Saturday 27 February 2021

मधुविद्या क्या है ?

उत्तर इतना सीधा है कि आप विश्वास करने को तैयार न हों। 
जैसे शहद की मक्खी मीठे, कड़वे, कसैले, विषैले सभी प्रकार के फूलों का रस ग्रहण करती है, कभी कभी गन्दगी पर भी बैठी दिख जाती है, पर जो कुछ ग्रहण करती है उसको मधु में बदल देती है, उनका अपना गुण-दोष मिट जाता है। ठीक इसी तरह सूर्य अपनी किरणों से तपा कर वायु के माध्यम से सड़ी-गली चीजों से लेकर स्वच्छ और पवित्र सभी तरह की आर्द्र वस्तुओं और धरती पर उपलब्ध जल के सभी  स्रोतों से  आर्द्रता खींचकर अपने पास एकत्र कर लेता है और फिर इसी को पर्जन्य के द्वारा बरसाता है। यही सूर्य का इंद्रत्व है।
(रसान् रश्मिभिरादाय, वायुनाऽयं गतः सह। वर्षत्येष च यल्लोके तेनेन्द्र इति स स्मृतः।। बृहद्देवता, 1.68)
 
यही वह मधु है जो क्षरित हो कर नीचे धरती पर आता है, नदियों में प्रवाहित होता है।
(मधु क्षरन्ति सिंधवः) 
इसी आर्द्रता के साथ बहने वाली वायु के स्पर्श मात्र  से हम पुलकित हो जाते हैं, एक मस्ती की सी अनुभूति होती 
(मधु वाता ऋतायते ), 
जिसके लिए पुरवैया हवा को याद किया जाता है। यही अमृत के रूप में धरती में रिसता है तो निष्प्राण धरती से असंख्य तृण-वीरुध उग आते हैं। यह इसी विशेषता के कारण रेतस् भी है। जैसे दूध पिला कर मां शिशु का पालन करती है, उसी तरह यही जल/ पय वनस्पतियों का पालन करता है ।
(शिशुर्न जातोऽव चक्रदत् वने ...दिवो रेतसा सचते पयोवृधा) ।  
यही भेषज बन कर  मुरझाए अर्थात् मरणासन्न  ओषधियों और पादपों पुनर्जीवित कर देता है - सोम ने कहा कि जल के भीतर ही समस्त भेषज हैं, और इसी में सर्वमंगलकारी अग्नि भी है,
[अप्सु मे सोमो अब्रवीत् अन्तर्विश्वानि भेषजाः । अग्निः च विश्व शंभुवम् , 10.9.6 ]।  
यही मधु ओषधियों में भरा रहता है और कवि कामना करता है कि, 
( माध्वीर्नः सन्तु ओषधीः)।

सूर्य  इस रस का सोख कर कहाँ एकत्र करता है? 
इसके विषय में न तो कोई एक धारणा थी, न किसी एक के विषय में स्पष्ट जानकारी थी। गँवारों से लेकर  संभ्रांत जनों तक, नई सोच से लेकर पुराने विश्वासों तक,  सभी की कुछ  झलक वैदिक रचनाओं में मिल जाएगी। इसे  संक्षेप में दुहराएँ तो  एक बहुत पुराना विचार  यह था  कि आसमान से वृष्टि के देवता  (जीमूत) प्रस्राव करते हैं  और उसी से वर्षा होती है।  इसी का कुछ बदला हुआ रूप  वर्षा को रेतःसेक के रूप में चित्रित करना है। 
[घृतवती भुवनानां अभिश्रिया उर्वी पृथ्वी मधुदुघे सुपेशसा । द्यावापृथिवी वरुणस्य धर्मणा विष्कभिते अजरे भूरिरेतसा ।। 6.70.1] 
यह रेतस्  ही सोम है। इसमें  सोम कभी अश्व (assinus) रेत  के रूप में कल्पित किया जाता है ।
(अयं सोमो वृष्णो अश्वस्य रेतः, 1.164.35; स पुनानो मदिन्ततमः सोमश्चमूषु सीदति । पशौ न रेत आदधत् ---, 9.99.6 ), 
कभी वृषभ के रूप में,
[रुवति भीमो वृषभस्ः तविष्यया शृंगे शिशानो हरिणी विचक्षणः । आ योनिं सोमः सुकृतं नि सीदति गव्ययी त्वक् भवति निर्णिक् अव्ययी ।। 9.70.7]।  
सोम (चन्द्रमा)  को   वृषभ के रूप में दिखाया गया है।
[  त्वं नृचक्षा असि सोम विश्वतः पवमान वृषभ ता वि धावसि, 9.86.38]।  

इसी से लिंगपूजा आरंभ होती है।  सोमनाथ या शिव के रूप में जिसकी पूजा की जाती है वह सोम का रस निकालने का खरल और ग्रावा (लोढ़ा) है जिसके मथने से निकला रस आगे निकली नाली से द्रोण कलश या डोंगे में धार के साथ गिरता है।  इन्द्र तो वृषभ हैं ही,
[ तमिन्द्रं वाजयामसि महे   वृत्राय हन्तवे स वृषा वृषभो भुवत्, 8.93.7], 
अग्नि भी वृषभ हैं, अपने प्रचंड रूप में बिगड़ैल साँड़ जैसा होने के कारण हैं और दूसरे, वाष्पन में ऊष्मा की भूमिका के कारण जिससे वडवानल की अवधारणा का संबंध है ।
[आ सुते सिञ्चत श्रियं रोदस्योरभिश्रियम् । रसा दधीत वृषभम् ।। 8.72.13] 
और सबसे ऊपर  आधुनिक ज्ञान था कि  वर्षा समुद्र के वाष्पन से  वायुमंडल में  संघनित सर्पणशील वाष्प  या बादलों के रूप में  प्रवाहित होता है।  प्रकृति के इस विधान से ही वायु की दिशा अनुकूल होने पर मेघ वायुमंडल में घिरते, परस्पर जुड़ कर संघनित (घन) हो जाते हैं, और बरसात होती है? परन्तु कुछ बादल ऐसे भी होते हैं जो जल को चुराकर भाग जाते हैं।  

चुरा कर भाग जाने वाले बादलों की कल्पना  उनके जीवनानुभव की देन थी।   कुछ लोगों के पास बहुत सारा धन एकत्र हो जाता है  परन्तु उनमें सभी का चरित्र एक जैसा नहीं होता।  । उनमें कुछ ही उदारमना होते हैं और खुल कर दान करतेहैं, इस दान की तुलना बादलों के खुल कर बरसने से की गई  - पूरे सारस्वत क्षेत्र में राजा तो अकेला चित्र है जिसने मेघ की तरह हजारोंं लोगों को अकूत (अयुत= दस हजार) दान दिया, दूसरे तो राजुक है,  
[चित्र इद्राजा राजका इदन्यके यके सरस्वतीमनु । पर्जन्य इव ततनद्धिवृष्ट्या सहस्रमयुता ददत् ।। 8.21.18]  

कंजूस किसी को कुछ देना ही नहीं चाहते।  धन के मुक्त दान प्रवाह में अवरोध पैदा करने वाले, सारा धन अपने पास रखने वाले इन कृपणों जैसे ही वे बादल हैं जो आते हैं, आकाश में छा जाते हैं और फिर भी गरज-तड़क कर जल भंडार को ले कर सरक जाते हैं। उनके इस गरजने-तड़कने को ऐसे अहंकारी (मन्यमान) लुटेरे  के दंभ प्रदर्शन के रूप में रखा गया कि इनकी तुलना असुरों से, तस्करों से की गई और इनकी प्रकृति के अनुसार इन्हें, वृत्र, शंबर, नमुचि, कुयव, शुष्ण, चुमुरि, धुनी, आदि नामों से अभिहित किया गया।  

इन्हींं में एक को  अराव्ण (रावण) - गरजने वाला पर बरसने या देने को तैयार नहीं। रामायण में जल को चुराने  वाले की जगह जल के भीतर छिपे और कृषि की मूर्तिमती सीता को ही चुरा लेने वाले के रूप में चित्रित किया गया और उसके कुनबे और परिजनों की रचना की गई । अराव्ण  का अर्थ अदाता है,  
[ घनेव विष्वक् वि जहि अराव्णस्,  1.36.16]  
पर इसके साथ द्रोह का भाव भी जुड़ गया है। 
[सायण और ग्रिफिथ ने एक अन्य  स्थल पर इसके जो अर्थ सुझाए हैं वे इस प्रकार हैं अराव्णे (7.31.5) अदात्रे, hateful calumny, रा का अर्थ दान है इसलिए अरावा का अर्थ  भी वही होना चाहिए, पर उन्होंने अर्थ किया है, अरावा (7.56.15) शत्रुभूता, who hateth us] संभवतः  रावण का सीधी संबंध आरू से जोड़ कर गर्जना करने वाला और न बरसने वाला बादल था। रावण के पुत्र मेघनाद और भाई कुंभकर्ण के नाम में आए कुंभ और उसके छह महीने सोए रहने पर ध्यान दें तो इसका भी बादलों से संबंध दिखाई देगा । नामकरण में भले ऋग्वेद के विकर्ण जन की छाया हो जिनको दाशराज्ञ सूक्त में इन्द्र ने निर्मूल किया था।  

अब इस पृष्ठभूमि में सोम, जिसका पर्याय मधु है, उसका अर्थ समझने चलें तो विश्व की सभी वनस्पतियों में प्रवाहित रस जल ही है, औषधीय पौधों में भी, विषैले पौधों में भी मधु या सोम ही है।  जो इक्षु  में एक गुण, स्वाद और प्रभाव में और विष में भिन्न गुण, स्वाद और प्रभाव में और भेषज में भिन्न गुण, स्वाद और प्रभाव में प्रकट होता है वह जल तत्व ही है, उसे जल कहो, पय कहो,  मधु कहो, तुषार कहो, हिम कहो, वाष्प कहो या अदृश्य गैस (उद्जन या  हाइड्रोजन) सभी उस एक तत्व की विविध रूपों में उपस्थिति के प्रमाण हैे, क्योंकि जल के अभाव में न तो विषैला पादप जीवित रह सकता था, न उसकी  विषाक्तता रह सकती थी। 
 
मैं यह नहीं कहता कि भारतीय तत्वचिंतन किसी भी मजहब की तुलना में श्रेष्ठतर है,  मैं यह कहता हूँ, श्रेष्ठता और कनिष्ठता का निर्णय करने से पहले यह तो समझें कि जिनके बीच तुलना की जा रही है वे हैं क्या। जब तक यह अधिकार नहीं प्राप्त हो जाता तब तक संयम तो बरता जा सकता है। इसके अभाव में फैसले करने के अधिकार ने भारत में एक ऐसी बहुवादी जमात को जन्म दिया जो, मुक्तिबोध के शब्दों मे रावण के घर पानी ही नहीं भरता रहा है, अपितु इसे अपनी सर्वोपरि उपलब्धि मानता रहा है।

ऋग्वेद में सरल से सरल बात को गूढ़ बना कर कहने की, अमूर्त को मूर्त बनाने की प्रवृत्ति है पर कुछ भी ऐसा नहीं है, जिसे अनर्गल या ऊल-जलूल कहा जा सके।  कवियों को जिस वर्ग का संरक्षण प्राप्त था, उसकी अपनी व्यावसायिक भाषा में छिपाव, दुराव और कूटोक्तियों का प्रयोग होता था, इसलिए कूटरचना उनके संरक्षकों की रुचि और प्रकृति के भी अनुरूप थी।  परन्तु यदि कुहरिलता कविता की  श्रेष्ठता की एक माँग हो सकती है तो विलियम एम्पसन को यह भले बीसवीं सदी में सूझा हो (Seven Types of Ambiguity, William Empson,  1930 अपनी लोकप्रियता के कारण 1947 और 1953 में संशोधित),  भारतीय कवि वैदिक काल से, संभवतः उससे पहले से, इसका प्रयोग भी करते आए है् और काव्यशास्त्रियों ने अलंकारशास्त्र में इनके वर्गीकरण और नामकरण भी किए (विलोम, अपह्नुति, श्लेष, यमक, रूपक - सांग, अभेद, भेदाभेद,  स्तुति   आदि)  और परिभाषित भी किया। अब इस ऋचा पर ध्यान दें, 
वृषा मतीनां पवते विचक्षणः सोमो अह्नः प्रतरीतोषसो दिवः ।
क्राणा सिन्धूनां कलशानवीवशदिन्द्रस्य हार्द्याविशन् मनीषिभिः ।। 9.86.19
“ज्ञान की वर्षा करने वाला(वृषा मतीनां)[1], विचक्षण सोम प्रवाहित हो रहा है[2], यह दिन और उषा और द्युलोक सभी का वर्धन करता है (सभी सोम का पान करके अमर बने रहते है।) इसने ही जलधाराओं का निर्माण किया है[3] और इस आकांक्षा के साथ कि इ्न्द्र इसका पान करेंगे मनीषियों के द्वारा (मनस्विता  के साथ) कलश में प्रवेश करना चाहता है। 

द्युलोक से भूलोक की यात्रा नारद जैसे ऋषि ही नहीं करते रहे हैं अपनी रचनाओं में वेदिक कवि भी करते रहे है। वैयाकरणों के द्वारा, भाषा पर अधिकार के बल पर, सच कहें तो उनका भाषा पर अधिकार भी इतना अधूरा है कि वे वेद की भाषा ही नहीं व्यावहारिक भाषा के मर्म को भी नहीं समझ सकते, न समझ सके, जिसमें पाणिनि और पतंजलि जैसे प्रातः स्मरणीय वैयाकरण भी आते हैं, जब कि भारतीय लोक चेतना में  निरंतर प्रवाहित होता रहा है।  इसे समझने के लिए मैं  स्वतंत्रता आंदोलन के समय अंग्रेजी शोषण के विरुद्ध रची गई एक रचना की ओर ध्यान दिलाना चाहूंगा: 
एक अचरज हम अइसा देखा,  
बानर  दूहै गाय 
दूध  दूह  कर पियत जात हैं
घिउआ भेजै चलान, 
हे मन अइसा देखा
नैया बिचे नदिया डूबल जाय…

इसीलिए मैं  मानता हूं  कि वैदिक  ऋचाओं का अर्थ जानने के लिए  संघ संस्कृत के ज्ञान के साथ बोलियों का ज्ञान जरूरी है पंडितों के शास्त्रीय ज्ञान के साथ लोक विश्वास,  लोक साहित्य,  लोग चिंताधारा का ज्ञान जरूरी है अभी तक का वैदिक अध्ययन एकांगी रहा है।  उसमें  भाषाविदों के लिए जितनी जगह थी काव्य शास्त्रियों और   कवियों के लिए नहीं थी।  ऋग्वेद की दुरूहता के लिए  यह पक्ष भी उत्तरदायी है।  मैं ऋचाओं को उद्धृत करके अपनी व्याख्या में इसलिए आगे बढ़ जाता हूं यदि अनुवाद करने पर आया तो  विषय विस्तार ना हो जाएगा और जो विचार प्रस्तुत करना चाहता हूं,  कर ही नहीं पाऊंगा। पर मूल के किसी अनुवाद  से जो इंटरनेट पर उपलब्ध हैं, उनका खंडन नहीं होता। जिज्ञासु मेरे कथन पर भरोसा करके आगे के तारतम्य .या अंतःसगति पर ध्यान दे सकते हैं या स्वयं इसकी जाँच करके प्रश्व कर सकते हैं कि दोनों में विरोध क्यों और कहा  है।

[1]सायण ने इसका अर्थ किया है स्तोताओं की कामनाओं की पुष्टि करने वाला, जो मुझे दूरारूढ़ और पुरोहिती लगता है क्योंकि आगे आने वाले विचक्षण से मेल नहीं खाता, जब कि चाँदनी में हमारी भावनाएँ, कल्पनाएँ, विचार स्वतः भीतर से फूटते से लगते हैं।
[2] ’ चांदनी में नहाया, ज्योत्स्ना स्नात, -में धुला, --सराबोर,-- डूबा आम प्रयोग हैं जो सम और उष्म जलवायु में चाँदनी में अनुभव किए जाने वाले आह्लाद को प्रकट करते है। केदारनाथ सिंह की पंक्तियाँ याद आती हैं, ‘चाँदनी में बह गए हैं घर, मुहल्ले, गाँव… ।’
[3] इसका श्रेय इन्द्र को भी दिया जाता है (अतर्पयो विसृत उब्ज ऊर्मीन् त्वं वृताँ अरिणा इन्द्र सिन्धून ।। 4.19.5. 

पूरे ऋग्वेद में  वृत्रासुर  के  वध  का  अनेक रूपों में चित्रण है परंतु वह बध है क्या?
हनाव वृत्रं रिणचाव सिन्धून् इन्द्रस्य यन्तु प्रसवे विसृष्टाः ।। 8.100.12
इंद्र ने  जल के  प्रवाह  या वर्षण  में बाधा पहुंचाने वाले  का निर्मूलन  और जल के प्रवाह  या वृष्टि को संभव बनाने की रूपकथा है।  
‘ इंद्र ने वृत्र को  मार कर नीचे गिरा दिया (अव हन) और जल धाराओं को प्रवाहित किया।  यह जल के प्रवाह में  बाधा देने वाले शत्रु पर विजय है। परंतु  जल के प्रवाह में बाधक एक अन्य असुर  शंबर है। पर्वतों की चोटियों पर विराजमान है।
(यः शम्बरं पर्वतेषु क्षियन्तं चत्वारिंश्यां शरद्यन्वविन्दन् । ओजायमानं यो अहिं जघान दानुं शयानं स जनास इन्द्रः ।। 2.12.11) 
बर्फ को पिघलाने में सूर्य-रश्मियों, अग्नितत्व या ऊष्मा की भूमिका पर और शंबर (शं-जल+वर-वारण करने वाले) के आयसी पुर के भेदन को समझा जा सकता है?  किसी ने बादलों के घनीभूत पुरों (घन) को यह मानते हुए भी कि ये असुर  बादलों के ही मानवीकरण हैं, समझने समझाने का प्रयत्न क्यों नहीं किया इस पर विस्मित रह जाता हूँ? 
(त्वा युजा तव तत् सोम सख्य इन्द्रो अपो मनवे सस्रुतस्कः । अहन्नहिमरिणात् सप्त सिन्धूनपावृणोदपिहितेव खानि ।। 4.28.1) 

वृत्र जो बादलों के रूप में गतिशील (अहि) है, या अजगर के रूप में पर्वत पर जमा है, उसे तोड़ कर मिटा कर जल धाराओं को प्रवाहित करना और समाज को अवरोधक शक्तियों से और उनके अन्याय से मुक्त कराना है।  यहां आकर  इंद्र और वृत्र,  राम और रावण  का युद्ध  न्याय और अन्याय,  असत्य और सत्य, के  संघर्ष  और अन्याय पर विजय का रूप ले लेता।
  
अब हम इस आयाम  को ले सकते हैं कि इंद्र यदि  एक विशिष्ट भूमिका में सूर्य के प्रतिरूप है,  तो वह जिस सोम का  छक कर पान करते हैं (हृत्सु पीतासः) वह सोम क्या है जिसे छक कर पीने के बाद ही वह मदमत्त हो जाते हैं तो इसका, मेरी समझ से उत्तर यह वायु में आर्द्रता की वृद्धि है, वाष्प का शोषण है जिसके बाद लोग मस्त हो जाते हैं. यही इसकी मत्सरता है। यदि बरसात के मौसम में वह मस्ती, वह आह्लाद अनुभव ही न हुआ हो तो आप भारत को जानते ही नहीं। पर यहाँ यह सवाल खड़ा होता है कि जिस इन्द्र से सोमपान के आह्लाद, आवेश और उत्साह पर सोम की मादकता की बढ़ चढ़ कर बातें की जाती रहीं उसमें  तो मादकता  होती ही नहीं थी।

वर्षा कराने में सोम की भुमिका यह है कि सूर्य अपनी सृष्टि का मूल अप्रकेत जल है, जिसमें सब कुछ अव्यक्त अवस्था में विद्यमान था, ऐसा कुछ भी नहीं है जो किसी न किसी ताप पर द्रव में न बदल जाय, यह धातुओं को गलाने के क्रम में जाना था। जल से वायु का पैदा होने की उद्भावना पानी से उठती भाप के आधार पर की गई लगती है। इस तरह एक ही तत्व (इन्द्र-जल) है जो विश्वप्रमंच में विविध रूपों में व्यक्त है ।
(आतिष्ठन्तं परि विश्वे अभूषञ्छ्र्रियो वसानश्चरति स्वरोचिः  । महत् तद् वृष्णो असुरस्य नामाऽऽ विश्वरूपो अमृतानि तस्थौ  ।। 3.38.4 रूपंरूपं प्रतिरूपो बभूव तदस्य रूपं प्रतिचक्षणाय ।
इन्द्रो मायाभिः पुरुरूप ईयते …. 6.47.18;  ) । 

एक ही अग्नि समस्त जनों का असंख्य ओषधियों का रूप लेकर पालन करता है 
(त्वमग्ने पुरुरूपो विशेविशे वयो दधासि प्रत्नथा पुरुष्टुत । पुरूणि अन्ना सहसा वि राजसि त्विषिः सा ते तित्विषाणस्य नाधृषे ।। 5.8.5)  

मां जैसे अपने बच्चों का पालन करती, देखभाल  है उसी तरह विविध रूपों में व्याप्त हो कर अग्नि पालन करते हैं,
(मातेव यद् भरसे पप्रथानो जनंजनं धायसे चक्षसे च । वयोवयो जरसे यद्दधानः परि त्मना विषुरूपो जिगासि ।। 5.15.4)  

एक ही तत्व समस्त सृष्टि में व्याप्त है विद्वान लोग उसका विविध रूपों में वर्णन करते हैं, सभी देवता एक हैं, एक ही परम सत्ता विविध नामों रूपों से जानी जाती है।
इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्यः स सुपर्णो गरुत्मान् । एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः ।। 1.164.46।  

जब आप इस एकत्व का साक्षात्कार करते हैं तो सभी प्रकार के भेद मिट जाते है, सामाजिक ऊँच-नीच समाप्त हो जाता है - सियाराम मय सब जग जानी,  करहुँ प्रनाम जोरि जुग पानी।  यह बोध भारतीय चिंताधारा में इतने गहरे समाया  हुआ है वर्णवादियों को भी अपने बचाव के लिए इसका सहारा लेना पड़ा है।  इसे ही हथियार बना कर जातिवाद के विरुद्ध बार बार अभियान चलाए जाते रहे हैं।  
विश्वामित्र विद्या विनय संपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि। शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः।।5.18

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )

                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                           

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