Wednesday 2 December 2015

दीनदयाल , फ़ोर्बेस मैगज़ीन नहीं पढता है ! / विजय शंकर सिंह



दीनदयाल , न तो फ़ोर्ब्स मैगज़ीन पढता है और न ही उसने उस मैगज़ीन को देखा है. दीनदयाल की क्या बात करूँ, खुद मैंने भी उस पत्रिका का दीदार नहीं किया है. पर दीनदयाल के घर 6 वोट हैं और उसके गाँव में तो उसके बिरादरी के पांच छह सौ वोट होंगे. मैंने कहा,
' गाँव जाना तो पूछना कि फ़ोर्ब्स मैगज़ीन का नाम तुम्हारे घर वालों ने सुना है कहीं ? '
मैगज़ीन शब्द से उसे कट्टा बन्दूक याद आ गयी और चेहरे पर एक चमक. दोष उसका नहीं है. दोष उस इलाके का है, जहां का वह रहने वाला है. इलाक़ा, खूब लड़ी मर्दानी का है.अँगरेज़ भले 1857  जीत चुके थे, पर वीरांगना का नाम उनके मेरुदंड में सिहरन 1947 तक पैदा कर देता था. जी यह बुंदेलखंड है. महाभारत के शिशुपाल का चेदि, इतिहास का जैजाक भुक्ति और पठारों , पत्थरों और खनिज सम्पदा समेटे धरती के सबसे वृद्ध पर्वत विंध्याचल का क्षेत्र है.  यहां के बारे में जब मैं एस पी बांदा नियुक्त हुआ तो, तो मैंने खुद ही एक कहानी गढ़ ली, और उससे जुडी एक उक्ति भी रच ली. कथा और उक्ति इस प्रकार है,
' मैंने कल्पना की कि अगर ईश्वर साक्षात प्रगट हो जाएँ और पूरा कथाओं में वर्णित वर देने की मुद्रा में आ जाएँ तो अधिकतर लोग तो मोक्ष मांगेंगे. हालांकि मुझे खुद नहीं पता है कि मोक्ष ले कर किया क्या जाएगा. पर बुंदेलखंड का निवासी एक अदद लाइसेंस मांगेगा और, एक बन्दूक. जब तक बन्दूक और लाइसेंस न मिल जाय तब तक वह कट्टा पर ही संतोष कर लेगा. पुलिस का उसे डर नहीं है. इस ज़ुर्म के  लिए वह पुलिस की थाना चौकी मैनेज कर लेगा. ईश्वर को इन सब के लिए तक़लीफ़ नहीं देगा. उसके लिए वही जिला मैजिस्ट्रेट अच्छा और दमदार प्रशासक है जिसने खूब उदारता से लाइसेन्स बांटे है. '
मैगज़ीन पर फिर आएं हम लोग.दीनदयाल ने पहली बार में ही इसे असलहा से ही जुडी चीज़ समझी. जब उसे बताया गया कि यह पढ़ने वाली मैगज़ीन है. और दुनिया भर में हर साल बड़े बड़े और मोटे लोगों की सीढ़ियाँ तय करके उनके दर्ज़े तय करती रहती है तो उसके चेहरे पर न तो कोई भाव आया और न ही आँखे फ़ैली.

उसे फोर्ब्स से क्या लेना देना. खैर फोर्ब्स से तो मुझे भी कुछ लेना देना नहीं है. पर जब कुछ लोग केवल इस मैगज़ीन का हवाला दे कर, मोदी जी का महिमामंडन कर के गौरवान्वित होते हैं तो कभी कभी यह बचपना लगता है. फिर भी थोडा सीना तो बढ़ता ही है. देश के किसी भी नागरिक को विश्व मान्य सम्मान मिले, यह तो गौरव की बात है ही. और जब उस सम्मान का पात्र देश का प्रधान मंत्री हो तो , क्या कहने ! दीनदयाल को मैंने बताया और समझाया  कि दुनिया कितना मान रखती है. वह मुस्कुरा कर रह गया. मैं अपने सामान्य ज्ञान की प्रतिभा पर आत्म मुग्ध हो गया.

पर बिहार ने क्यों नहीं माना ? बिहार के लोग ,वैसे तो अक़्लमंद होते हैं पर एक बार जो उन्हें समझ में आ जाय उस से बिचलते भी नहीं है. इतना ज़ोरदार तर्क देंगे कि तर्क शर छोड़ कर त्राहिमाम करना पड़ता है. दुनिया में उनका कितना भव्य स्वागत हो रहा है. लोग चमत्कृत हैं , अचंभित हैं. और बिहार ने भाव ही नहीं दिया और तर्कों से सिद्ध भी कर दिया कि हम जो कह रहे हैं वही इति सिद्धम् है . फिर अचानक याद आया कि यह तो महान तार्किक बुद्ध की ज्ञान भूमि है. यहां के लोगों से बहस नहीं करना चाहिये. यकीन न हो तो रेल के डिब्बे में राजनीति से ले कर फ़िल्म तक , गांधी से ले कर सत्यजित रे तक, बाढ़ से ले कर अकाल तक, चारु मजूमदार से ले कर लोहिया तक बस बहस छेड़ दीजिये. ट्रेन विलम्ब से चले या चेन पुलिंग से रुक रुक कर, आप को पता ही नहीं चलेगा. पूरा मनसायन रहेगा. हाँ बस शब्द चयन संस्कारी लोगों की तरह न तो कीजियेगा और न ही फोटोशापीय झूठ परोसियेगा. बिहार है. सटला त गईला बेटा !!

वह फ़ोर्ब्स, टाइम और लाइफ मैगज़ीन नहीं पढता है. वह सायकिल से चलता है, और देर शाम जब बाजार उठने को होता है तो सब्ज़ियाँ आदि खरीद के, विकास के बड़े बड़े दावे वाले दानवी होर्डिंग्स को शून्य आँखों से ताकते हुए घर लौटता है. उसकी नज़र , सहन शीलता और असहनशीलता की बहसों से पटे हिंदी दैनिकों पर नहीं पड़ती. उसकी सुबह मेरी तरह नेट से डाउनलोड किये ख़ूबसूरत गुड़ मॉर्निंग के चित्रो और कभी कभी हास्यास्पद प्रतीत होने वाले सुभाषितों से नहीं साइकिल की पैडल से शुरू होती है. बादल उसके मन में कवित्वभाव नहीं उपजाते हैं, बल्कि मौसम के अनुसार कभी मुस्कान बिखेरते हैं तो कभी किसी अनहोनी की आशंका से डरा भी जाते है. हम जब खुद को राष्ट्रभक्त सिद्ध करने के अनावश्यक उत्साह में , झूठे सच भरे फोटोशॉप की गलियाँ तलाशते रहते हैं तब वह दिन कैसे बीते इसी जुगाड़ में लगा रहता है.पर जब वोट देना होता है तो सबसे पहले लाइन में वही लग जाता है. सरकार फोर्ब्स के ओपिनियन से न तो बनती है और न ही बिगड़ती है. यहां दीनदयाल की ही ओपिनियन ही काम आती है. फोर्ब्स की ओपिनियन उसे कुछ भी राहत नहीं देती बल्कि उसे ठग ही लेती है.

जो ओपिनियन दीनदयाल और उसका गाँव बनाता है, फोर्ब्स मैगज़ीन का कवर पृष्ठ उसी आधार पर बनता और बिगड़ता है. दीनदयाल का कबीला , वामपंथ , दक्षिणपंथ, राष्ट्र भक्ति , सेकुलर आदि के पचड़े में नहीं पड़ता  है. जहां राहत मिलती है उसी तरफ दौड़ पड़ता है. मुसीबत और समस्याओं के बाढ़ में वह सुकून और जीने भर की राहत का द्वीप तलाशता है. वह न जीडीपी जानता है और न ही आंकड़ों का माया जाल. सच तो यह है. हम दीनदयाल की स्थिति पर कम यकीन करते हैं बनिस्बत उन आंकड़ों के जो अदम गोंडवी के शब्दों में गुलाबी मौसम समेटे फाइलों से नमूदार होते हैं. अखबारों में तापक्रम पढ़ कर कपडा लादने और उतारने की परिपाटी जहां है वहाँ है. पर हम सब जितनी सर्दी गर्मी महसूस करते हैं उसी के अनुसार ओढ़ते पहनते है. गांधी ने सौ साल पहले ही कह दिया था, कि अंतिम व्यक्ति का हित और उसकी संतुष्टि ही देश का हित और संतुष्टि है. दीनदयाल को कम मत आंकियेगा. इसकी ओपिनियन लुटियन  दिल्ली में रहने वालों की लुटिया डुबा देने की हैसियत रखती है. और अब उसकी ओपिनियन बदल भी रही है. उस कृत्रिम धुंध और स्मॉग से बाहर आइये. यह भी एक प्रकार का जलवायु परिवर्तन है. एक प्रकार का विक्षोभ है.
दीनदयाल एक काल्पनिक व्यक्ति नहीं है. उसका अस्तित्व है. वह मेरा कुक है. और मैं निश्चिन्त भाव से जी सकूं इस लिए उसका प्रसन्न रहना आवश्यक है. और हाँ यकीन मानिये फ़ोर्ब्स मैगज़ीन उसने तो देखी नहीं है और सच में मैंने भी नहीं पढी है.

( विजय शंकर सिंह )

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