Tuesday 2 February 2021

शब्दवेध (98) सभ्यता का प्लावन

हमारे सामने एक टेढ़ी समस्या है जिसका ओर-छोर हमें भी दिखाई नहीं देता।  यह समस्या अज्ञानजन्य नहीं हैं,  ज्ञान के अलग-अलग स्रोतों के बीच तनाव से पैदा हुई है। जिस वास्तविकता से आतंकित हो कर भाषावैज्ञानिक ऊहापोह आरंभ हुआ, वह था रंगभेदी सोच और औपनिवेशिक सरोकारों से किसी न किसी तरह संस्कृत की श्रेष्ठता का नकार।  इससे प्रबु्द्ध अंग्रेजों और दूसरे यूरोपीयों में संस्कृत  अध्ययन की पैदा हुई रुचि के बाद यातना और उत्पीड़न के माध्यम से प्रचारित की जाने वाली ईसाइयत की तुलना में हिन्दू  धर्म की श्रेष्ठता का और संवेदनशील ईसाइयों के हिंदू मूल्यों से लगाव का नया संकट पैदा हो गया।  

पहले संकट को टालने के प्रयत्न में संस्कृत और संस्कृत भाषी ब्राह्मणों को भारत में घुसपैठिया बताते हुए विलियम जोंस ने उसके मूलनिवास की जो खोज शुरू की उसके अंत में उन्होंने घोषित किया की वह बोली तो ईरान में नोआ की एक संतान द्वारा बोली जाती थी, पर अब उसे तलाशा नहीं जा सकता था। यह नई खोज नहीं थी, अपने तीसरे भाषण में ही वह जानते थे कि भारत को छोड़ कर वह भाषा अन्यत्र मिलेगी ही नहीं इसलिए अपने उस महावाक्य में उन्होंने जोड़ दिया था कि शायद वह साझी भाषा बची ही न हो some common source, which, perhaps, no longer exists। भले वह बची न रह गई हो पर उस मरी हुई भाषा और खोए हुए भूगोल से एक नया विज्ञान पैदा हो गया जिसे ऐतिहासिक व तुलनात्मक भाषाविज्ञान की संज्ञा दी गई। यह विज्ञान ऐसा है जो आज तक उसी खोज में लगा हुआ है जिसकी खोज की जरूरत न थी और जब तक आप पश्चिमी दिमाग की काबिलियत पर भरोसा बनाए रहेंगे यह खोज जारी रहेगी। जननी भाषा और ब्राहमणों की जन्मभूमि भले न मिले, जोंस इस नए विज्ञान के जनक अवश्य मान लिए गए - कभी किसी नतीजे पर न पहुँचने वाले विज्ञान के जनक और उसे विज्ञान मानने वाले घामड़ विद्वानों के जनक। 

दूसरे संकट के निवारण के लिए जोंस जैसी ही लफ्फाजी के धनी मैक्समूलर मंच पर आए।  उन्होंने ठान लिया कि वह हिंदुओं की धार्मिक आस्था के स्रोत वेद की खोज करेंगे और सिद्ध कर देंगे कि ईसाइयत के सामने दूसरे सभी मजहब और धर्म ओछे हैं। उन्होंने वेद को खोज निकाला उसका पाठ तैयार किया, उसे सर्वसुलभ कराया और उसकी असलियत भी बता दी : 
(1) यह भारत से लेकर यूरोप तक के सभी की  आदिम भाषा में रचित है: 
(2)  सभ्यता के शैशव की भाषा है इसलिए उसके कुछ शब्द तो (डेड लेटर ) हैं जाे कभी समझे ही नहीं जा सकते और इसकी कुछ उक्त्तियाँ नितांत बचकानी (चाइल्डिश टु दि इक्स्ट्रीम)  हैं। ऋचाएं चरवाहों  के उद्गार हैं परंतु उनमें दार्शनिकता भी है जो केवल भारत के चरवाहों में भी हो सकती थी, और इसका नाम श्रुति था इसलिए इसे कंठस्थ किया जाता था जो इस बात का प्रमाण है कि समाज निरक्षर था, पर इसका एक एक अक्षर ईसा से 1000 साल पहले गिना जा चुका था और उसमें कोई अंतर आज तक नहीं आया है, यह है वह स्मरणशक्ति जो केवल भारतीयों में ही हो सकती है।  पर वैदिक मूल्य बचकाने हैं,   बौद्धधर्म  उसकी अगली अवस्था है परन्तु  सभी का लक्ष्य उस ऊँचाई तक पहुँचना था जिसे  ईसाइयत मूर्त करती है।  इससे मैक्समुलर जोंस के दाय के अनुसार ‘तुलनात्मक धर्मशास्त्र’ का जनक बनना चाहते थे।  वेद का प्रकाशन, सैक्रेड बुक्स ऑफ दि ईस्ट सीरीज का प्रकाशन इसी योजना का हिस्सा है फिर भी मैक्समुलर  ‘तुलनात्मक धर्मशास्त्र’ के जनक न बन सके, क्योंकि शास्त्र अनुभववादी होने के बाद भी तर्क पर आधारित होते हैं,  जब कि ईसाइयत सहित सभी मजहब विश्वास पर आधारित हैं। शास्त्र का औजार तर्क है, विश्वास का औजार हिंसा और उत्पीड़न और धोखाधड़ी जिसका भारत में सबसे अधिक प्रयोग किया गया ।  यह सराहनीय है कि मैक्समूलर ने ईसाइयत को भी तर्कसम्मत  या शास्त्रसम्मत बनाना चाहा पर उसके लिए तो ईसाइत का कायाकल्प जरूरी था।  

जो भी हो, मैक्समूलर तुलनात्मक धर्मशास्त्र के जनक न बन पाए।  उन्हें आज भी कुछ लोग भाषाविज्ञानी और कुछ भारतविद के रूप में ही याद करते हैं और यह भूल जाते हैं कि वह संस्कृत साहित्य का इतिहास ब्राह्मणों के धर्म को आदिम सिद्ध करने के लिए कर रहे थे और पुष्पित भाषा के साथ सारा लेखन नकारात्मक है और उसका उल्टा पाठ करके हम सचाई पर पहुँच सकते हैं। 

हमें  नवोदित पश्चिम की सीमाओं और विवशताओं का पता है, इसलिए  ‘हमसे बड़ा न कोय’ की इस खींचतान से कोई शिकायत नहीं।  हमारा अपना इतिहास इस चरण से बहुत पहले गुजर चुका है ।  

इतिहासकार के रूप में हमारी शिकायत इस बात से है कि इस इकहरीऔर सीमित लक्ष्य की दौड़ में न भाषाओं के साथ न्याय हुआ, न मनुष्य के अंतर्लोक की उस उधेड़बुन को समझने का गंभीर प्रयत्न हुआ जिससे वैज्ञानिक जिज्ञासा  के आदिम रूपों  को समझा जा सकता था, जो कार्य-कारण की तर्क शृंखला का अनुकरण करता हुआ परमेश्वर/परमेश्वरी  तक और देव समाज की कल्पना की गई और जिनसे निकटता कायम करने और लाभान्वित होने के प्रयत्न में धर्म विश्वास और  उपासनापद्धतियों का जन्म हुआ।  
ऐसा इकहरापन स्रोतों की विश्वसनीयता और अविश्वसनीयता के मामले में भी देखने में आया जिसमे किसी समस्या को समझने में सहायक सबसे उपयोगी स्रोतों को व्यर्थ कर दिया गया। मिलावट वाचिक  प्रसार  में होता है परंतु  यह याद रखना जरूरी है कि लेखन में उससे अधिक घालमेल किया जाता है। पुरातत्व तो इतिहास को आँखों के सामने पेश कर देता है, पर उसकी जो गति मार्शल और व्हीलर ने की वह उनके किए कराए पर पानी फेर देता है। किसी भी स्रोत अविश्वसनीय मान कर उससे उपलब्ध रोशनी को त्याग कर हम अँधेरापन बढ़ाते हैं।
 
हम  लिखित प्रमाणों  पर भरोसा करते हैं तो  तो पता चलता है भारत का सुमेरिया से संपर्क 2300 ईसा पूर्व में हुआ  हो सकता है, और पौराणिक सूचनाओं की मदद लेते हैं तो पता चलता है कि वहां सभ्यता का सूत्रपात करने वाले ओएनेस (उशनस्) ने किया था जो भारत से गए थे और उनका संपर्क मूल देश से बाद में भी बना रहा था । (देखें, 1 अक्तूबर 2019 की पोस्ट)।    

वेद का सतही पाठ करते हैं तो भारोपीय क्षेत्र में भाषा, संस्कृति का प्रसार करने वैदिक साहित्य में प्रमुखता से अंकित नेताओं/राजाओं और ऋषियों को जाता है।  जब उसी का गहराई से पाठ करते हैं तो पाते हैं इस प्रभुवर्ग से जुड़ा हुआ और फिर भी उससे हर मामले में तनाव की और टकराव की स्थिति में विद्यमान देवेतर परंपरा से जुड़ा, नौचालन, पशुपालन, खनन, धातुशोधन, तक्षण, आदि विविध उपक्रमों से जुड़ा वर्ग लाभ में अपनी बराबरी का दावा करता है, समुद्र मंथन में अमृत (अमृतं हिरण्यम्) के बँटवारे में अपने उचित हिस्से की माँग करता है, उससे हेराफेरी की जाती है, उसका दमन और उत्पीड़न होता है, वह बदले की कार्रवाई भी करता है जो  विश्वरूपा/ त्वष्टा  और इन्द्र और सौत्रामणि के प्रायश्चित्त में कथाबद्ध है।  देववादियों की तुलना में आंतरिक कलह से खिन्न हो कर देशान्तर में पलायन करने वाले और वहाँ सभ्यता का सूत्रपात करने में अग्रणी भूमिका इनकी है। इसी परिप्रेक्ष्य में हम सुमेरी, मिस्री और यूनानी तथा रोमन ही नहीं फिनो- उग्रियन क्षेत्र में वैदिक संपर्क भाषा के समानान्तर अपनी बोलिेयों, अपने आराध्य देवी-देवताओं और विशेष रूप से कौशलों, उद्यमों और व्यापारिक गतिविधियों के प्रसार का एक नया अध्याय सामने आता है जो अबतक छिपा रह गया था और जिसकी और ध्यान जाने पर लगभग समूचे पुराने जगत में सभ्यता के प्रसार का एक अधिक बड़ा और बहु-आयामी चित्र उभरता है जिसे समझने में पणियों की भूमिका सहायक होती है।

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )


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