Sunday, 28 February 2021
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Saturday, 27 February 2021
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बजट - 2021 - शिक्षा बजट में कटौती - अनपढ़ और जाहिल समाज मौजूदा सत्ता की पहली पसंद / विजय शंकर सिंह
बजट 2021 - 22, सरकारी सम्पदा को बेचने यानी सरकार के शब्दों में विनिवेशीकरण या निजीकरण का एक दस्तावेज है, और इसे साइबर की तकनीकी भाषा मे कहें तो, यह एक टूलकिट की तरह है। सरकार, किसलिए अवतरित हुयी है यह शायद सरकार को ही पता हो, पर सच तो यह है कि सरकार के कथनानुसार, सरकार बिजनेस करने की चीज नहीं है। सरकार के प्रिएम्बल का खुलासा खुद सरकार के प्रधानमंत्री जी ने ही किया और एक बात साफ कर दी कि, सरकार का काम बिजनेस करना नहीं है। उधर सरकार ने अपने मन की बात उजागर की, इधर दुंदुभिवादन शुरू हो गया, और पगड़ी क्षत्र चंवर की बात हरचरना गुनगुनाने लगा। सरकार बिजनेस के लिये नहीं बनी है, इस बात निश्चित हो जाने के बाद, यह सवाल सरकार के दुंदिभिवादक नहीं पूछ सके कि, फिर सरकार किस काम के लिये धरती पर अवतरित हुयी है, क्योंकि सरकार को न तो ज़बानदराजी पसंद है और न ही जवाबदेही, साथ ही असहज करने वाली पूछताछ।
एक अजीब किस्म की गैरजिम्मेदारी, खुदगर्ज़ी और अहमकाना भरा दौर है यह, जहां पेट्रोल डीजल की कीमतों के बढ़ने पर सरकार यह तर्क देती है कि, तेल की कीमतें, अंतरराष्ट्रीय बाजार तय करता है, गैस की कीमत बढ़ने पर, मंत्री यह कहते हैं कि, सर्दी जब उतर जाएगी तो, गैस की कीमत गिर जाएगी, यानी मौसम के सर्द गर्म होने का असर गैस की कीमतों पर पड़ता है। प्याज की बढ़ती कीमतों के बारे सरकार, संसद में कहती है कि वह ( वित्तमंत्री ) प्याज नहीं खाती हैं। ऐसे ही अनेक हास्यास्पद जवाब आप को जीवन से जुड़े मुद्दों पर सवाल उठाने पर मिलेंगे, पर इन सब जवाबो के पहले देशद्रोही का तकियाकलाम तो सुनना ही पड़ेगा। आज बजट 2021 - 22 के संदर्भ में शिक्षा की क्या स्थिति है, इस विषय पर एक समीक्षा करते हैं।
इस बार के बजट 2021 - 22 में सरकार ने शिक्षा के मद मे भी कटौती की है। शिक्षा और स्वास्थ्य, भोजन तथा आवास के बाद सबसे महत्वपूर्ण मौलिक आवश्यकता है। लेकिन शिक्षा को लेकर वर्तमान सरकार का रवैया, इस बजट के आलोक में, निराशाजनक रहा है। कोरोना आपदा के बाद अब जन जीवन सामान्य हो रहा है, लेकिन इस आपदा में सबसे अधिक जिन सेक्टरों में उक्त महामारी का असर पड़ा है, उनमे शिक्षा का क्षेत्र भी शामिल है। साल भर से, स्कूल कॉलेज बंद हैं, और इसका कुप्रभाव न केवल पढ़ाई पर पड़ा है, बल्कि स्कूलों और कॉलेजों में काम करने वाले स्टाफ़ और अध्यापकों के जीवनयापन पर भी प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से पड़ रहा है। इस वैश्विक आपदा के कारण जब जनजीवन थम गया तो स्कूलों और कॉलेजों में भी पढ़ाई वर्चुअल यानी ऑनलाइन होने लगी। भारत मे वर्चुअल या ऑनलाइन पढ़ाई के कारण छात्रों और अध्यापको के समक्ष बहुत सी दिक्कतें आयीं। यह समस्या, कम्प्यूटर, अच्छे स्मार्टफोन, टैब या मोबाइल सहित अन्य उपकरणों को लेकर तो थी ही, साथ ही इंटरनेट कनेक्टिविटी और उसकी सुलभता को लेकर भी थी। शहरों में तो, कुछ बेहतर सुविधाएं उपलब्ध थीं, पर गर्मीण क्षेत्रों में ऐसी समस्या का होना आम बात है। ग्रामीण क्षेत्रों में स्तरीय नेट कनेक्टिविटी, और अच्छे स्मार्टफोन तथा कम्प्यूटर के अभाव के काऱण, वर्चुअल कक्षाओं का लाभ, ग्रामीण क्षेत्र के छात्र उतनी सक्षमता से नहीं उठा पाए जितनी दक्षता से शहरी क्षेत्रो के छात्रों ने लाभ उठाया था। अब जाकर स्कूल और कॉलेज कुछ खुले हैं, पर अभी भी कोरोना पूर्व की समान्य स्थिति बहाल नहीं हो पायी है। यहां तक कि, शहरी क्षेत्रों में भी, निम्न सामाजिक और आर्थिक वर्ग के छात्रों के समक्ष भी इलेक्ट्रॉनिक संसाधनों का अभाव रहा है। ऐसी स्थिति में सरकार का यह दायित्व था कि वह, इस साल के बजट में वह शिक्षा को प्राथमिकता देती, ताकि पिछले साल के आपदाजन्य गतिरोध से थोड़ी मुक्ति तो मिलती।
अब बात कुछ बजट के आंकड़ों की। बजट 2021-22 में शिक्षा मंत्रालय को 93,224.31 करोड़ रूपए आवंटित किए गए है। वित्त वर्ष 2020-21 के मूल बजटीय आवंटन में मंत्रालय को 99,311.52 करोड़ रूपए आवंटित किये गये थे, जो बाद में संशोधित होकर 85,089 करोड़ रूपए हो गया था क्योंकि देश में कोविड-19 महामारी का संकट था और संक्रमण के प्रकोप के कारण कक्षाओं को बंद करना पड़ा था। वर्तमान बजट के अनुसार, स्कूली शिक्षा विभाग को 54,873 करोड़ रूपए प्राप्त हुए हैं जो पिछले बजट में 59,845 करोड़ रूपए थे । यह 4,971 करोड़ रूपए की कमी को दर्शाता है।
उच्च शिक्षा विभाग को इस बार 38,350 करोड़ रूपए का आवंटन किया गया है जो पिछले बजट में 39,466.52 करोड़ रूपए रहा था। बजट में स्कूली शिक्षा योजना समग्र शिक्षा अभियान के आवंटन में कमी दर्ज की गई है और इसके लिए 31,050 करोड़ रूपए का अवंटन किया गया है जो पिछले बजट में 38,750 करोड़ रूपए था। लड़कियों के लिए माध्यमिक शिक्षा की राष्ट्रीय प्रोत्साहन योजना के लिए आवंटन महज एक करोड़ रूपए किया गया है जो चालू वित्त वर्ष में 110 करोड़ रूपए था।
केंद्रीय विद्यालयों के लिए आवंटन बढ़कर 6,800 करोड़ रूपए तथा नवोदय विद्यालयों के लिए आवंटन 500 करोड़ रूपए बढ़ाकर 3,800 करोड़ रूपए किया गया है। मध्याह्न भोजन योजना का बजट 11,500 करोड़ रूपए किया गया है, जो पिछले साल की आवंटित धनराशि से कम है। केंद्र सरकार ने, भारतीय उच्च शिक्षा आयोग के गठन के प्रस्ताव के क्रियान्वयन की भी बात की है। वित्त मंत्री ने संसद में बजट 2021-22 पेश करते हुए कहा था,
'' बजट 2019-20 में मैंने भारतीय उच्चतर शिक्षा आयोग गठित करने के बारे में उल्लेख किया था। हम उसे क्रियान्वित करने के लिए इस वर्ष विधान पेश करेंगे। यह एक शीर्ष निकाय होगा जिसमें मानक बनाने, प्रत्यायन एवं मान्यता, विनियमन एवं वित्त पोषण के लिए चार अलग-अलग घटक होंगे।"
इसके अतिरिक्त निम्न घोषणाएं भी की गयी। बजट भाषण के अनुसार,
● कई शहरों में विभिन्न अनुसंधान संस्थान, विश्वविद्यालय और कॉलेज हैं जो सरकार के समर्थन से चलते हैं। उदाहरण के लिए हैदराबाद, जहां तकरीबन 40 मुख्य संस्थान हैं। इसी तरह 9 अन्य शहरों में हम इसी तरह का एक समग्र ढांचा खड़ा करेंगे जिससे इन संस्थानों में बेहतर सुविधाएं उपलब्ध हो सकें, साथ ही इनकी स्वायत्ता बरकरार रह सके।
● इस उद्देश्य के लिए एक विशिष्ट अनुदान की शुरुआत की जाएगी।
● देश के 15,000 से अधिक स्कूल, राष्ट्रीय शिक्षा नीति के सभी पक्षों को शामिल करेंगे जिससे देश में शिक्षा की गुणवता को मजबूत किया जा सके और वे अपने क्षेत्र के लिए बेहतर स्कूल के उदाहरण के रुप में उभर सकें।
● 100 नए सैनिक स्कूलों की स्थापना एनजीओ/निजी स्कूलों/राज्यों के साथ साझेदारी में की जाएगी। सैनिक स्कूलों को बजाय एनजीओ द्वारा स्थापित करने और चलाने के इसे एक अलग से बोर्ड बना कर सरकार को अपनी देखरेख में संचालित करना चाहिए।
● लद्दाख में उच्च शिक्षा के लिए लेह में एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय के गठन का प्रस्ताव है।
● जनजाति क्षेत्रों में 750 एकलव्य मॉडल आवसीय स्कूलों की स्थापना का लक्ष्य है।
● ऐसे स्कूलों की इकाई लागत को 20 करोड़ रूपए से बढ़ाकर 38 करोड़ रूपए करने का है, और पहाड़ी एवं दुर्गम क्षेत्रों के लिए इसे बढ़ाकर 48 करोड़ रूपए करने का प्रस्ताव है।
● जनजातीय विद्यार्थियों के लिए आधारभूत सुविधा के विकास में मदद और अनुसूचित जाति के कल्याण के लिए पोस्टमैट्रिक छात्रवृत्ति योजना का पुनरूद्धार किया गया है। इस संबंध में केंद्र की सहायता में भी वृद्धि की गयी है।
● अनुसूचित जाति के 4 करोड़ विद्यार्थियों के लिए 2025-26 तक की छह वर्षो की अवधि के लिए 35,219 करोड़ रूपए का आवंटन किया गया है।
बजट में की गयी धन आवंटन की कमी का असर, शिक्षा के क्षेत्र में चल रही कुछ महत्वपूर्ण योजनाओं पर भी पड़ेगा। जैसे,
● समग्र शिक्षा अभियान, जो सरकार की एक महत्वपूर्ण योजना है में, पिछले बजट में जहां 38,751 करोड़ रुपये का आवंटन किया गया था, वहां इस साल, यह आवंटन घटा कर, 31,050 करोड़ रुपये का, कर दिया गया है।
● राष्ट्रीय शिक्षा मिशन जिंसमे शिक्षकों की शिक्षा का विंदु भी सम्मिलित है, में वर्तमान बजट में आवंटन 31,300.16 करोड़ रुपये का कर दिया गया है, जबकि पिछले साल इसी मद में 38,840.50 करोड़ रुपये का आवंटन किया गया था।
● बच्चों को दोपहर में भोजन देने की योजना के अंतर्गत, मिड डे मील में सरकार ने, पिछले बजट के आवंटन 12,900 करोड़ रुपये की तुलना में, 11,500 करोड़ रुपये का आवंटन इस साल किया गया है।
कोरोना ने न केवल सामाजिक और आर्थिक रूप से निम्न वर्ग की शिक्षा को प्रभावित किया है, बल्कि उन बच्चों के कुपोषण को भी प्रभावित किया है जिन्हें स्कूलों में दोपहर का भोजन मिलता था। देश के ग्रामीण क्षेत्रों में वंचित और आर्थिक रूप से विपन्न वर्ग के बच्चों के लिये मिड डे मील एक बड़ी सुविधा के रूप में था, जिस पर कम बजट आवंटन का का असर पड़ सकता है।
आज कोरोना से काफी राहत मिल चुकी है। वैक्सीन भी आ गयी है और टीकाकरण भी चल रहा है। हालांकि कोरोना का दूसरा स्ट्रेन भी आ गया है पर बाजार, मॉल, उद्योग, कल कारखाने आदि खुल गए हैं। धार्मिक आयोजन हो रहे हैं, कुंभ का सबसे बड़ा मेला लगने वाला है, और बड़ी बडी भीड़ भरी चुनावी जन सभाएं हो रही हैं। लेकिन स्कूलों और कॉलेज में अब तक नियमित पढ़ाई शुरू नही हो पायी है। सरकार के पास ऐसी कोई योजना भी नहीं है कि वह स्कूलों और कॉलेज को प्राथमिकता के आधार पर खोलने और शैक्षिक गतिविधियों को जारी रखने पर आगे बढ़े। अब तक देश मे इस पर भ्रम का वातावरण है। कुछ राज्यों ने अपने अपने राज्य में स्कूल कॉलेज खोले भी थे, जैसे आन्ध्र प्रदेश ने सबसे पहले अपने राज्य में स्कूल कॉलेज खोले थे, पर जब संक्रमण के मामले आने और बढ़ने लगे तो उन्हें बंद करना पड़ा। अधिकतर राज्यो ने अपने स्कूल कॉलेज जनवरी तक बंद भी रखे हैं। कोरोना से बचने के लिये सैनिटाइजर, मास्क आदि निरोधक उपायों के बावजूद, स्कूल कॉलेजों में स्वस्थपूर्ण जीवन शैली और जन स्वच्छता के प्रति सामान्य जागरूकता के साथ साथ संसाधनों की भी कमी है। इस पर अभी न केवल ध्यान देना होगा, बल्कि छात्रों औऱ अध्यापकों को भी जागरूक करना पड़ेगा। इन सबके लिये कोरोनोत्तर काल मे धन की अलग से व्यवस्था की जानी चाहिए जो इस बार के बजट में नहीं की गयी है। अब साफ सफाई के प्रति जन जागरूकता और जन स्वच्छता एक औपचारिक संदेश या क्युरिकलम के रूप में ही नहीं देखा जा सकता है, बल्कि स्वस्थ और रोगरहित रहने के लिये, जीवन के एक अनिवार्य अंग के रूप में इसे स्वीकार करना पड़ेगा, क्योंकि वैक्सीन की खोज और चल रहे टीकाकरण के बावजूद, कोरोना महामारी का ख़तरा अभी खत्म नहीं हुआ है, बल्कि वह अभी भी बरकरार है, बस उसका स्वरूप और स्वभाव ज़रूर बदला हुआ है।
कोरोना आपदा की महामारी के बीच, जब देश की जीडीपी माइनस 23.9 % तक आ गिरी हो, तो, ऐसी विषम परिस्थितियों में, वर्ष 2021 - 22 का बजट तैयार करना किसी भी सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती है। खास कर ऐसे समय मे जब, सरकार की सिवाय, बिना सोचे समझे, सब कुछ बेच देने की आत्मघाती निजीकरण की नीति के अतिरिक्त अन्य कोई आर्थिक सोच सूझती ही न हो। इसमे कोई दो राय नही कि, कोरोना काल मे देश की आर्थिकी को बहुत नुकसान पहुंचा है। लेकिन यदि अर्थव्यवस्था की समीक्षा के दौरान विभिन्न आर्थिक सूचकांकों को देखें तो देश की आर्थिकी में गिरावट 8 नवम्बर 2016 की रात 8 बजे घोषित अब तक के सबसे विवादास्पद आर्थिक घोषणा नोटबन्दी के बाद से ही शुरू हो गयी थी। अर्थव्यवस्था तो मार्च 2020 में ही लड़खड़ाने लगी थी, तभी कोरोना आ गया और उससे आर्थिकी ध्वस्त हो गयी। अब कुछ उम्मीद बंधी है। लेकिन अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में इस गिरावट से उबरने की किसी स्पष्ट नीति का अभाव भी इस बजट 2021 - 22 में साफ साफ दिखता है।
इसमे कोई दो राय नहीं है कि एक महामारी की आपदा में सबसे अधिक जोर और सरकार का व्यय स्वास्थ्य सेक्टर पर होना चाहिए। बल्कि स्वास्थ्य के इंफ्रास्ट्रक्चर विकास पर नियमित ध्यान दिया जाना चाहिए। सरकार ने कोरोना काल मे तमाम अफरातफरी और बदहवासी भरे निर्णयों के बीच महामारी को नियंत्रण में रखने के उपाय भी किये। दुनियाभर में कोरोना आपदा के असर को देखते हुए भारत मे यह महामारी काफी हद तक नियंत्रित भी रही है। लेकिन, शिक्षा का भी महत्व स्वास्थ्य से कम नहीं है। बल्कि यह जीवन से जुड़े मुद्दों में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है और समाज तथा जनजीवन के विकास में इसका सबसे महत्वपूर्ण योगदान है। बजट 2021 - 22 में की गयी कटौती, शिक्षा पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकती है।
( विजय शंकर सिंह )
Tuesday, 23 February 2021
सेडिशन धारा 124A, राजद्रोह कानून और उसकी प्रासंगिकता
Tuesday, 16 February 2021
कम वेतन पाने वाला पत्रकार, अधिक खतरनाक होता है / विजय शंकर सिंह
पूरा किस्सा इस प्रकार है। 1851 में न्यूयॉर्क ट्रिब्यून के प्रकाशक और सम्पादक होर्स ग्रीली ने लंदन में काम कर रहे एक फ्रीलांस पत्रकार कार्ल मार्क्स को अपने अखबार में विदेश संवाददाता के रूप में नौकरी पर रखा। मार्क्स लंदन से ही, उक्त अखबार के लिए विदेशी मामलो पर अपने डिस्पैच भेजते थे। तब लंदन दुनिया के साम्राज्यवाद का नाभिस्थल था और मार्क्स की टिप्पणियों को बेहद रुचि और उद्विग्नता से पढ़ा भी जाता था। मार्क्स उस अखबार के लिये नियमित रूप से कॉलम लिखने लगे। पर जब कभी मार्क्स किसी अन्य अध्ययन में व्यस्त हो जाते तो, वह कॉलम उनके साथी फ्रेडरिक एंगेल्स लिख दिया करते थे। वैचारिक और दृष्टिकोणीय समानता के कारण, दोनो के लेखन और तार्किकता में कोई बहुत अंतर होता भी नहीं था। इस अखबार में नौकरी के दौरान, कार्ल मार्क्स, की आर्थिक स्थिति बिगड़ गयी और वे निरन्तर अर्थाभाव में रहने लगे। उन्होंने अपनी तनख्वाह बढ़ाने के लिये अखबार के मालिक, ग्रीली और प्रबंध संपादक, चार्ल्स डाना से, कम से कम 5 डॉलर की वृद्धि करने का अनुरोध किया। लेकिन अखबार ने भी यह कह कर कि, उसकी भी आर्थिक स्थिति, अमेरिकी गृह युद्ध के कारण अच्छी नहीं है, अखबार ने भी, भी कार्ल मार्क्स की तनख्वाह बढाने से मना कर दिया। इस पर मार्क्स और एंगेल्स ने अखबार पर उन्हें ठगने और अपने शोषण करने की क्षुद्र पूंजीवादी सोच से ग्रस्त होने का आरोप लगाया और जब मार्क्स की तनख्वाह नहीं बढ़ी तो, उन्होंने ट्रिब्यून की नौकरी छोड़ दी और फिर वे अपने अध्ययन और दर्शन को समृद्ध करने में एंगेल्स के साथ पूरी तरह से जुट गए। फिर जो हुआ, वह बौद्धिक क्षेत्र में एक ऐसा बदलाव था, जिसने दुनिया बदल दी।
इसी प्रकरण पर हल्के फुल्के अंदाज़ में, जॉन एफ कैनेडी टिप्पणी करते हुए कहते हैं,
" यदि एक बार इस पूँजीवादी न्यूयॉर्क ट्रिब्यून अखबार उन ( कार्ल मार्क्स ) से अधिक दयालुता से पेश आया होता, और कार्ल मार्क्स यदि उक्त अखबार में एक विदेश संवाददाता ही बने रहते तो, दुनिया का इतिहास ही कुछ अलग होता है। मैं सभी प्रकाशकों से यह आशा करता हूँ कि, वे इससे यह सबक सीखेंगे और भविष्य में यह ध्यान रखेंगे कि, अगली बार अपनी गरीबी से पीड़ित यदि कोई व्यक्ति, अपने वेतन में थोड़ी भी वृद्धि की मांग करता है तो उस पर विचार करेंगे। "
केनेडी ने भले ही यह बाद हल्के फुल्के अंदाज़ में कही हो, पर इसे एक बेहद तार्किक और गम्भीर कथन के रूप में देखा भी जा सकता है। अभाव में जीता हुआ व्यक्ति यदि उक्त अभाव के कारणों की तह में जाता है और जब अपने उचित अधिकारों के लिये तन कर, उक्त अभाव के समाधान के लिए, समाज मे खड़ा हो, मुखर होने लगता है तो, न केवल उसी की परिस्थितियां बदलती हैं बल्कि वह समाज को एक दिशा भी देने की हैसियत में आ जाता है। वह अकेले नहीं रह पाता है। क्योंकि वही अकेले अभाव में नहीं रहता है बल्कि समाज का अधिसंख्य भी तो उसी अभाव को झेलता रहता है। फिर शोषण और उत्पीड़न की उन परिस्थितियों के खिलाफ एक दिमाग बनता है, सवालात जन्म लेते हैं, उनके उत्तर ढूंढे जाते हैं, और कुछ लोग कसमसाते हैं और फिर खड़े होने लगते हैं। उन्ही में से नेतृत्व उभरता है और फिर जो बदलाव का सिलसिला शुरू होता है वह एक झंझावात में बदल जाता है, जिसे हम क्रांति या रिवोल्यूशन कहते हैं।
अभाव और विपन्नता जब ईश्वर का कोप या पूर्व जन्म के कर्मवाद से व्याख्यायित होने लगती है तो, वह नियतिवाद का आवरण ओढ़ लेती है। यह नियतिवाद सारी प्रगति, और बेहतर होने की कोशिशों को निगल जाता है। वह अक्सर संतोष और धैर्य की बात करने लगता है। सब कुछ पिछले धर्म का किया धरा है अतः अगले जन्म में कुछ न कुछ तो बेहतर हो, इसलिए बेहतर और नैतिक जीवन जीने का उपदेश तो देता है, एक ऐसे भविष्य के सपने तो दिखाता है, जो है भी या नहीं है, के बारे में खुद भी संशयग्रस्त है, पर वर्तमान के अभाव, कष्ट और सामाजिक विषमता जन्य बुराइयों के समाधान के प्रति उदासीन भी बना रहता है। जब कोई आवाज़ उठती है, कहीं कुछ खदबदाता है तो उसमें अराजकता ढूंढने लगता है। अराजकता, जनता का जागना, अपने शोषण औऱ अन्याय के खिलाफ खड़े होना, नहीं होता है, बल्कि अराजकता, राज्य का विधिक औऱ लोककल्याणकारी शासन से अलग हट कर, खुद या कुछ की स्वार्थपूर्ति को प्राथमिकता में रख कर, राज करना भी है। राज्य द्वारा किया जा रहा ज्यादतीभरा और दमनकारी शासन, ही असल मे अराजकता है, न कि इस अराजक शासन व्यवस्था के विरुद्ध जनता का उठ खड़ा होना और राज्य को उसके दायित्व और कर्तव्यों के प्रति सचेत करना। अभाव और विपन्नता, न तो ईश्वर प्रदत्त होती है और न ही यह किसी नियति का परिणाम है। यह सामाजिक ढांचे, सामाजिक व्यवस्था, राज व्यवस्था और अन्य परिस्थितियों का परिणाम होती है। उनके कारणों की पड़ताल कर के निदान को खोजा जा सकता है। मार्क्स उन्ही कारणों की पड़ताल की, समस्या की पहचान की और फिर उनके निदान का एक सिद्धांत प्रतिपादित किया, जिसे उनके अनुयायियों ने अपने अध्ययन और कार्यो से और समृद्ध किया। इसी शृंखला में, केनेडी, लेनिन, स्टॅलिन, माओ, कास्त्रो और चे का नाम लेते हैं। केनेडी मर्ज को पहचान चुके हैं और उस मर्ज के तात्कालिक निदान के रूप में ही उन्होंने अपने पूंजीवादी मित्रो को परामर्श दिया कि, वे अभाव और विपन्नता को इतना न बढ़ने दें कि अंसन्तोष फूट पड़े। उनके कथन में अफसोस है या सीख या इतिहास के एक करवट की व्याख्या, इस पर सबकी अलग अलग राय हो सकती है।
कैनेडी एक पूंजीवादी व्यवस्था वाले देश के सेनेटर थे और बाद में वह उस देश के राष्ट्रपति भी बने। उन्हे अमेरिका के बेहतर राष्ट्रपति के रूप में गिना जाता है। यह भी एक विडंबना है कि उनकी हत्या हुयी । निश्चित ही वे जिस दौर मे थे, उस दौर में, शीत युद्ध का काल था। और अमेरिका तथा सोवियत रूस की आपसी प्रतिद्वंद्विता में उनका समय शीत युद्ध के काल का एक अंग था और दुनिया दो खेमों में बंटी हुयी थी। आजकल की तरह एक ध्रुवीय दुनिया नहीं थी। वे शीत युद्ध का उल्लेख करते हैं और तब तक रूस के साथ साथ चीन, क्यूबा और कुछ लैटिन अमेरिकी देशों में पूंजीवाद विरोधी क्रांति या तो हो चुकी थी या होने वाली थी। एशिया और अफ्रीका के जो उपनिवेश, द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद आज़ाद हो रहे थे, वे सब शोषित और उत्पीड़ित समाज के थे। पूंजीवादी और साम्राज्यवादी शोषण से सद्य: मुक्त ये देश, स्वाभाविक रूप से समाजवादी विचारधारा के करीब थे। ऐसे ही समय मे, भारत भी आज़ाद हुआ था और भारत ने भी जो आर्थिक मॉडल चुना था वह मिश्रित अर्थ व्यवस्था का था जो समाजवाद की ओर झुका था। जब संविधान में समाजवादी शब्द नहीं जोड़ा गया था, तब भी हमारा संविधान लोककल्याणकारी और समाजवादी समाज के स्थापना के उद्देश्य पर ही आधारित था और अब भी है। संविधान के नीति निर्देशक तत्व और मौलिक अधिकार, इसे स्वतः स्पष्ट करते है।
केनेडी अपने भाषण में यही रेखांकित करते हैं कि, बढ़ता हुआ आर्थिक और सामाजिक शोषण, अभाव और विपन्नता में धकेलती हुयी राज्य व्यवस्था, क्रांति और बदलाव की भूमिका लिखने लगती है। बस उसे नेतृत्व, दिशा, वैचारिक सोच, परिस्थितियों और अवसर की प्रतीक्षा रहती है। केनेडी के भाषण का अंश अंग्रेजी में इस प्रकार है,
"Karl Marx left his job after NY Tribune refused a pay hike. He then devoted himself to the cause that gave birth to Lenin, Stalin, Mao, Castro, Che.If only this capitalistic New York newspaper treated him more kindly; if only Marx had remained a foreign correspondent, history might have been different, and I hope all publishers will bear this lesson in mind the next time they receive a poverty-stricken appeal for a small increase in the expense account from an obscure newspaper man."
( विजय शंकर सिंह )