सरकार अपनी परफॉर्मेंस का प्रदर्शन आंकड़ो के आधार पर करती है पर आंकड़े उस परफॉर्मेंस को कितनी कुशलता से व्यक्त करते हैं, यह तब तक साफगोई से नहीं कहा जा सकता है तब तक कि आंकड़े सच न हो। सांख्यिकी जो आंकड़ो का विज्ञान है उसके बारे में एक मजेदार कहावत कही जाती है कि, झूठ, महाझूठ और सांख्यिकी। यानी आंकड़े भरमा भी सकते हैं। यह तो आंकड़ो के बाजीगर पर निर्भर करता है।आंकड़ो का होशियार अध्येता, जिन आंकड़ो से सरकार अपनी परफॉर्मेंस तय करती है उन्ही आंकड़ों के आधार पर सरकार की कमी भी निकाल दी जाती है।
पुलिस में बढ़ते अपराध के आंकड़े पुलिस थाने से लेकर पुलिस मुख्यालय से होते हुए सरकार तक चिंता के विषय रहे हैं। अपराध की संख्या का बढ़ना चिंता का विषय हो सकता है लेकिन यह कह देना कि अपराध कम हो रहा है या आंकड़ो में कम हो रहा है कभी कभी अविश्वसनीय लगता है। पुलिस पर एफआईआर न लिखने के आरोप के पीछे की मानसिकता यही है कि जब अपराध का पंजीकरण ही नहीं होगा तो अपराध के आंकड़े तो नियंत्रित रहेंगे ही पर केवल आंकड़े नियंत्रित रहेंगे अपराध नहीं । वे तो हो ही रहे हैं।
विभाग के सभी वरिष्ठ अधिकारी अक्सर यह ज़ोर देते हैं कि मुकदमो का पंजीकरण किया जाय। आज के संचार क्रांति के युग मे जब पल पल की खबर व्हाट्सएप्प और सोशल मीडिया पर आ जाती है तो, ऐसे खुले समय मे अपराध का पंजीकरण या अपराध को कम दिखा कर के पंजीकरण करना अनेक समस्याओं को जन्म देता है। अपराध के आंकड़ों पर ही पुलिस विभाग में नयी नियुक्तियों और संसाधनों की वृद्धि निर्भर करती है।
1967 में यूपी के आईजी ( तब आईजी ही राज्य पुलिस का प्रमुख होता था ) एनएस सक्सेना थे। वे एक उत्कृष्ट और योग्य अफसर थे। उन्होंने यह आदेश दिया कि हर मुकदमा लिखा जाय और उसकी जांच के लिये अधिकारी उपलब्ध नहीं हैं तो यह भी उल्लेख कर दिया जाय कि किल्लत मुलाज़िमान मुकदमा अदम तफतीश रहा, यानी जांच अधिकारी की कमी के कारण मुक़दमे की विवेचना नहीं की जा रही है। इससे प्रदेश में अपराध की संख्या काफी बढ़ी लेकिन इन्ही आंकड़ो के आधार पर आगे जा कर सब इंस्पेक्टर और कॉन्स्टेबल के पद भी बढ़े और नए थाने खुले।
अब कुछ आंकड़ो की बात करते हैं। देश भर के आंकड़ों के साथ उत्तर प्रदेश का उल्लेख अलग से किया गया है। उत्तर प्रदेश राज्य का उल्लेख करने के पहले यह बता देना आवश्यक है कि, उत्तर प्रदेश, जनसंख्या के दृष्टिकोण से देश का सबसे बड़ा, और समस्याओं की विविधता के दृष्टिकोण से भी देश का सबसे जटिल राज्य है। कानपुर में 2 जुलाई की रात को बिकरु गांव में गैंगस्टर विकास दुबे को पकड़ने गयी पुलिस टीम में एक डीएसपी समेत 8 पुलिसकर्मी के शहीद हो जाने, और विकास दुबे के मुठभेड़ में मारे जाने के बाद राज्य की अपराध और कानून व्यवस्था के विंदु पर सरकार की आलोचना हो रही है।हालांकि, नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो यानी एनसीआरबी के डेटा के जरिए उत्तर प्रदेश में अपराध के आंकड़ो की क्या स्थिति है, इसे देखते हैं।
देश के आंकड़े ~
● 2018 में देश में 50.74 लाख से ज्यादा आपराधिक मामले दर्ज हुए थे, उसमें से 11.5% यानी 5.85 लाख मामले यूपी में रिकॉर्ड हुए।
● महिलाओं के खिलाफ अपराध में भी यूपी टॉप पर रहा है। 2018 में 59 हजार 445 मामले आए थे, उसमें से 3 हजार 946 बलात्कार के मामले थे।
● उत्तर प्रदेश में 2017 में ड्यूटी के दौरान 93 पुलिसकर्मियों की जान गई थी, 2018 में 70 पुलिसकर्मी ड्यूटी के दौरान शहीद हुए ।
अब देश और उसके अनुपात में उत्तर प्रदेश राज्य के आंकड़े ~
● एनसीआरबी में यह आंकड़े 2018 तक के हैं। उसके अनुसार, 2018 में देशभर में 50 लाख 74 हजार 634 अपराध दर्ज किए गए थे। ये आंकड़ा 2017 की तुलना में 1.3% ज्यादा था।
इसमें भी अकेले उत्तर प्रदेश में इस साल 5 लाख 85 हजार 157 अपराध के मुक़दमे दर्ज किए गए। इस गणित से 2018 में देशभर में जितने भी अपराध के मामले दर्ज हुए, उसमें से 11.5% मामले अकेले यूपी में दर्ज हुए थे।
● संगीन अपराध, यानी हत्या, बलात्कार, बलात्कार की कोशिश, हत्या की कोशिश, चोरी-डकैती, दंगा या हिंसा भड़काना और वगैरह-वगैरह। ऐसे संगीन अपराधों में उत्तर प्रदेश सबसे ऊपर है।
2018 में देशभर में 4 लाख 28 हजार 134 संगीन अपराध के मुक़दमे दर्ज हुए थे। इसमें से 65 हजार 155 मामले अकेले यूपी में दर्ज हुए थे। यानी उसमें से 15% मामले यूपी में दर्ज हुए थे।
2018 में देश में 29 हजार 17 हत्या की घटनाएं हुयी थीं, इसमें से 4 हजार 18 हत्याएं यूपी में दर्ज हुईं। पूरे देश मे 1 लाख से ज्यादा अपहरण के मुक़दमे दर्ज हुए थे, जिसमें से 21 हजार से अधिक अपहरण की घटनाएं यूपी में दर्ज हुईं।
बलात्कार के मामले में भी मध्य प्रदेश और राजस्थान के बाद यूपी तीसरे नंबर पर था।
● 2018 में देश भर में दलितों के खिलाफ एससीएसटी अधिनियम में 42 हजार 793 मामले दर्ज किए गए थे। इसमें से लगभग 28% मामले उत्तर प्रदेश में दर्ज हुए थे। इस साल यूपी में दलितों के खिलाफ अपराध के 11 हजार 924 मामले दर्ज हुए थे।
● देशभर में 2018 में 31 हजार 591 नाबालिगों किशोरों के खिलाफ अपराध के मामले दर्ज हुए।
इसमें सबसे अधिक, 5 हजार 880 नाबालिग किशोर, महाराष्ट्र के थे।
दूसरे नंबर पर मध्य प्रदेश था, जहां के 5 हजार 232 नाबालिग थे।
जबकि, यूपी इस मामले में 11वें नंबर पर था। यहां के 1 हजार 48 नाबालिग अपराधी बने।
● 2018 में देशभर में महिलाओं के खिलाफ अपराध के 3 लाख 78 हजार 277 मामले दर्ज किए गए थे। इसमें सबसे ज्यादा 59 हजार 445 मामले अकेले यूपी में दर्ज हुए थे।
2018 में देशभर में महिलाओं के खिलाफ अपराध के जितने मामले दर्ज हुए थे, उसमें से 15.7% मामले यूपी में सामने आए थे।
बलात्कार के मामलों में यूपी तीसरे नंबर पर था। 2018 में बलात्कार के सबसे ज्यादा 5 हजार 433 मामले मध्य प्रदेश में और उसके बाद 4 हजार 335 मामले राजस्थान में दर्ज हुए थे। जबकि, यूपी में 3 हजार 946 मामले आए थे।
बलात्कार की कोशिश के सबसे अधिक दर्ज मामलों में यूपी पहले नंबर पर था। देशभर में 4 हजार 97 बलात्कार की कोशिश के मामले दर्ज हुए थे, इसमें से सबसे ज्यादा 661 मामले यूपी में दर्ज हुए थे।
● बच्चों के खिलाफ दर्ज अपराध में भी उत्तर प्रदेश देश में पहले नंबर पर है। एनसीआरबी के आंकड़े बताते हैं कि 2016 से लेकर 2018 तक यूपी देश का पहला राज्य था, जहां सबसे ज्यादा बच्चों के खिलाफ अपराध के मामले दर्ज किए गए।
2018 में बच्चों के खिलाफ अपराध के 1 लाख 41 हजार 764 मामले दर्ज हुए थे, उसमें से 14% से ज्यादा अकेले यूपी में हुए थे। इस साल उत्तर प्रदेश में 19 हजार 936 मामले सामने आए थे।
● 2018 में देशभर में 1 लाख 56 हजार 268 मामले आर्थिक अपराध के दर्ज किए गए थे। इसमें से 22 हजार 822 मामले सिर्फ यूपी में ही दर्ज हुए थे।
लोगों को किसी तरह का लालच देकर उनसे पैसे ऐंठना, किसी दूसरे की प्रॉपर्टी पर कब्जा करना या धोखाधड़ी करना, ऐसे अपराधों को आर्थिक अपराध कहा जाता है।
● 2016 में देशभर में 12 हजार 317 मामले साइबर क्राइम के दर्ज हुए थे, जबकि 2018 में 27 हजार 248 मामले।
2018 में साइबर क्राइम के जितने मामले दर्ज हुए थे, उसमें से 23% मामले अकेले उत्तर प्रदेश में दर्ज हुए थे। 2018 में उत्तर प्रदेश में 6 हजार 280 मामले साइबर क्राइम के रिकॉर्ड हुए थे।
अब इन अपराधों पर पुलिस द्वारा की गयी गिरफ्तारियों के आंकड़े देखे।
● 2018 में जितने मुक़दमे दर्ज हुए, उनमें 55 लाख 08 हजार 190 लोगों को गिरफ्तार किया गया। इनमें 52 लाख 35 हजार 104 पुरुष और 2 लाख 73 हजार 86 महिलाये हैं।
इनमें से सबसे ज्यादा 8 लाख 01 हजार 743 गिरफ्तारियां तमिलनाडु में हुई।
उसके बाद 7 लाख 12 हजार 215 लोग उत्तर प्रदेश में गिरफ्तार हुए।
अदालतों से सजा न होना एक बड़ी समस्या है पर उसके अनेक कारण हैं और उस पर अलग से एक लेख लिखा जा सकता है। यूपी में जितने अपराधियों का ट्रायल हुआ, उसमें से 6% से भी कम को सजा मिली है।
एनसीआरबी के डेटा के अनुसार, 2018 में उत्तर प्रदेश की अदालतों में 4 लाख 27 हजार 175 मामले ट्रायल के लिए भेजे गए थे। इसमें से सिर्फ 24 हजार 215 लोगों को ही सजा मिल सकी। इस हिसाब से जितने मामले ट्रायल के लिए आए, उसमें से सिर्फ 5.6% को ही सजा मिली।
जबकि, 9 हजार 815 लोगों को सबूतों के अभाव में रिहा कर दिया गया और 37 हजार 440 लोग अदालत से बरी हो गए।
● कर्तव्यपालन में सबसे अधिक जान भी उतर प्रदेश के पुलिसकर्मियों की गयी है।2017 में उत्तर प्रदेश के 93 और 2018 में 70 पुलिसकर्मियों की जान गई थी। यह तुलना राज्य पुलिस से है न कि केंद्रीय पुलिस बलों से। सीआरपीएफ, बीएसएफ और आईटीबीपी जैसे केंद्रीय बलों में अलग तरह की चुनौतियों के कारण वहां ड्यूटी पर मरने शहीद होने वाले पुलिसजन की संख्या अधिक होती है।
उत्तर प्रदेश में, वर्ष 2018 में जिन 70 पुलिसकर्मियों की जान गई, उनमें से 20 पुलिसजन की मृत्यु किसी अपराधी के घर दबिश देने या किसी तरह की डकैती को रोकने की कोशिश में गई थी। इस साल देशभर में 555 पुलिसकर्मी शहीद हुए थे।
इतना ही नहीं 2018 में देशभर में 2 हजार 408 पुलिसकर्मी ड्यूटी के दौरान घायल हुए थे, जिसमें से यूपी के 174 पुलिसकर्मी थे।
सरकार को पुलिस के विभाग जो अमूमन हाशिये पर समझे जाते हैं लेकिन पुलिसिंग के लिये कम महत्वपूर्ण नही होते हैं पर भी ध्यान देना होगा। जैसे, पुलिस प्रशिक्षण, आर्थिक अपराध, भ्रष्टाचार निवारण, सतर्कता और सीआईडी आदि। इन सभी विभागों में रिक्तियां हैं और वे बराबर बनी रहती है। न केवल उत्तर प्रदेश में अंतरराष्ट्रीय मानक के अनुसार पुलिसकर्मियों की कमी है बल्कि जो स्वीकृति है वह भी पूरी नहीं है। पिछले कई सालों से कॉन्स्टेबल और एसआई की नियुक्तियां निरापद रूप से नहीं हो सकी है। हर नियुक्ति में कभी प्रश्नपत्र आउट हो गए हैं या किसी न किसी कारण से अदालती विवाद उठ खड़ा हुआ है। भर्ती प्रक्रिया भी कभी एकरूप नहीं रही है। राजनैतिक गुणाभाग से उसमे भी तब्दीली की जाती रही है। हालांकि अब भर्ती आयोग बन जाने से थोड़ी राहत और पारदर्शिता हो गयी है लेकिन फिर भी अदालती विवाद किसी न किसी विंदु पर उठ ही खड़ा होता है।
सरकार को एक दीर्घकालिक योजना बना कर पुलिस की जनशक्ति, संसाधन, और पुलिस को राजनीतिक दखलंदाजी से दूर रखते हुए एक प्रोफेशनल पुलिस बल की तरह ढालना होगा और सत्तारूढ़ दल के लोगो को यह एहसास कराना होगा कि पुलिस सरकार के अधीन है न कि एक दल विशेष के। सरकार के भी अधीन तो है लेकिन वह एक कानून के अंतर्गत गठित है और कानून को कानूनी तरीके से लागू करने के लिये न केवल प्रशिक्षित है बल्कि शपथबद्ध भी है।
( विजय शंकर सिंह )
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