Sunday 8 December 2013

इलाज के बहाने अनर्थ -- प्रकाश सिंह , पूर्व डीजीपी (उत्तर प्रदेश ) एवं पूर्व डीजी , बीएसऍफ़ , (Dainik Jagaran Dt.08/12/13)







सांप्रदायिक हिंसा रोकथाम विधेयक को पढ़ने के बाद पहली धारणा यह बनती है कि यह शायद देश की सबसे बड़ी समस्या है। समस्या यह अवश्य है, परंतु यह भी सच है कि पिछले दस वर्षो में सांप्रदायिक हिंसा की कोई बड़ी घटना नहीं हुई थी। मुजफ्फरनगर में हुई घटनाओं ने इस घाव को कुरेद दिया है। मुजफ्फरनगर में जो कुछ हुआ उसका कारण किसी विधेयक की कमी नहीं, वरन प्रशासनिक अक्षमता थी। दंगे रोके जा सकते थे, परंतु लखनऊ में बैठे नेता जब निर्देश देने लगे कि किसको गिरफ्तार किया जाए और किसका नाम एफआइआर से हटा दिया जाए तब स्थिति के बिगड़ने का क्रम शुरू हो गया। दंगे पर नियंत्रण वर्तमान कानून के अंदर संभव था, परंतु जब अधिकारियों की नियुक्ति जाति और उनके सत्ताधारी पार्टी के प्रति वफादारी के आधार पर होगी और उन्हें भी कार्य करने की स्वतंत्रता नहीं होगी, तब परिणाम भयावह होंगे। एक कानून बनाना किसी समस्या का, जब तक कि वह एकदम नई हो, कोई इलाज नहीं है। 

सांप्रदायिक दंगे इस देश में ब्रिटिश सरकार के समय में हुए थे और स्वतंत्रता के बाद भी हुए हैं। एक सर्वेक्षण के अनुसार आधुनिक भारत का सबसे पहला दंगा 1713 में अहमदाबाद में हुआ था। एक आकलन के अनुसार 1950 से 1995 के बीच देश में 1194 सांप्रदायिक हिंसा की घटनाएं हुईं। इस विषय पर बहुत मंथन हो चुका है। अनेक आयोग बन चुके हैं। वर्तमान कानून पर्याप्त है, बशर्ते उन्हें ईमानदारी से लागू किया जाए। सांप्रदायिक दंगों में यदि दोषी व्यक्तियों को दंड नहीं मिलता या उसमें विलंब होता है तो उसका सबसे बड़ा कारण यह है कि दोषी या तो स्वयं राजनीतिक हस्तियां हैं या उन्हें नेताओं का संरक्षण प्राप्त है। इसका ज्वलंत उदाहरण यही है कि 1984 के सिख विरोधी दंगों के मुख्य अभियुक्तों को आज भी कांग्रेस पार्टी बचा रही है। 

लोकपाल बिल चार दशक से अधिक समय से लटका हुआ है, क्योंकि भ्रष्टाचार से निपटना सरकार की प्राथमिकता नहीं है। सीबीआइ के लिए एक अलग एक्ट बनाने की बात 1978 से की जा रही है, परंतु सरकार उसे वर्तमान स्वरूप में ही चलाए जा रही है, क्योंकि इस स्थिति में इसका दुरुपयोग आसानी से हो जाता है। आतंकवाद से निपटने के लिए देश में कोई प्रभावी कानून नहीं है, क्योंकि वैसा कानून बनाने से वोट बैंक में कमी सकती है। दंगों से निपटने के लिए कानून ताबड़तोड़ इसलिए लाया जा रहा है कि इससे शायद एक विशेष वर्ग खुश होगा। सांप्रदायिक हिंसा रोकथाम विधेयक को जिन लोगों ने मूल रूप में बनाया था, उन्होंने तो औरंगजेब को भी पीछे छोड़ दिया था। 

दरअसल विधेयक का आधार यह था कि सांप्रदायिक हिंसा में बहुसंख्यक ही सदैव आक्रामक होते हैं। भारत सरकार के खुफिया ब्यूरो के विश्लेषण के अनुसार तथ्य इसके विपरीत हैं। विधेयक में विवादास्पद प्रावधानों का आंशिक संशोधन कर दिया गया है। फिर भी कई प्रावधान ऐसे हैं जो सर्वथा आपत्तिजनक हैं। सच तो यह है कि विधेयक का आधार ही गलत है। यह अल्पसंख्यकों को बचाने के लिए बनाया गया है अर्थात अगर यह वर्ग दंगा शुरू करता है तो भी दोषी बहुसंख्यकों को ही माना जाएगा। पिछले कुछ समय में पश्चिम बंगाल, केरल और उत्तर प्रदेश में अनेक घटनाएं ऐसी हुई हैं जहां बहुसंख्यक सांप्रदायिक हिंसा के शिकार हुए हैं। उनको बचाना क्या सरकार की जिम्मेदारी नहीं है? इसके अलावा प्रस्तावित विधेयक जम्मू और कश्मीर में लागू नहीं होगा, जहां हिंदुओं पर सर्वाधिक अत्याचार होते रहे हैं। 

अल्पसंख्यकों को सम्मान दिया जाना चाहिए। उन्हें सुरक्षा प्रदान की जानी चाहिए, परंतु सांप्रदायिक हिंसा रोकने के नाम पर उन्हें मनमानी करने का अधिकार नहीं दिया जा सकता। विधेयक में नेतृत्व के उत्तरदायित्व का भी उल्लेख है, अर्थात अधीनस्थ कर्मचारी की गलती के लिए वरिष्ठ अधिकारी दंडित होंगे। कहने में तो यह ठीक लगता है, पर सरकार से पूछा जाए कि चीन के सामने समय-समय पर समझौतों में घुटने टेकने के लिए किसको दंडित किया गया, बांग्लादेश से दो करोड़ घुसपैठियों के देश में आने पर किसको सूली पर चढ़ाया गया, 1984 के दंगों के लिए किस नेता को आजन्म कारावास हुआ, राष्ट्रमंडल खेल आदि घोटालों में नेतृत्व के किन लोगों को सलाखों के पीछे भेजा गया, इत्यादि। 

सात वर्ष हो गए सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस सुधार पर कुछ निर्देश जारी किए थे। न्यायपालिका का उद्देश्य था कि पुलिस निष्पक्ष भाव से बिना किसी दबाव के, हर परिस्थिति में अपना काम करे, परंतु राज्य सरकारें हीला-हवाली कर रही हैं। केंद्र सरकार स्वयं पुलिस सुधार के प्रति प्रतिबद्ध नहीं है। 2006 में ही सोली सोराबजी ने एक मॉडल पुलिस एक्ट बना दिया था, परंतु भारत सरकार ने उसे आज तक पारित नहीं किया है। कुछ राज्यों ने चालाकी करते हुए अपने अधिनियम बना लिए हैं ताकि सुप्रीम कोर्ट के आदेश लागू करने पड़ें। पुलिस में यदि आवश्यक सुधार हो जाएं तो वह अपने कर्तव्यों का निर्वहन अच्छी तरह से कर सकेगी। 

पुलिस की कितनी भी आलोचना की जाए, सच्चाई यह है कि यह बल जघन्य समस्याओं से निपटने में सबसे आगे रहता है। आतंकवाद से लड़ना हो, उत्तर-पूर्व में अलगाववादियों की चुनौती का सामना करना हो, कश्मीर में उग्रवादियों को नियंत्रण में रखना हो, सांप्रदायिक हिंसा पर काबू पाना हो, सभी जगह पुलिस को ही अहम भूमिका निभानी पड़ती है। आज आवश्यकता इस बात की है कि हम अपनी प्रशासनिक व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त करें, सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार पुलिस को काम करने की स्वायत्तता दें और राजनीतिक लाभ के लिए जनमानस की संकुचित भावनाओं को भड़काएं। प्रस्तावित कानून से सांप्रदायिक हिंसा नहीं रुकेगी, बल्कि और बिगड़ सकती है। कानून उन मुद्दों पर बनाए जाएं जो बदलते हुए आर्थिक और सामाजिक परिवेश में नई समस्या के रूप में उभर कर आए हैं।



1 comment:


  1. सरकार साम्प्रदायिक हिंसा पर एक नया विधेयक लाने वाली है . विधेयक की टाइमिंग और लोक सभा के आसन्न चुनाव ने इसे विवादित करना शुरू कर दिया है . श्री प्रकाश सिंह पूर्व आई पी एस ने इस पर एक सारगर्भित लेख दैनिक जागरण में लिखा है . साम्प्रदायिक अपराध भी अपराध ही होते हैं , केवल उनका मोटिव बदल जाता है . इन अपराधों से निपटने के लिए आई पी सी और दंड प्रक्रिया संहिता के प्रावधान अपनी जगह दुरुस्त और पर्याप्त हैं . लेकिन समस्या इन प्रावधानों को निष्ठा और निष्पक्ष रूप से लागू करने की है . चाहे 1984 का सिख विरोधी दंगा हो या गुजरात और मुज़फ्फरनगर के हिन्दु मुस्लिम दंगे हो , उचित प्रावधानों के बाद भी इन में भारी हिंसा हुयी . ऐसा सिर्फ इस कारण कि इन दंगों को रोकने में सरकार कें इच्छा शक्ति का अभाव था . हर कदम राजनीतिक गुणा भाग से प्रेरित था . पुलिस भी अपने विवेक और मौके की स्थिति के अनुसार काम नहीं कर पायी . परिणाम आप सब के सामने है .
    पुलिस अधिनियम में सार्वजनिक संपत्ति के नुक्सान पर सामूहिक जुर्माने का प्रावधान पहले से ही है . सामूहिक और संगठित अपराधों से निपटने के लिए मकोका , गैंगस्टर एक्ट , रासुका जैसे अनेक प्रावधान लगभग सभी राज्यों में हैं . लेकिन उन प्रावधानों को लागू करते समय जब व्यावसायिक दक्षता पर राजनैतिक लाभ हानि का मुद्दा हावी हो जाएगा तो गुजरात और मुज़फ्फरनगर होंगे ही .
    आवश्यकता है सक्षम , निष्पक्ष और व्यावसयिक रूप से दक्ष पुलिस बल की, न कि ऐसे अधिनियमों की।

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