Saturday 16 January 2016

राष्ट्रगान का सम्मान एक औपचारिकता नहीं , दायित्व है / विजय शंकर सिंह

कुछ दिनों पहले एक सिनेमा हाल में राष्ट्रगान बजने पर एक दंपति के उसके सम्मान में न खड़े होने पर लोगों ने उन्हें अपमानित किया.
आज एक खबर और पढ़ने को मिली एक फ़िल्म निर्देशक को मुम्बई के ही सिनेमा हाल में राष्ट्रगान के अवसर पर खड़े न होने के लिए अपमानित किया गया.
कुछ दिनों पहले एक खबर पश्चिम बंगाल से आयी थी कि राष्ट्रगान में भारत भाग्य विधाता को इस्लाम विरोधी क़रार दिया गया. और मदरसों में इसके गाने पर आपत्ति की गयी और एक अध्यापक जो अपमानित कर मारा पीटा गया.

राष्ट्रगान , राष्ट्र के सम्मान, अस्मिता, पहचान से जुडी संगीतात्मक अभिव्यक्ति होती है. इसके गान,  और कहाँ कहाँ गाया जाना चाहिए, किस किस अवसर पर गाया जाना चाहिए, आदि सब का एक नियम और विधान है. सिनेमा घरों में पहले फ़िल्म की समाप्ति के बाद  राष्ट्रगान , फहरते तिरंगे के साथ बजने लगता था। लोग सम्मान में खड़े हो जाते थे. कुछ ऐसे लोग भी होते थे जो खड़े न हो कर चलते रहते थे. कुछ तो गेट पर ही खड़े होने की औपचारिकता निभाते थे, वह भी मज़बूरी में , चूँकि गेटमैन ने गेट को बंद कर के रखा है तो वे खड़े रहते हुए गेट के खुलने की प्रतीक्षा में ही खड़े हो जाते थे. पर पहले ऐसा कोई तमाशा नहीं होता था कि उनके साथ कोई अभद्रता की जाय या उन्हें देशद्रोही घोषित कर दिया जाय. बीच में सिनेमाघरों में राष्ट्रगान की प्रथा रोक दी गयी थी। संभवतः इसका एक कारण यह भी था कि, राष्ट्रगान को पर्याप्त आदर और सम्मान सिनेमा की भीड़ भाड़ में संभव नहीं था. वहाँ लोग मनोरंजन के मूड में जाते थे और अपना स्थान ढूँढने या बाहर निकलने की जल्दबाज़ी में अक्सर राष्ट्रगान उपेक्षित हो जाता था. ऐसा नहीं कि वे सब के सब देशद्रोही थे जो राष्ट्रगान के अवसर पर खड़े नहीं होते थे. पर इधर फिर से राष्ट्रगान की प्रथा शुरू हुयी है. लेकिन अब राष्ट्रगान फ़िल्म के अंत में नहीं बल्कि शुरू में ही कुछ विज्ञापन फिल्मों के बाद शुरू होता है.

लगता है, हम एक अतिवाद के दौर से गुज़र रहे हैं. साथ ही साथ एक अविश्वास के वातावरण से भी.  एक विचित्र मनोभाव हम सब को ग्रसे हुए है कि हम जो कर रहे हैं या कह रहे हैं वही उचित है और उसी को सब को मानना चाहिए. सिनेमाघरों या सार्वजनिक स्थानों पर राष्ट्र गान के समय सम्मान प्रदर्शित करने के लिए खड़े नहीं होना भी राष्ट्रभक्ति का एक पैमाना माना जाने लगा है. मैं इस से सहमत नहीं हूँ. हो सकता है कुछ जान बूझ कर ज़िद वश खड़े नहीं होते हो, पर तब भी मैं उन्हें राष्ट्रद्रोही या राष्ट्र विरोधी नहीं मानता हूँ. मैं इसे उनकी उद्दंडता ही मानूंगा. अगर वह खड़े हो सकते हैं तो खड़े हों और अगर किन्ही कारणवश वे खड़े होने में असमर्थ हैं तो बात अलग है.पर राष्ट्र गान को सम्मान देना न केवल एक औपचारिकता है बल्कि एक दायित्व है और अनुशासन का अंग है. पर वे लोग जो इस सम्मान के स्वयंभू रखवाले बन कर ऐसे लोगों के साथ मार पीट करते हैं और उनकी देश भक्ति पर संदेह खड़ा करते हैं वे भी देश का कौई हित नहीं कर रहे हैं. उनकी इन हरकतों से न केवल समाज में वैमनस्य बढ़ रहा है बल्कि एक अविश्वास और तनाव का वातावरण भी बन रहा है. जो भविष्य के लिए घातक ही होगा.

अभी कल ही  एक समाचार पढ़ने को मिला कि, एक फ़िल्म के निर्देशक नीरज पाण्डेय के साथ भी ऐसी ही घटना घटी. नीरज पाण्डेय फ़िल्म बेबी के निर्देशक हैं और वह मुम्बई में फ़िल्म वज़ीर देखने किसी मल्टीफ्लेक्स में गए थे. वहाँ राष्ट्रगान के समय वे खड़े नहीं हुए, और लोगों ने आपत्ति की. उन्होंने तर्क दिया कि उनकी मर्ज़ी, वे खड़ें हों या न हों, इस पर लोगों ने उनसे अभद्रता की और उन्हें वहाँ से हटना पड़ा. ऐसे अशोभन स्थिति से बहुत आसानी से बचा जा सकता था, अगर नीरज पाण्डेय सम्मान में खड़े हो जाते तो. और अगर नहीं खड़े हुए हैं तो भी राष्ट्रगान की महिमा नहीं घटी, पर जो तमाशा और विवाद हुआ , वह नहीं होता.नीरज का तर्ज कि उनकी अपनी मर्ज़ी , चाहें खड़े हों या न हों , अपनी जगह है, पर यह तर्क कम , अभिव्यक्ति के आज़ादी के प्रति समर्पण भाव कम, एक अहंकार भरी ज़िद अधिक लगता है. उन्हें सम्मान में खड़ा होना चाहिए था. पर उनकी ज़िद भरे आचरण ने कुछ लोगों को ऐसा अवसर दिया जिस से बात का बतंगड़ बना.

कोलकाता के एक मदरसे के शिक्षक को भी राष्ट्रगान गाने के लिए मारा पीटा गया. टीवी चैनलों पर यह खबर खूब छाई रही. इस पर डिबेट भी हुआ. डिबेट के दौरान यह भी चर्चा उठी कि किसी मौलाना ने एक फतवा जारी किया है कि राष्ट्रगान में जो भारत भाग्य विधाता लिखा है वह इस्लाम विरोधी है. अतः इसका गान नहीं होना चाहिए. भारत भाग्य विधाता और इस गीत , जो मूलतः ब्रिटेन के सम्राट के दिल्ली दरबार में उनके अभिनन्दन हेतु रवींद्र नाथ टैगोर द्वारा लिखा गया था, पर बहुत बहस हो चुकी है. इस गीत को चाटुकारिता में लिखा गया भी बताया गया है. पर कभी भी किसी ने इसकी धार्मिक संकीर्णता के नज़रिये से व्याख्या कर इसे इस्लाम विरोधी नहीं बताया. यह एक नया तर्क है , जो संकीर्ण से संकीर्णतर होते जा रहे धार्मिक उन्माद का एक उदाहरण ही है. मौलाना का बयान अगर धार्मिक हो तो भी वह शरारत पूर्ण है और वह नेशनल ऑनर एक्ट 1971 की धारा 3 के अंतर्गत दंडनीय अपराध है.यह गीत चाहे जिस भी उद्देश्य से, जिस भी परिस्थिति में, चाहे जिस की स्तुति में लिखा गया हो, पर अब इसे संविधान और देश का राष्ट्रगान का दर्ज़ा दिया है तो इसका सम्मान होना चाहिए और किया भी जाना चाहिए.

नेशनल ऑनर एक्ट 1971 में राष्ट्रीय ध्वज , प्रतीकों और गान के सम्मान को बनाये रखने के सम्बन्ध में कुछ क़ानून बनाये गए हैं. हालांकि सम्मान के लिए खड़े होने की कोई भी बाध्यता नहीं है. पर सेक्शन 3 साफ़ साफ़ कहता है कि , जो भी इसके गान के लिए बाधा उत्पन्न करेगा वह 3 वर्ष के कारागार से दण्डित किया जाएगा. उक्त मौलाना के फतवे के विरुद्ध इस एक्ट में कार्यवाही की जानी चाहिए थी. अब कार्यवाही की गयी है या नहीं यह ज्ञात नहीं है.

( विजय शंकर सिंह )

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