Wednesday, 28 August 2013

A poem - अब मैं ,नींद से डरता हूँ .


अब मैं ,नींद से डरता हूँ .

अब मुझे ,
नींद नहीं आती है .
कितनी रातें बीत गयीं ,
आँखों आँखों में .
जुग बीत गए , सपने देखे .

कभी सहलाते थे , मेरे ख्वाब ,
ज़िंदगी के विविध रंगों को समेटे ,
कितनी उम्मीद जगा जाते थे .

मधुर याद लिए ,
आस भरे, उन सपनों को ,
आँखे बंद किये सोचता रहता था .

मन के किसी कोने में ,
उन सपनों के पूरे होने की ,
उम्मीद कितनी बार बसी थी .

पूरे तो ख्वाब हुए नहीं ,
पर आस की डोर पकडे ,
ख़्वाबों को मैं देखता रहा .

ये मुझे हंसाते थे , रुलाते थे ,
गुदगुदाते थे , भरमाते थे ,
पर मेरे थे ,
मेरी आँखों के थे .

पर ,
कहीं ज़िंदगी बीती है ,
सपनों के सहारे, दोस्त !

अब डर गया हूँ ,
उन अधूरे सपनों से ,
जो कभी संबल थे मेरे ,

फिर जाएँ कहीं , वो ,
अजाब बन कर .
बंद आँखें अब डराती हैं मुझे ,
अब मैं ,
नींद से डरता हूँ .

-vss

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