Thursday, 31 December 2015

साल 2015 का आख़िरी ब्लॉग / विजय शंकर सिंह



वक़्त की गति कभी थमती नहीं है. यह अनादि से ले कर अनंत काल तक चलती रहती है. जीवन है या नहीं इसी गति या स्पंदन से ही तय होता है. आज साल तमामी है. यह एक औपचारिक अवसान और उदय है. समाप्त होने और पुनः प्रारम्भ होने में एक भी क्षणांश या कालांश का भी अंतर नहीं पड़ता है.समय अपनी गति से चलता रहता है. हम उसी गति में कुछ काल खंड छांट कर उत्सव मना लेते है. आमोद के ये कुछ छण उत्सव का एक संसार रच कर मन को तोष प्रदान करते हैं. वैसे तो यह नया साल रोमन या ग्रेगोरियन कैलेंडर से मनाया जाता है पर इसका सभी समाज और संस्कृतियाँ पालन नहीं करती है. अंग्रेज़ी कैलेण्डर के अनुसार जनवरी पहला महीना और उसकी पहली तारीख साल का नया दिन माना जाता है. एक साल , चाहे भला बीता हो या बुरा, कुछ दे कर बीता हो या कुछ समेट कर , जैसे भी हो बीत ही गया, यह भी एक आनंद की ही बात है.उसके विदा और आगत के आगमन के क्षण का स्वागत अंग्रेज़ी परंपरा में कुछ छण के लिए लाइट ऑफ कर और फिर अचानक लाइट जला कर एक शोर के साथ करते हैं. तिथि परिवर्तन , अंग्रेज़ी परंपरा में रात के बारह बजे जिसे 2400 हावर्स या 0001 हावर्स जो भी कह लें होता है. हालांकि रात बारह बजे पूरी दुनिया के कैलेण्डर नहीं बदलते. भारतीय परंपरा या पंचांग , जो पश्चिम से किसी भी मायने में कमतर नहीं, बल्कि काल गणना की परंपरा में उनसे बीस ही ठहरेगी, में तिथि परिवर्तन सूर्योदय से माना जाता है. उदया तिथि की यह परंपरा है. अर्धरात्रि को कभी तारीख नहीं बदलती. लेकिन दुनिया में यूरोपीय या विशेषकर ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विस्तार और प्रभाव ने अंग्रेज़ी कैलेण्डर जो ग्रिगेरियन कैलेण्डर भी कहा जाता है, के अनुसार पूरी दुनिया में नया साल मनाया जाता है. गुलाम तो हम भी रहे हैं तो नया साल मनाने की परम्परा दो सौ साल की गुलामी ने दे ही दी.  इसी बहाने गुज़रे साल का कुछ न कुछ लेखा जोखा भी ले लिया जाता है. क्या खोया और क्या पाया का हिसाब किताब चलता रहता है. पाना तो अक्सर बिसर जाता है पर खोना तो सालता रहता है कई सालों तक.भारतीय परंपरा में नया साल चैत्र के प्रथम दिन से प्रारम्भ होता है। 

नए साल के जश्न की उत्कण्ठा मुझे कभी नहीं रही. जब तक ज़िले की नौकरी रही, तब तक नए साल का पागलपन भरा उत्सव ठीक ठाक बिना किसी झगडे के बीत जाय, यही फ़िक़्र रही. पर जब एक्टिव पुलिसिंग की नौकरी नहीं रही, तब नया साल नींद में या कभी कभी टीवी पर आ रहे कार्यक्रमों को देखते हुए ही बीता. इस साल भी ऐसी ही खामोशी से नये साल का आगमन होगा. अभी तो ऐसा ही लग रहा है. प्रतीक्षा अगर खामोश हो तो भी वह उत्कण्ठित करती है. सर्दी की रात में , आरामदेह बिस्तर में लिहाफ ओढ़े आप लेटे हों, नींद ने आप को जकड लिया हो और जब सुबह बजती हुयी मोबाइल की घंटी या ट्यून से नींद खुले, आप की अलसाई और उनींदी हेलो के बाद , नए साल की मुबारकबाद बरस जाए तो , जवाब में एक स्टीरियो टाइप वाक्य निकलता है, थैंक्स सेम टू यू. ! मुबारकबाद भी रस्मी, और जवाब ए मुबारकबाद भी रस्मी. पर इन तमाम रस्म अदायगी के बीच में भी खुशबू का झोंका समेटे कुछ मुबारकबाद सच मुच में उस अर्धनिद्रा या तन्द्रा जो भी कह लें को झटक कर अचानक चैतन्य कर देते हैं, और चेहरे पर एक मुस्कान अक्सर उभर आती है।  

मैं बनारस से इलाहाबाद 1975 में  आया था . सिविल सेवा की तैयारी का अभियान उन दिनों चल रहा था. मम्फोर्ड गंज में रहता था. नया साल आया. उस समय कार्ड भेज कर , नया साल विश करने की परम्परा थी. कार्ड चुने जाते थे, उन्हें लिफाफों में सहेज कर रखा जाता था. फिर टिकट लगा कर, उन्हें दोस्तों मित्रों को भेजा जाता था. कुछ के जवाब भी आते थे. कुछ के कार्ड हमें भी मिलते थे. उन्हें हम सजा कर पूरी जनवरी भर रखते थे. बाद में वे बुकमार्क , कंप्यूटर वाला नहीं, किताबों के बीच याददाश्त के लिए रखने वाला कागज़, के रूप में इस्तेमाल करते थे. यह सिलसिला जब तक एस एम एस का युग 1999 तक नहीं आया चलता रहा. कुछ गुरुजन और वरिष्ठ अधिकारीगण जिन्हें हम कार्ड भेजते थे, उनके पत्र जब मिलते थे तो हम उन्हें बड़े चाव से पढ़ते थे. कुछ की तो भाषा आत्मीय रहती थी, और वे आत्मीय थे भी पर अधिकाँश की नितांत औपचारिक. खैर, कार्ड भेजना और शुभकामना प्रेषित करना भी तो एक प्रकार की औपचारिकता ही थी. ज़िंदगी में औपचारिकताएं भी कभी कभी बहुत ज़रूरी होती हैं.

1999 में जब मोबाइल फोन आया तो दुनिया की तस्वीर ही बदल गयी. दुनिया अब गोल नहीं रही. यह चपटी हो गयी. यह वाक्य मेरा नहीं है, बल्कि संचार क्रान्ति के उत्थान के दौर में लिखी गयी एक पुस्तक द वर्ल्ड इस फ्लैट , से उठाया गया है. भौगोलिक रूप से नयी दुनिया या दूसरी दुनिया , जो अमूमन अमेरिका को कहा जाता है वह समाप्त हो गयी. संचार के अतिरेक से श्रव्य और दृश्य माध्यम इतने सुलभ हो गए कि न्यूयॉर्क या कैलिफोर्निया में क्या घट रहा है यह हम अपने शयन कक्ष में बैठे बैठे न केवल देख पा रहे हैं बल्कि उस पर त्वरित टिप्पणियाँ भी ट्विटर या फेसबुक के माध्यम से कर सकने में सक्षम है. पर इस संचार क्रान्ति ने सुलेख कला या खुशखत परंपरा को आघात भी पहुंचाया. अब कागज़ और कलम से लिखना, कंप्यूटर के की बोर्ड पर लिखने से कठिन हो गया है. खुद मेरी आदत भी कागज़ पर लिखने की कम हो गयी है. संक्षिप्त संदेशों , व्हाट्सएप्प आदि ने पत्र लेखन जो साहित्य की एक बेहद आत्मीय विधा थी उसे भी नुक्सान पहुंचाया. खतों के भेजने और उसका जवाब पाने की जो उत्कण्ठा , उस काल अवधि में होती थी , उसका अहसास ही समाप्त हो गया. अब ई मेल जितनी तेज़ी से पहुँचता है, उतनी ही तेज़ी से वापस भी आता है. किसी इंतज़ार के समय का अहसास ही नहीं रहा. पत्र लेखन साहित्य में दो नाम बहुत उल्लेखनीय है. एक तो नैपोलियन का. नैपोलियन ने अपनी प्रेमिका को जो प्रेम पत्र लिखे हैं , वे फ्रेंच साहित्य की धरोहर हैं. वैसे ही ग़ालिब के पत्र समकालीन इतिहास के अध्ययन के एक प्रमुख श्रोत हैं. नेहरू ने इंदिरा को पत्र लेखन शैली में ही पूरी दुनिया का इतिहास पढ़ा दिया. विकास का भी एक अज़ीब सिद्धांत है. पिछले एक हज़ार साल में दुनिया ने जो  तरक़्क़ी नहीं की, उतनी प्रगति तो पिछले पचास साल में ही हो गयी. हर सुबह एक नयी खोज का सूरज ले कर आती है. उम्मीद है यह सिलसिला थमेगा नहीं बढ़ता ही रहेगा.

साल तमाम हो रहा है, न कि इच्छाएं और उम्मीदें. बल्कि नया साल उन इच्छाओं और उम्मीदों को और बढ़ा ही देता है.  उम्मीदों को और धार देता है. साल तमामी एक यात्रा की तरह है. एक अंतहीन यात्रा। दुनिया गोल शायद इसी लिए है कि यात्रा सदैव चलती रही। कारवां के मुसाफिर बदलें पर सफर बरकरार रहे। आप सब की मंगल यात्रा ना तमाम रहे , साल भले तमाम हो कर  इतिहास का एक अंग हो जाय। साल के आख़िरी दिन का सूरज डूब गया. और कल एक नया विहान होगा. आप सब को आगत  नव विहान अत्यंत शुभ और मंगलमय हो. मैं गुलज़ार साहब की एक नज़्म उद्धृत कर रहा हूँ. मुझे यह नज़्म बहुत पसंद आयी है, आशा है आप को भी पसंद आएगी.

चल ज़िन्दगी, अभी कई क़र्ज़ चुकाना बाकी है. 

कुछ दर्द मिटाना बाकी है, कुछ फ़र्ज़ निभाना बाकी है.
रफ़्तार में तेरे चलने से कुछ रूठ गए, कुछ छूट गए.

रूठों को मनाना बाकी है, रोतों को हसाना बाकी है. 
कुछ हसरतें अभी अधूरी हैं, कुछ काम भी अभी ज़रूरी हैं. 

ख्वाहिशें जो घुट गयीं इस दिल में, उनको दफ़नाना बाकी है. 
कुछ रिश्ते बन कर टूट गए, कुछ जुड़ते जुड़ते छूट गए. 

उन टूटे छूटे रिश्तों के ज़ख्मों को मिटाना बाकी है. 
तू आगे चल मैं आता हूँ, क्या छोड़ तुझे भी पाउँगा?

इन साँसों पर हक़ है जिनका, उनको समझाना बाकी है.
आहिस्ता चल ज़िन्दगी, अभी कई क़र्ज़ चुकाना बाकी है....  

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