Tuesday 2 February 2021

शब्दवेध (99) समझ का संकट

जो कुछ पहले सोचा और लिखा जा चुका है यदि उससे हमारी समस्याओं का समाधान हो जाता तो हमें सोचने समझने की झंझट मोल न लेनी पड़ती। यह झमेला उन समस्याओं के बारे में बना रहता है, जिनमें कोई न कोई असंगति बनी रहती है। 

मैं सभ्यता के प्रसार में पणियों की गतिविधियों पर विचार करना चाहता था कि इसी बीच मेरे विद्वान मित्र कल्याणरमण  ने पणियों की पहचान पर एक लेख के अंश और पुरातात्विक साक्ष्य दे कर यह याद दिलाना चाहा कि पणि मूलतः वणिक थे। उनका मंतव्य 'शब्दवेध 98' पर टिप्पणियों में है।

समस्या शब्दार्थ की नहीं है, सन्दर्भगत अर्थों/आशयों ओर अर्थ-विकास/-ह्रास/-विस्तार की है। यदि कोई कहता है कि हमने कूट भाषा में अपनी बात कही है (नीहारेण प्रावृता जल्प्या) तो उस कूट का प्रचलित अर्थ ग्रहण करने पर हम उसका सही आशय नहीं ग्रहण कर सकते न ही कूट का अनमेल अर्थ कर सकते हैं।  व्युत्पत्ति पर जाएँ तो पण (पत्>पन -जल) है। कुछ बोलियों में रानी को राणी और पानी को पाणी कहते हैं। इननें पन>पण हो गया। इसका अर्थ विकास धन, ज्ञान, दक्षता, महिमा, भर्त्सना आदि दिशाओं में  हुआ। ऋग्वेद के समय तक पण का प्रयोग धन/संपदा के लिए और पणि का प्रयोग एक तो ऐसे समुदायों के लिए होता था जिनके अधिकारक्षेत्र में खनिज संपदा हो पर जो पर उसका न तो स्वयं उपयोग करता हो न दूसरे को करने देता हो  (कबीले और दूसरे  जानवर भी अपने अधिकारक्षेत्र में किसी दूसरे का प्रवेश सहन नहीं करते) दूसरे धनी व्यक्ति के लिए।

पहले का प्रयोग बहुत लंबी और दुर्गम दूरी के क्षेत्र के घुमक्कड़  कबीले के लिए हुआ है अतः बहुवचन (पणयः/पणीनां/ पणिभिः) का प्रयोग किया गया है।  जैसा कि हिल्ले्ब्रांट ने (वेदिक माइथॉलोजी) सुझाया था इसका संबंध उत्तरी अफगानिस्तान के लाजवर्द की खानों के क्षेत्र के कबीलों (पार्नियन्स) से है।  इस पर हम रामकथा के प्रसंग में विस्तार से चर्चा कर चुके हैं। दूसरे का प्रयोग अपने निकट संपर्क के भिन्न उपासना पद्धति वाले (अन्यव्रत), वैदिक आराधना पद्धति के आलोचक (निद या निंदक) ऐसे व्यक्ति या व्यक्तियों के लिए हुआ है जो धनी होते हुए भी पुरोहितों को दान-दक्षिणा नहीं देते थे और इसलिए निंदा के पात्र थे और जिनकी अमंगल कामना भी की जाती है। 

यद्यपि पण के समानार्थी - काटना, खंडित करना, वितरित करना - वण से यह प्रलोभन होता है कि इसे वाणिज्य से जोड़ा जाय, पर ये व्यापारी नहीं हो सकते क्योंकि अर्थतंत्र पर देववादियों का अधिकार था।  साथ ही  ऋग्वेद में खरीद, बिक्री या विनिमय के लिए पणन का प्रयोग नहीं मिलता। पण का अर्थविकास पंड (पंडारम्), भंड (भंडारी, भंडार,) खान, आगार, अं. फंड की दिशा में हुआ।  क्रय और विक्रय के लिए क्रीणन (क्रीणाति) और वापसी के लिए पुनर्दान का (क इमं दशभिर्ममेन्द्रं क्रीणाति धेनुभिः, यदा   वृत्राणि  जंघनत्  अथ एनं मे पुनर्ददत् ।। 4.24.10) और आमदनी के लिए आदान का प्रयोग देखने में आता है।  व्यापार के लिए धनन - समुद्रस्य चित् धनयन्ति पारे - होता था। पणन, पण्य, विपणन का  प्नयोग देखने में नहीं आता, यद्यपि साहित्य में किसी शब्द का न आना इस बात का प्रमाण नहीं कि उसका व्यवहार नहीं होता था पर उसी आशय के लिए किसी अन्य का चलन इसकी पुष्टि करता है।  पनयन - कीर्तिगान (महो महानि पनयंति अस्य इन्द्रस्य कर्म सुकृता पुरूणि)  विपन्य - ज्ञानी (तद् विप्रासो विपन्यवो जागृवांसः समिन्धते) का प्रयोग अवश्य देखने में आता है।  उस चरण पर व्यापारी के अर्थ में इसका प्रयोग आरंभ नहीं हुआ लगता, व्यापारी के लिए वणिक/वणिज (औशिजाय वणिजे ) का ही प्रयोग देखने में आता है।  

पणि (फिनीशियन) भूमध्य सागर क्षेत्र में उद्योग और व्यापार में निश्चय ही अग्रणी प्रतीत होते हैं और लगता है अर्क -जल/अर्घ  - जल, अर्धाली (गायत्रेण प्रति मिमीते अर्कं), अर्चना (अर्कमर्चन्तु कारवः), अर्हत - पूज्य, अर्घ - धन,  और महार्घ - बहुमूल्य की तरह महिमा के लिए जल>पमहिमा और मूल्य के विकासक्रम से पण जो धन का अर्थ ले  चुका था, और  धनन् को पदस्थ करके व्यापारिक लेन-देन के लिए पणन - विनिमय, लेनदेन(व्यापार)  के लिए आरंभ हुआ और उसके बाद धनन् व्यवहार से बाहर हो गया।

अब समस्या यह सामने आती है कि वे  पणि कौन थे जिनसे देववादियों की शत्रुता थी फिर भी जो उनके लिए इतने उपयोगी थे कि उनके बिना इनका काम नहीं जल सकता था। यहीं पर हमारा ध्यान  उस  मोलभाव  की  ओर जाता है जिसमें  समुद्री व्यापार  के संदर्भ में  जोखिम भरे  अभियान में  अपनी सेवाएँ -श्रम और दक्षता के प्रतिलाभ को लेकर उनका देववादियों से झगड़ा होता है जिसका प्रतीकांकन  समुद्र मंथन और अमृत (अमृतं हिरण्यं) के बटवारे के क्रम मे छल और दमन में हुआ।  रोचक वात यह कि देव इस समय भी असुरों से डरे रहते हैं ।

विभिन्न उपक्रमों और कौशलों से जुडे विशेषज्ञ वैदिक   व्यवसायियों से मोलभाव में जो कुछ पाते थे उसे मौजमस्ती में खर्च करते थे, जोड़ने सहेजने की आदत न थी। भोगवादी थे। खुशहाल थे, और पुरोधा वर्ग की तुलना में मालामाल थे। 

वर्ग उत्पादकों  और स्वामियाों  के बीच टकराव और उत्पादकों  के दमन का सबसे पुराना हवाला इन्द्र द्वारा विश्वरूपा के वध में मिलता है।  उसकी विशेषता क्या है? वह ज्ञान और दक्षता में ब्रह्मा का प्रतिस्पर्धी है।  इंद्र को वज्ह्मार मनाने वाले त्वष्टा का पुत्र है।  ब्रह्मा के चार सिर हैं, उसके तीन, ब्रह्मा विश्व के निर्माता, विश्वरूपा विश्व की समस्त वस्तुओं का निर्माता।  उसका अपराध क्या है कि इन्द्र उसका शिरच्छेद कर देते है? वह इतना संपन्न है कि वह देवों (सोम), असुरों (सुरा) और मानव सुलभ (अन्नादि) सभी प्रकार का भोग करता है।  यह इस बात का सूचक हो सकता है कि कारीगर और कतिपय पेशों से जुड़े लोग काफी खुशहाल और लाभ-हानि-दिवालियापन के जोखिम से मुक्त होने के कारण अपना धन मौज-मस्ती में खर्च करते थे।  परंतु इनमें से कुछ उपक्रमकों से जुड़े लोग अपने प्राप्य भाग से असंतुष्ट हो कर स्वयं व्यापार में भी पहल करने लगे थे जिसका प्रतिबिंबन भृगुओं की तकनीकी दक्षता के साथ व्यापारिक महत्वाकांक्षा में  है।  

इस बात की अधिक संभावना दिखाई देती है कि पणि मूलतः तक्षण - चक्र, रथ, नौनिर्माण, नौचालन से जुडे़ रहे हो सकते हैं जिन्होंने असंतुष्ट हो कर व्यापारिक गतिविधियों में रुचि लेना आरंभ किया और पणियों (फिनीशियनाें) का संबंध इन्हीं से है।  यह मात्र एक संभावना है जिसमें नई सूचना या व्याख्या आने पर सुधारा भी जा सकता है।

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )


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