेदनाहीन हो जाते हैं कि चाहकर भी अपने ग्राहक/उपभोक्ता के साथ औपचारिक प्रवृत्ति के अलावा कोई इतर संबंध नहीं बना सकते; और इस संदर्भ में वे उन लोगों से अलग नहीं होते जो बिना किसी दया-ममता के जीव-जंतुओं को मारने का का काम करते हैं। मनुष्यों के प्रति अपनायी गई ऐसी 

औपचारिक,भावशून्य प्रवृत्ति वाले जजों को किसी निर्दोष आदमी को उसके संपत्ति सहित सभी अधिकारों से वंचित कर के उसे कड़ी कैद की सजा देने में केवल मात्र कुछ वक्त की जरूरत होती है। इसके लिए जजों को कुछ औपचारिकताओं को पूरा करने का समय चाहिए होता है, जिसके लिए उन्हें वेतन मिलता है; और उसके बाद सब कुछ खत्म हो जाता है। और तब आप रेलवे स्टेशन से एक सौ पचास मील दूर इस छोटे-से गंदे, घिनौने शहर में न्याय और सुरक्षा की तलाश में अपना जीवन नष्ट करने को आज़ाद हैं। दरअसल, जिस समाज में हर प्रकार की हिंसा को विवेकपूर्ण एवं संगत जरूरत के रूप में स्वीकार किया जाता हो, और जहाँ रिहाई के फैसले जैसे किसी भी दया-कार्य के विरोध में असंतुष्ट एवं प्रतिशोधात्मक भावना का भयंकर विस्फोट प्रकट किया जाता हो, उसमें न्याय के बारे में सोचना तक क्या असंगत नहीं?’

इवान के बारे में चेखव लिखते हैं कि ‘वह औरतों और प्रेम के बारे में हमेशा भावप्रवणता एवं उत्साह के साथ बात करता था, किंतु वह प्रेम में कभी नहीं पड़ा था( He always spoke with passion and enthusiasm of women and of love, but he had never been in love.)। क्या पता कोई स्त्री ने उसे कभी चाहा ही न हो! वरना कोई प्रेम से वंचित कैसे रह सकता है!

यहाँ ध्यान देने की बात है कि इवान ही नहीं, कहानी के सभी पात्र प्रेम से बिल्कुल वंचित  दिखाई देते हैं। कहानी में बताने लायक स्त्री-पात्र भी केवल एक ही है- रैगिन की रसोइया। और वह भी मशीन की भाँति काम करती है; काम के अलावा न तो वह रैगिन से बात करती है और न रैगिन उससे। लगता है नगर के तमाम पुरुषों के साथ स्त्रियों के पास भी दिल नाम की कोई चीज नहीं। ऐसे उदास और उदासीन नगर में रहना भी क्या और नहीं रहना भी क्या! यह लगभग वही भाषा है, जो रैगिन वार्ड नंबर सिक्स के बारे में इवान से फ़लसफ़ाई ढंग से कहता है कि ‘क्या उसकी गर्म स्टडी और क्या यह वार्ड नंबर सिक्स! सोचने पर दोनों में कोई अंतर नहीं।’

प्रेमविहीन उस नर्क में चाहे रैगिन का हमप्याला पोस्टमास्टर मिहाइल अवरियानिच हो अथवा होबोतोव, दरवान भूतपूर्व सैनिक निकिता हो अथवा रैगिन का सहायक डॉक्टर सर्गेयिच, सब के सब कुंठित और लुटेरे हैं और रैगिन को पैसे वाला समझकर उसे लूटना या उसकी जगह पर खुद बैठना चाहते हैं। जब उसे शहर से बाहर जाकर घूमने का निर्देश दिया जाता है, तो उसका एकमात्र दोस्त मिहाइल अवरियानिच उसे पागल समझकर उसकी तिमारदारी के बहाने उसके साथ जाता है और व्यर्थ की बकवाद करते हुए उसके पीछे चौबीस घंटे पड़ा रहता है। मिहाइल अवरियानिच जुए में पाँच सौ रूबल हार जाता है और वह रकम जुएखाने में चुकाने के लिए रैगिन से उधार माँगता है; और रैगिन की जहालत देखिए कि उसे अपने चिड़चिड़े व्यवहार का जिम्मेवार मानने के बावजूद, वह उसे अपने पास बची थोड़ी रकम में से वह रकम बिना किसी हील-हुज्जत के दे भी देता है। मिहाइल की एहसान फ़रामोशी देखिए कि वह रकम न चुकानी पड़े, इस वजह से मौका मिलते ही होबोतोव के साथ उसके द्वारा भी रैगिन के क्रोध को असामान्य मान उसे पागल करार दे दिया जाता है। उसके बाद रैगिन को वार्ड नंबर सिक्स में पहुँचाना आसान हो जाता है। इस प्रकार रैगिन के फलसफ़े का ऐसा करुण अंत होता है, जिसकी उसने कभी कल्पना तक न की होगी।

लगभग पचीस साल पहले मैंने यह कहानी पढ़ी थी। तब मुझे यह उतनी त्रासद नहीं लगी, लेकिन इस बार जब से इसे पढ़ा है, पिछली कई रातों की नींद उड़ गई है। अचानक तीन बजे रात को उठने के बाद उस वार्ड और उसके बाहर प्रेम से वंचित उस भयावह शहर की कल्पना करके दुबारा नींद नहीं आती; शायद यह सोचकर भी कि आज भी समाज की हालत कुछ खास बेहतर नहीं है। चेखव ने अपनी किसी भी कहानी में ऐसे भयावह समाज का चित्रण शायद नहीं किया होगा- जिसमें एक पूरे शहर और प्रकृति का ज़र्रा-ज़र्रा तक इतना उदास और नीरस दिखाई दे कि वहाँ से जितनी जल्दी हो सके भाग जाने का मन करने लगे। लेनिन की तरह कहानी के प्रभाव में हर व्यक्ति का क्रांतिकारी बनना असंभव है; हाँ, इससे पीछा जरूर छुड़ाया जा सकता है। इस कहानी पर और भी बहुत कुछ बात की जा सकती थी, लेकिन इससे जितनी जल्दी हो सके निकल जाने की जल्दी में अपने आलेख का यहीं अंत करता हूँ।

( नारायण सिंह )

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