सुप्रीम कोर्ट में, आजकल, एडवोकेट असोशियेसन बेंगलुरु बनाम बरूण मित्र और अन्य मामले की सुनवाई चल रही है। मुख्य मुद्दा है, उच्च न्यायपालिका (हाइकोर्ट सुप्रीम कोर्ट) के जजों की नियुक्ति के कॉलेजियम प्रणाली की संवैधानिकता। सुप्रीम कोर्ट के पांच वरिष्ठतम जजों का एक समूह होता है, जिसे कॉलेजियम कहते हैं, जो प्रधान न्यायाधीश, सीजेआई की अध्यक्षता में, जजों की नियुक्ति के लिए अपनी सिफारिशें, सरकार को भेजता है। सरकार, उन सिफारिशों को, राष्ट्रपति के पास भेजती है, फिर राष्ट्रपति, उन जजों को नियुक्त करते हैं।
लेकिन, इधर, सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम द्वारा भेजे गए कुछ नामों को तो सरकार ने नियुक्ति के लिए, राष्ट्रपति को भेज दिया तो कुछ नाम रोक रखे और कुछ नामों को पुनर्विचार के लिए, सुप्रीम कोर्ट को लौटा दिया। लौटाए गए नामो के लिए, सुप्रीम कोर्ट की यह व्यवस्था है कि, सुप्रीम कोर्ट, उन लौटाए गए नामो पर विचार करती है और या तो उन्हे संशोधित कर देती है या फिर उन्हीं नामों को दुबारा सरकार के पास भेज देती है। दुबारा भेजे गए नामो को स्वीकार करना, सरकार के लिए बाध्यकारी है।
अब यहां एक समस्या और है, कि, सरकार, सुप्रीम कोर्ट द्वारा भेजे गए नामो को कब तक रोक के रख सकती है, इसकी कोई समय सीमा, न तो सरकार ने तय की है और न ही, सुपरिम कोर्ट ने। अब इससे दिक्कत यह होती है कि, जजों की नियुक्तियां तो बाधित होती ही हैं, साथ ही, देर से नियुक्ति के कारण, नियुक्त हुए जजों की वरिष्ठता भी प्रभावित होती है। सुप्रीम कोर्ट ने, इन सब विदुओं पर विचार किया और तदनुसार, एटॉर्नी जनरल को निर्देश भी दिए।
कॉलेजियम प्रणाली को लेकर, हाल ही में कानून मंत्री के कई बयान न्यायपालिका को लेकर आए और इसकी प्रतिक्रिया भी हुई। साथ ही, एक महत्वपूर्ण बयान, उपराष्ट्रपति जी का भी आया कि, संसद, सर्वोच्च है और संसद द्वारा पारित कानून रद्द नहीं किया जा सकता है। इस पर एक संवैधानिक सवाल खड़ा हो गया कि, क्या सुप्रीम कोर्ट, संसद द्वारा पारित कानूनों की न्यायिक समीक्षा कर सकती है या नहीं, या उन्हे रद्द कर सकती है या नहीं। संसद की सर्वोच्चता असदिग्ध है। इस पर कोई विवाद है ही नहीं। पर सुप्रीम कोर्ट को, सांसद द्वारा कानूनों की न्यायिक समीक्षा का अधिकार और शक्तियां है।
इसी विंदु पर, सुप्रीम कोर्ट ने, 8/12/22, गुरुवार को कॉलेजियम की सिफारिशों को रोक कर, रखे हुए, केंद्र सरकार के खिलाफ, इसी याचिका पर, आदेश पारित करते हुए, कोर्ट ने स्पष्ट रूप से व्यवस्था दी कि, "भारत के संविधान की योजना ऐसी है कि, हालांकि यह मानता है कि, कानून बनाने की शक्ति संसद के पास है, पर, उसी विषय पर, न्यायपालिका, उनकी समीक्षा भी कर सकती है।"
अदालत ने कहा, "हम अंत में केवल यही कहते हैं कि, संविधान की योजना न्यायालय को, कानून की स्थिति पर, अंतिम मध्यस्थ होने के लिए निर्धारित करती है। कानून बनाने की शक्ति संसद के पास है, लेकिन, वह शक्ति न्यायालयों की समीक्षा अधिकार के अधीन है। यह आवश्यक है कि सभी इस न्यायालय द्वारा निर्धारित कानून का पालन करें, अन्यथा समाज के वर्ग, कानून निर्धारित होने के बावजूद, अपने स्वयं की इच्छानुसार, के विधि का पालन करने का, निर्णय ले सकते हैं।"
ऐसा लगता है कि उपरोक्त उद्धृत अंश को, सुप्रीम कोर्ट में बहस के दौरान, वरिष्ठ अधिवक्ता, विकास सिंह के, इस कथन पर, आदेश में, शामिल किया गया है कि "संवैधानिक पदों पर बैठे कुछ लोग कह रहे हैं कि सर्वोच्च न्यायालय के पास न्यायिक समीक्षा की शक्ति नहीं है।" वरिष्ठ अधिवक्ता, विकास सिंह ने संकेत दिया था कि, "न्यायिक समीक्षा, संविधान की 'मूल संरचना' है और यह 'थोड़ा परेशान करने वाली बात है कि, ऐसी टिप्पणी, किसी संवैधानिक पद पर आसीन व्यक्ति द्वारा की गई है।"
उस समय, न्यायमूर्ति कौल ने टिप्पणी की, "कल लोग कहेंगे कि बुनियादी ढांचा भी संविधान का हिस्सा नहीं है।"
शीर्ष अदालत द्वारा निर्धारित कानून की अवमानना करने के लिए केंद्र सरकार को परमादेश या अवमानना नोटिस जारी करने के लिए बेंच से अनुरोध करते हुए, श्री सिंह ने प्रस्तुत किया था, "जैसा कि निर्धारित किया गया है, सभी नुक्कड़ शो के साथ कानून का उल्लंघन नहीं किया जा सकता है।"
विकास सिंह, भारत के उपराष्ट्रपति, जगदीप धनखड़ द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बारे में, हाल ही में की गई आलोचनात्मक टिप्पणियों का जिक्र कर रहे थे, जिसने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) को लाने के लिए पारित संविधान संशोधन को रद्द कर दिया था।
हाल ही में, राज्यसभा के सभापति के रूप में अपने पहले संबोधन में, भारत के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने उक्त निर्णय के बारे में आलोचनात्मक टिप्पणी की है। लगभग एक सप्ताह पहले, ओपी. जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी द्वारा आयोजित आठवें एलएम सिंघवी मेमोरियल लेक्चर में, मुख्य अतिथि के रूप में अपना भाषण देते हुए, उपराष्ट्रपति सरकार के एक अंग के, दूसरों के विशेष संरक्षण में घुसपैठ के बारे में आलोचनात्मक टिप्पणी कर रहे थे। NJAC के मुद्दे पर, उपराष्ट्रपति ने विशेष रूप से पूछा था कि, "लोगों के अध्यादेश को, एक वैध तंत्र के माध्यम से, एक संवैधानिक प्रावधान में परिवर्तित किया गया, अर्थात् विधायिका, और सबसे पवित्र तरीके से, यानी इस मुद्दे पर बहस के बाद, दोनों सदनों द्वारा पारित, क्या किसी कानून को, न्यायपालिका द्वारा रद्द किया जा सकता है?"
उन्होंने स्पष्ट किया था, "रिकॉर्ड के रूप में, पूरी लोकसभा ने संवैधानिक संशोधन के लिए सर्वसम्मति से मतदान किया। कोई अनुपस्थिति नहीं थी, कोई असंतोष नहीं था। राज्यसभा में, एक दल की अनुपस्थिति थी, लेकिन कोई विरोध नहीं था। इसलिए, लोगों के अध्यादेश को, संसद ने कानून में, परिवर्तित कर दिया था। यह एक संवैधानिक प्रावधान है। लोगों की शक्ति सबसे प्रमाणित तंत्र में परिलक्षित हुई। तो फिर क्या इसे न्यायपालिका द्वारा रद्द किया जा सकता है?"
उपराष्ट्रपति इस बात से परेशान थे कि, "संविधान संशोधन अधिनियम के माध्यम से NJAC लाने के संसद के निर्णय के द्वारा, प्रकट की गई, लोगों की इच्छा को, न्यायपालिका ने पलट दिया था। उनका विचार था कि यह अभूतपूर्व था कि, संसद द्वारा पास किया गया, एक संवैधानिक संशोधन अधिनियम न्यायपालिका द्वारा खत्म कर दिया गया। दुनिया ऐसे किसी, अन्य उदाहरण के बारे में नहीं जानती।"
सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र से कहा, "कॉलेजियम सिस्टम देश का कानून है, इसका पालन होना चाहिए।"
कानूनी स्थिति के बारे में सरकार को अवगत कराने के लिए, एजी से अदालत ने कहा, "कॉलेजियम के खिलाफ की गई टिप्पणी को, अदालत ने, अच्छी तरह से नहीं ली है।"
सुप्रीम कोर्ट ने एजी से सरकार को इस प्रवृत्ति पर नियंत्रण करने की सलाह देने को कहा। सरकार ने, एमओपी (मेमोरेंडम ऑफ प्रोसीजर) में सुधार के लिए सुझाव दे सकती है।
अभी सुनवाई चल रही है।
(विजय शंकर सिंह)
शानदार जानकारी ।
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