प्रवक्ता के लिए पढ़े लिखे होने के साथ साथ, असली डिग्री भी होनी चाहिए। पहले समाजवादी गौरव भाटिया मिले अब कांग्रेसी शेरगिल। 8 साल में कोई फासिस्ट सोच का प्रवक्ता ही ढूंढ लिए होते तो उधार का प्रवक्ता तो नहीं बटोरना पड़ता। पर फासिज्म, को तो, शिक्षा और बौद्धिक विमर्श से ही घृणा है।
किसी भी फासिस्ट मानसिकता की पार्टी, को तथ्यों के प्रस्तुतिकरण और गंभीर विमर्श के लिए प्रवक्ता नहीं चाहिए। उन्हे चाहिए ट्रोल और गालीबाज जो गालियों में ही पोषक तत्व ढूंढ ले। उन्हे न तो तथ्यों का अनुसंधान करना है और न ही अपनी नीतियों की व्याख्या करनी है। क्योंकि नीतियां हैं ही नहीं और अनीतियों की व्याख्या की नहीं जा सकती है। उन्हे, बस ट्रोल करना है।
यह प्रवक्ता भी आपको गोदी मीडिया पर ही नज़र आयेंगे। ये वैसे किसी यूट्यूब चैनल पर कम ही दिखेंगे। गोदी मीडिया के एंकर वैसे हैं तो पढ़े लिखे, उनकी डिग्री भी फर्जी नहीं है, पर वे करें भी क्या, उनका मालिक बोला लाइट कैमरा एक्शन, वे स्क्रिप्टानुसार बोलने लगे।
फिर चाहे, नोट में चिप हो या न हो, एम्बुलेंस में मरीज हो या न हो, प्रवक्ता/एंकर की जुगुलबंदी दिखती है। कभी कभी टीवी चैनल मैं इसलिए भी देखता हूं कि, गिरावट का फर्श तो दिखे कि ये कहां जाकर टिकते हैं।
एक शेर याद आ गया,
तनज्जुल की हद देखना चाहता हूं,
कि शायद वहीं हो तरक्की का जीना।
इसीलिए गौरव भाटिया जैसे, पढ़े लिखे, असली डिग्री वाले प्रवक्ता भी बीजेपी में आकर संबित मॉडल पर चलने लगते है। मुझे हैरानी होती है कि, समाजवाद से फासीवाद की ओर जाने के बाद क्या ये प्रवक्ता अपना दिमाग फैक्ट्री सेटिंग पर कर देते हैं या, तब भी झूठ बोलते थे और अब भी झूठ बोल रहे है।
अब शेरगिल को ही लीजिए। कहां तो गांधीवादी विचारधारा की कांग्रेस का पक्ष रख रहे थे अब वे गांधी विरोधी विचारधारा को जस्टिफाई करेंगे। कल तक मोदी सरकार को तानाशाह बता रहे थे, अब उन्हे लोकतंत्र का प्रहरी साबित करेंगे। वैचारिकी पर आधारित राजनीतिक दल न हुए मार्केटिंग कंपनिया हो गई !
वैचारिक प्रतिबद्धता तो राजनीतिक दल के नेता/प्रवक्ता के लिए अनिवार्य शर्त है। कैसे रातोरात किसी की विचारधारा बदल जाती है?
धूमिल की कविता मोचीराम की याद आ गई,
जिंदगी जीने के पीछे,
अगर, सही तर्क नहीं है तो,
रामनामी दुपट्टा बेच कर,
या रंडियों की दलाली करके,
जीने में कोई फर्क नहीं है।
(विजय शंकर सिंह)
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