अब मैं ,नींद से डरता हूँ
.
अब मुझे ,
नींद नहीं आती
है .
कितनी रातें बीत
गयीं ,
आँखों आँखों में
.
जुग बीत गए
, सपने देखे .
कभी सहलाते थे
, मेरे ख्वाब ,
ज़िंदगी के विविध रंगों को समेटे ,
कितनी उम्मीद जगा
जाते थे .
मधुर याद लिए
,
आस भरे, उन
सपनों को ,
आँखे बंद किये सोचता रहता था
.
मन के किसी कोने में ,
उन सपनों के
पूरे होने की
,
उम्मीद कितनी बार
बसी थी .
पूरे तो ख्वाब हुए नहीं ,
पर आस की
डोर पकडे ,
ख़्वाबों को मैं
देखता रहा .
ये मुझे हंसाते थे , रुलाते थे ,
गुदगुदाते थे , भरमाते थे ,
पर मेरे थे
,
मेरी आँखों के
थे .
पर ,
कहीं ज़िंदगी बीती है ,
सपनों के सहारे, दोस्त !
अब डर गया
हूँ ,
उन अधूरे सपनों से ,
जो कभी संबल थे मेरे ,
फिर न आ जाएँ कहीं , वो ,
अजाब बन कर
.
बंद आँखें अब
डराती हैं मुझे ,
अब मैं ,
नींद से डरता हूँ .
-vss
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