(होमी जहांगीर भाभा , जन्म , 30 अक्टूबर 1909 , मुंबई , तब का बॉम्बे, मृत्यु 24 जनवरी 1966 , माउंट ब्लैंक , फ्रांस में एक
विमान दुर्घटना में , वह एटॉमिक एनर्जी कमीशन ऑफ़ इंडिया , टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ फंडामेंटल रिसर्च, कैवेंडिश लेबोरेटरी , इंडियन
इंस्टिट्यूट ऑफ़ साइंस , ट्रॉम्बे एटॉमिक एनर्जी इस्टैब्लिशमेंट
से जुड़े रहे। इनकी शिक्षा , एलफ़िन्स्टन कॉलेज , रॉयल
इंस्टिट्यूट ऑफ़ साइंस , और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में हुयी। 1942 में एडम्स पुरस्कार , 1954 में पद्म भूषण से सम्मानित किये गए।)
होमी भाभा का बंगला बिक गया. दुनिया की सारी सभ्यताओं
और संस्कृतियों में अतीत को याद करने वालों की कोई सूची बने तो शायद हम प्रथम
स्थान पर हों. लेकिन जब विरासत बचाने का अवसर आता है तो हम सिर्फ शोर मचाते हैं.
भाभा भारत के आणविक युग के जनक थे. इस क्षेत्र में हमने
उल्लेखनीय सफलता भी अर्जित की है. अखबारों से पता चलता है कि सी एन आर राव, जो खुद
ही एक महान वैज्ञानिक और भारत रत्न से सम्मानित हैं ने प्रधान मंत्री जी से मिल कर
इस बंगले को बचाने के लिए प्रयास करने का अनुरोध किया था. महाराष्ट्र के मुख्य
मंत्री ने भी यह बँगला न बिके इसके लिए भी कुछ प्रयास किया था. लेकिन जो भवितव्य
था वह हुआ. बताते हैं कि गृहस्वामी की कोई विल थी जिसके तहत यह बँगला बिका.
हो सकता है, कोई
वैधानिक अड़चन रही हो. पर इस बंगले का बहुखंडीय कंकरीट के अरण्य में रूपांतरण सब को
अखरेगा. धरोहर केवल राजनीति और वह भी सत्ता से जुडी राजनीति के लिए नहीं होती. जिस
ने भी, जिस किसी भी क्षेत्र में कुछ कालजयी रचनात्मक कार्य किया है वे सब हमारे पूज्य
हैं और उनकी कृतियाँ, उनसे
जुडी स्मृतियाँ, सब हमारी धरोहर है. और धरोहर बचा कर रखना उस महान
पुरुष के लिए केवल कृतज्ञता ज्ञापन ही नहीं बल्कि भावी पीढी को यह आभास भी कराना
कि उनके पुरखे कितने विलक्षण थे. लेकिन जब स्मारकों की बात होती है तो इस वर्ग में
निराशा ही दिखती है. जिन्होंने राजनीति में सेवा के नाम पर संकीर्ण और भ्रष्ट
राजनीति की, स्मारक उनके भी बने. लेकिन जो अपनी रचनाओं से आज भी
जन मानस पर राज कर रहे हैं और भविष्य में भी करते रहेंगे उनके कोई स्मारक नहीं है.
हैं भी तो उपेक्षित और उजाड़.
( होमी भाभा का बँगला ,जो 17,990 वर्ग फ़ीट है , मुंबई में मालाबार हिल में स्थित है इसमें नेशनल सेंटर फॉर परफार्मिंग आर्ट्स का केंद्र है। भाभा का इसमें 1 / 3 का हिस्सा था। उनकी मृत्यु बाद वह भाग उनके भाई जमशेद जी टाटा को चला गया था। टाटा की वसीयत के अनुसार इस बंगले को नीलाम किया गया और जो धन राशि मिलेगी वह एन सी पी ए के उन्नयन में लगाया जाएगा। कुल सात बोली बोलने वाले थे। सबसे ऊंची बोली 372 करोड़ की हुयी। )
एक बार मैं जब एस पी बांदा था तो राजापुर गया था. तुलसी दास का जन्म यहीं हुआ था. अभुक्त मूल नक्षत्र में जन्म लेने के बावजूद भी, उन्होंने प्रसिद्धि के जिस शिखर को स्पर्श किया यह आप सब जानते हैं. यह ज्योतिष के परम्परागत अवधारणा कि मूल में जन्म अशुभ होता है को एक चुनौती भी थी. हिंदी साहित्य और भारतीय अस्मिता में तुलसी दास का क्या स्थान है यह उल्लेख करने की ज़रुरत नहीं है. राजापुर उन्ही का जन्म स्थान है. यमुना के किनारे बसा यह गाँव चित्रकूट जिले में आता है. वहाँ मैंने किसी से पूछा कि तुलसी दास जी का घर कहाँ था. कोई बता नहीं पाया. चार सौ साल में कितना परिवर्तन हुआ होगा. यमुना ने भी हो सकता हो करवटें बदलीं हों. लेकिन यह अनभिज्ञता मुझे भीतर तक कहीं कचोट गयी. वहाँ एक स्मारक बना हुआ है. एक बड़ा सा हॉल, उसी में शीशे की आलमारी में बंद मानस के कुछ पन्ने. तुलसी की एक औपचारिकता का निर्वाह करती हुयी निस्तेज प्रतिमा, और धूल से अटा हुआ वातावरण. ना कोई इंतज़ाम कर्ता न कोई दर्शक. होना तो यह चाहिये था कि यह स्थान उत्तर प्रदेश के पर्यटन मानचित्र पर प्रमुख स्थान पाता. लेकिन यह तब उपेक्षित था. तब के जिला मैजिस्ट्रेट से आग्रह करने पर और स्थानीय थानाध्यक्ष को हिदायत देने पर कुछ स्थिति सुधरी. अब क्या हाल है, यह पता नहीं. मेरा उधर जाना पिछले सात सालों से हुआ भी नहीं.
यही हाल बनारस में प्रेमचंद, प्रसाद, और भारतेंदु के भवनों का है. लमही में स्मारक ज़रूर है, पर वह प्रेमचंद के स्तर का नहीं है. भारतेंदु जिन्हें आधुनिक हिंदी का जनक कहा जाता है के घर, जो बनारस में चौक के पास स्थित एक गली, जिसे ठठेरी गली कहा जाता है, में स्थित है, के बाहर सिर्फ एक नाम पट्टिका लगी है, जो यह बताती है कि वह यहीं पैदा हुए थे. कामायनी जैसी कालजयी रचना देने वाले प्रसाद जी का कोई स्मारक बनारस में हो तो मुझे पता नहीं. चौक थाने के पीछे जहां कहा जाता है, बैठ कर उन्होंने कामायनी लिखी थी, अब वहाँ कूडा फेंका जाता है. यही हाल निराला के घर दारागंज में जो इलाहाबाद में ह,ै का है.
ये रचनाकार किसी स्मारक के मस्ध्यम से स्मृतियों में नहीं रहते हैं. वे जीवित रहते है, अपनी रचनाओं और अपनी कृतियों के कारण. आज वाल्मीकि, राजनैतिक कारणों से घोषित अवकाश के कारण नहीं जीवित हैं, वे जीवित हैं राम कथा पर अपने ग्रन्थ रामायण के कारण. बात केवल तुलसी, प्रेमचंद, और भारतेंदु की ही नहीं है. आप दिल्ली में निजामुद्दीन चले जाइये. थाने के बगल से एक रास्ता हजरत निजामुद्दीन की दरगाह को जाता है. बीच में ही ग़ालिब चिर निद्रा में लीन हैं , यहाँ उनकी मज़ार है. उसी के बगल में ग़ालिब एकेडेमी है. उनके पास ग़ालिब के दीवान और पत्रों के संग्रह की कुछ प्रतियों के अलावा कुछ भी नहीं है. ग़ालिब ने बहुत सी रचनाएँ, ख़त, गद्य आदि लिखे. न तो वहाँ इनका कोई कतेलाग है, न कोई सूची. जब कि वह बहुत पहले रहे हों ऐसी बात भी नहीं है. जब कि ग़ालिब उर्दू के महानतम शायरों में से एक हैं.
यह तो मैं उत्तर प्रदेश और दिल्ली के एक क्षेत्र विशेष के साहित्यकारों की बात कर रहा हूँ. वैसे ही बिहार में विद्यापति है, दिनकर हैं, दक्षिण भारत में सुब्रमण्यम भारती है. बंगाल में रवींद्र नाथ टैगोर है. मुझे नहीं पता कि अन्य भाषाओं के महान साहित्यकारों के स्मृति शेष को सुरक्षित रखने के क्या उपाय किये गए हैं. हाँ गुरुदेव रवीन्द्र से जुड़े कई प्रभावशाली स्मारक बंगाल और देश के अन्य हिस्सों में भी हैं. इनके स्मारक भी बनें तो उनकी कृतियों को ही ध्यान में रख कर बनाया जाय.
दर असल देश में महानता का पैमाना, राजनीति से जुड़ गया है. मैंने कहीं पढ़ा था कि इंग्लैंड में शेक्स पीयर से जुडी सारी सामग्री ढूंढ ढूंढ कर संजो कर एक स्थान पर राखी गयी है. रूस में टॉलस्टॉय से जुड़े स्मारक है पर हम जो स्वघोषित जगद्गुरु हैं, वह कुछ नहीं कर पाते हैं. करते भी तो हैं तो बस उन्हें जाति धर्म के कठघरे में बाँट कर एक छुट्टी की घोषणा. हम हर चीज़ को जब राजनीतिक नफे नुव्सान से सोचेंगे तो विरासतों पर धूल ही उडेगी. वाल्मिकी, और रैदास, किसी दल विशेष के शासनकाल में इस लिए प्रासंगिक और याद आने लगते हैं कि वे एक जाति विशेष में पैदा हुए थे. यह स्थिति बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है. कानपुर में वैश्य एकता मंच के एक समारोह् में गांधी की तस्वीर देखी तो मैंने पूछा कि, इस तस्वीर का क्या प्रयोजन है ? उत्तर मिला वह अपनी बिरादरी के थे. वे याद भी कर रहे हैं गाँधी को तो इस लिए कि वे उनकी बिरादरी के थे. न कि उन मूल्यों के लिए जिनके लिए पूरी दुनिया उनका सम्मान करती है. महापुरुष किसी भी जाति या धर्म की निजी संपत्ति नहीं होतें हैं. वे समग्र मानव जाति के लिए होते हैं. उनकी उपलब्धियां वैश्विक कल्याण के लिए होती है.
वैज्ञानिकों की तो बात ही अलग है. आर्यभट, वाराहमिहिर, , सुश्रुत, चरक की विरासत लिए हम कितने महान वैज्ञानिकों के योगदान को जानते हैं, जिन्होंने आधुनिक भारत के निर्माण में अपना अमूल्य योगदान किया है. सर सी वी रमण, रामानुजम , जे सी बोस, जैसे अनेक महान वैज्ञानिक चुपचाप राष्ट्र निर्माण के कार्य में लगे रहे. एक तो लीक से हट कर उनके शोध और दुरूह तथा शुष्क विषय, इन्हें समाज से और अलग कर देता है. कम से कम इनकी धरोहर, इनकी खोजें, इनके योगदान को याद रखने के लिए हम कुछ न कुछ कर ही सकते हैं. आज अगर भाभा का बंगला एक स्मारक में बदल गया होता. वहाँ उनके जीवन से जुडी चीज़ें करीने और विस्तार से संजो कर रखी गयी होतीं. उनके नाम पर वहाँ आणविक विज्ञान में एक शोध संस्थान बना होता तो न सिर्फ उनकी यादें अक्षुण रहतीं बल्कि भावी पीढी अनुप्राणित भी होती. पर यह सब अब काश है.
अंत में एक अनुत्तरित प्रश्न मेरे मस्तिष्क में कौंध रहा है. भाभा किसी राजनैतिक परिवार या ऐसे परिवार या ऐसी जाति से जुडे होते जो सामाजिक रूप से प्रासंगिक और महत्वपूर्ण होती तो क्या इतनी खामोशी से उनका बँगला बिक जाता ?
-vss.