Wednesday 20 January 2016

' कारण कौन नाथ मोहिं मारा ' / विजय शंकर सिंह .


आत्महत्या कायरता है !
और विपन्नता, सामाजिक भेदभाव, जाति से जुड़े सम्मान और जाति के उद्बोधन से उपजता और ध्वनित होता हुआ, अपमान और अपशब्द, वीरता है क्या ?
अब कहा जा रहा है कि, उसकी जाति अनुसूचित नहीं थी. वह पिछड़ी जाति का था. जैसे पिछड़ी जाति का होता और मर जाता तो कोई विशेष बात नहीं होती. फिर पता लगा कि उसकी माँ ने बताया कि वह अनुसूचित जाति का है. एक अखबार लिखता है वह संगतराश , या पथरकट जाति का है. जो भी हो अपनी माँ के लिए वह भी अनमोल था, यह अलग बात है कि मुनव्वर राणा की तरह माँ पर वह उतने खूबसूरत शब्द न लिख पाता हो.
विपन्नता अभिशाप है. दरिद्रता पाप है. पर इस दरिद्रता और विपन्नता के जो सूत्रधार हैं क्या वे इस पाप और अभिशाप के लिए जिम्मेदार नहीं है. वह प्रतिभाशाली छात्र था। उसका प्रवेश सामान्य श्रेणी में हुआ था। अनुसूचित जाति का लाभ उसने नहीं लिया था. 

विश्वविद्यालयों में राजनैतिक आंदोलन चलते रहे हैं. जब 1973 से 76 तक काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में मैं था तो भी समाजवादी युवजन सभा, विद्यार्थी परिषद, एस एफ आई , ए आई एस एफ आदि छात्र संगठन थे जो वैचारिक स्तर पर विचार गोष्ठियां आयोजित करते रहते थे. आंबेडकर तब उतने चलन में नहीं थे. आम्बेडकर , चलन में तब आये जब बाम सेफ और डी एस 4 , आदि ने उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी के रूप में 1985 में एक राजनैतिक दल का गठन किया. फिर तो आम्बेडकर कुछ दलों की मज़बूरी बन गए उन्हें दरकिनार कर राजनीति की ही जा सकती है। 

ऐसा नहीं है कि किसी विश्वविद्यालय में आत्म हत्या की यह पहली घटना हो. कानपुर आई आई टी में लगभग हर दूसरे  , तीसरे साल कोई न कोई छात्र आत्म हत्या करता ही है. कारण संस्थान की गलती है या छात्र का भाग्य पता नहीं . संस्थानों में आत्म हत्याएं क्यों होती हैं. क्या इस पर भी सरकार ने कोई अध्ययन किया है , मुझे नहीं पता. हो सकता हो किया भी हो.
सोशल मीडिया पर कहा जा रहा है कि, वह याक़ूब मेमन के फांसी का विरोधी था. यह भी कहा गया है कि उसने इस फांसी के विरोध में विश्वविद्यालय में कोई प्रदर्शन भी किया था.
याक़ूब की फांसी का विरोध तो बहुत से विद्वानों और बुद्धिजीवियो ने भी किया था. यहां तक कि अंतिम समय में भी याचिका दायर कर के उसे रुकवाने की कोशिश भी की गयी थी. सुप्रीम कोर्ट को आधी रात उस याचिका की सुनवाई करनी पडी और उस याचिका को निरस्त कर कोर्ट ने फांसी की सजा को बहाल रखा. दुनिया के आधे से अधिक देशों में फांसी की सज़ा का प्राविधान समाप्त कर दिया गया है। खुद भारत के विधि आयोग ने भी फांसी की सजा समाप्त करने की संस्तुति कर रखी है। 
याक़ूब की फांसी का विरोध क्या राष्ट्रद्रोह है ?
अगर है तो, इन सब के विरुद्ध राष्ट्रद्रोह के लिए कानूनी कार्यवाही क्यों नहीं की गयी ?
क्या विश्वविद्यालय प्रशासन ने रोहित को याक़ूब की फांसी का विरोध करने पर  कोई वैधानिक नोटिस दी ?
( मैं खुद याक़ूब के फांसी का विरोध करने वालों का विरोधी हूँ. मेरा तर्क है कि, फांसी की सजा , कानूनन दी गयी है और उसका विरोध भी कानूनन हो चुका है, और सर्वोच्च न्यायालय ने सारी विरोध की अपीलें भी निरस्त कर दी और सजा बहाल कर दिया. तब विरोध का कोई औचित्य नहीं था. )

एक तर्क और दिया जा रहा है कि वह विवेकानंद का विरोधी था. अगर उसने विवेकानंद के विरोध में आंबेडकर को उद्धृत किया था या विवेकानंद की आलोचना की थी तो क्या इस से उसका उत्पीड़न जायज़ ठहराया जा सकता है ? क्या विवेकानंद की आलोचना का जवाब , रोहित के तर्कों को काट कर नहीं दिया जाना चाहिए था ? ईश निंदा का कोई भी कांसेप्ट भारतीय परम्परा में नहीं रहा है. यहां विष्णु को भी , भृगु की लात खानी पडी थी. और कही भी भृगु ऋषि की निंदा नहीं की गयी है.

एक अन्य तर्क दिया गया कि उसने बीफ पार्टी का आयोजन किया था .
क्या बीफ खाना देश में प्रतिबंधित है ?
क्या तेलंगाना में बीफ खाने पर कानूनन रोक है ?
क्या बीफ खाने की बात जस्टिस मार्कंडेय काटजू और ऋषि कपूर जैसे लोगों ने नहीं स्वीकारी ?
इनके खिलाफ क्या कार्यवाही की गयी ?
ये तो आज भी धड़ल्ले से जो मर्ज़ी खा रहे हैं, जो मर्ज़ी कह रहे हैं , जो मर्ज़ी लिख रहे हैं.
अगर बीफ पार्टी का आयोजन गैर कानूनी था तो , रोहित के विरुद्ध कोई अपराधिक मुक़दमा क्यों नहीं किया गया ?
मैं बीफ खाने और बीफ पार्टी के आयोजन का समर्थक नहीं हूँ. बल्कि विरोधी हूँ. मैं उस पशु का मांस खाने का विरोधी हु जिस से बहुसंख्यक की भावनाएं जुडी हों. उत्तर प्रदेश में गो वध एक दंडनीय अपराध भी है.
पर मैं क़ानून के उल्लंघन का कानूनी उपचार चाहता हूँ.

रहा सवाल कायरता का तो यह पूरा का पूरा समाज ही कायर है. सदियों के दलन ने उसे उस बीहड़ खोह में निरुद्ध रख दिया है जहां कायरता और आत्म सम्मान का भाव आत्मा तक समा गया है.  जब वे अब सिकुड़ कर खड़े होने की कोशिश भी करते हैं तो , कुछ को उनका यह अहंकार चुभने लगता है. इसी देश में , ई वी रामास्वामी पेरियार ने खुले आम ईश्वर की निंदा की, हिन्दू देवी देवताओं का अपमान किया, तमिलनाडु के बर्बर ब्राह्मणवाद के विरोध में ज़बरदस्त दलित आंदोलन खड़ा कर दिया , पर उन्हें भी इस सहिष्णु समाज ने पचा लिया. पेरियार संभवतः अकेले ऐसे महापुरुष है जिनकी जीवित रहते सबसे अधिक प्रतिमाएं दक्षिण भारत में हैं  यह आम्बेडकर के पहले की बात है. आम्बेडकर ने देश नहीं छोड़ा, पर उन्होंने उस धर्म को ज़रूर छोड़ दिया जिसने उनके पुरुखों को ज़लालत के सिवा कुछ भी नहीं दिया था . उन्होंने अपनी मेधा और प्रतिभा से यह सिद्ध कर दिया कि प्रतिभा किसी जाति का विशेषाधिकार और चेरी नहीं है.

कुछ मित्र कहते हैं कि वह वाम पंथी था. क्या वामपंथ की विचारधारा या मार्क्सवाद इस देश में प्रतिबंधित हो गया है ? इरादा ज़रूर होगा कि इसे प्रतिबंधित कर दिया जाय. पर ऐसा करने का न तो साहस है और न ही सामर्थ्य. हाँ, इसे प्रतिपन्धित न कर पाने की कुंठा ज़रूर है कुछ लोगों में। और उसी कुंठा का परिणाम रोहित की आत्म हत्या और आज इलाहाबाद विश्वविद्यालय में सिद्धार्थ वरदराजन के भाषण का विरोध है . कुछ मित्र भूल जाते हैं कि भारत की आत्मा ही बहुलतावादी संस्कृति की रही है. हर विचार का स्वागत हुआ है. खंडन मंडन और शास्त्रार्थ की एक जीवंत परंपरा रही है. माथे पर तिलक, गले में माला और कंधे पर भगवा गमछा धारण कर उद्दंडता करना ही आज के कुछ मित्रों का हिंदुत्व हो गया है. अब जब यह घटना हुयी तो कहा जा रहा है इसे जाति के चश्मे से न देखा जाय. 14 के चुनाव के दौरान प्रधान मंत्री जी कहते थे क्या छोटी जाति में जन्म लेना गुनाह है ? खुद को वे कभी किसी न किसी पिछड़ी जाति का ही बताते थे. चुनाव बिना जातिगत समीकरणों के जीता नहीं जा सकता. हालांकि इस के अपवाद भी रहे हैं. पर लोकतंत्र की यह अजब विडम्बना है. क्या प्रधान मंत्री जी यही सवाल अपने एच आर डी मंत्री से पूछेंगे ?
- vss 

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