दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अफज़ल गुरु , जिसे संसद पर हमले का दोषी पाये जाने पर फांसी की सजा से दण्डित किया गया था को शहीद कहा गया और पाकिस्तान ज़िंदाबाद के नारे लगाए गए। इसकी व्यापक प्रतिक्रिया हो रही है और होनी भी चाहिए। अफज़ल गुरु को सजा एक वैधानिक प्रक्रिया के अनुसार दोष सिद्ध होने पर ही दी गयी थी। लोग उसे अपने व्यक्तिगत हित या विचारों के अनुसार, भले ही शहीद का दर्ज़ा दें या मानें पर वह कानूनन देश का सज़ायाफ्ता अपराघी है, इसमें कोई संदेह नहीं है। कुछ को छोड़ कर अधिसंख्य लोग उसे ऐसा ही मानेंगे।
यही स्थिति याक़ूब मेमन की भी है। अफज़ल जहां संसद पर हमले का दोषी था, वही याक़ूब , बॉम्बे ब्लास्ट का सज़ायाफ्ता था। अफज़ल की तरह इसे भी अपनी बेगुनाही साबित करने का पूरा अवसर दिया गया। उसे रेयर ऑफ़ द रेयरेस्ट मामला, जो फांसी की सजा का न्यायालय द्वारा स्थापित आधार है, के अनुसार फांसी की सजा दी गयी। याक़ूब की फांसी का भी कुछ लोगों ने विरोध किया और अंतिम समय तक उन्होंने इस सजा को रुकवाने की कोशिश की, पर सर्वोच्च न्यायालय ने देर रात अदालत खुलवा कर उनकी भी सुनवाई की और न्यायिक तरीके से मामले का निस्तारण कर, उनकी अपील निरस्त कर, फांसी की सजा बहाल रखी। याक़ूब को अंततः फांसी दे दी गयी। इसी याक़ूब के पक्ष में हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के आत्महत छात्र रोहित द्वारा , नमाज़ पढ़ने और फांसी के विरोध में माहौल बनाने की बात कही जाती है।
दोनों केंद्रीय विश्वविद्यालयों की यह एक समान व्यथा कथा है। क्या अफज़ल और याक़ूब के पक्ष में ,खड़े होना और पाकिस्तान का ज़िंदाबाद करना और, कश्मीर की आज़ादी की बात, राष्ट्रद्रोह है ?
निश्चित रूप से इसका उत्तर अगर सीधे पूछा जाय तो हाँ ही होगा। क्यों कि पाकिस्तान , सीधे तौर पर देश को तोड़ने के लिए 1948 से ही प्रयास कर रहा है। अफज़ल ने संसद पर जो देश का पवित्रतम स्थल है पर हमला किया, और याक़ूब ने एक ऐसा घिनौना और आपराधिक कृत्य किया, जिस से सैकड़ों निर्दोषों की जान गयी। अफज़ल और याक़ूब को उनके किये की सजा मिल गयी। यह अध्याय अब बंद हो गया है । अतः एक ऐसा देश जो हमारे देश को तोड़ने और देश में हिंसा फैलाने पर आमादा है, के समर्थन में खड़ा होना देशद्रोह ही है।
अब एक कानूनी सवाल उठता है, कि जो छात्र इन सब गतिविधियों में लिप्त हैं या हो रहे हैं उनके खिलाफ कानूनी कार्यवाही करने में क्या दिक्कत है ? क्या क़ानून में ऐसे कृत्यों के लिए उचित प्राविधान नहीं है या हम इसे अभिव्यक्ति की आज़ादी का एक स्वयंस्फूर्त उदगार समझते हुए, इसे भुला कर आगे बढ़ जाने में यकीन करते हैं । आई पी सी में राष्ट्र या देश के विरुद्ध युद्ध छेड़ने संबंधी दंडात्मक प्राविधान तो हैं, पर किसी सज़ायाफ्ता को महिमा मंडन करने के विरुद्ध कोई प्राविधान है, यह मेरी जानकारी में नहीं है। हर अपराधी और अभिगुक्त का अपना पक्ष होता है। वह अपने अपराध को औचित्यपूर्ण सिद्ध करने के लिए, अपना बचाव करता है , महंगे से महंगे वकीलों की सेवाएं लेता है , और उच्चतम न्यायालय तक जाता है। और यह सब वह एक नागरिक को संविधान प्रदत्त अधिकारों के अन्तर्गत करता है। मैं यहां अफज़ल और याक़ूब को दी गयी सजा पर कोई टिपण्णी नहीं करना चाहता, हालांकि कुछ लोगों ने जिनमे अरुंधति रॉय प्रमुख है ने फैसले की आलोचना की है और एक लेख भी गार्जियन में लिखा है। प्रमुख फैसलों पर विधि के छात्र और अनुसंधित्सु चर्चा करते रहते हैं।
पर क्या हर चर्चा को हम देश द्रोह कह सकते हैं ?
क्या हम हर अभियुक्त के महिमा मंडन को देश द्रोह कह सकते हैं ?
क्या हर अभियुक्त के बचाव के तर्क के औचित्य को हम देश द्रोह कह सकते हैं ?
इन प्रश्नों का उत्तर भी ज़रूरी है ।
30 जनवरी 1948 को गांधी की हत्या हुयी थी। उनकी हत्या में भी एक अभियुक्त नाथू राम गोडसे को अदालत में फांसी की सजा हुयी थी। वह सजा बहाल भी रही। गोडसे ने अपने बचाव में हत्या का औचित्य भी दिया था। उसने इसे वध कहा और गांधी वध क्यों ? एक पुस्तक भी बाज़ार में आयी। उसे कभी किसी सरकार ने न तो प्रतिबंधित किया और न ही उस किताब से गांधी की लोकप्रियता और महानता पर कोई प्रभाव पड़ा। इस हत्याकांड में षड्यंत्रकारियों में विनायक दामोदर सावरकर भी थे। हालांकि वे इस मुक़दमे में सजा नहीं पाये। सावरकर आज़ादी की लड़ाई में काले पानी की सजा भोग चुके थे, यह अलग बात है कि वह एक माफीनामे के बाद रिहा किये गए थे। मैं इस माफीनामे के बावज़ूद भी उन्हें देशद्रोही नहीं कहूँगा। क्यों कि आज़ादी के महायज्ञ में उनकी भी कुछ आहुतियां हैं । उसी गोडसे का महिमामंडन हर साल 30 जनवरी को कुछ लोग करते हैं और मेरठ में तो उसे हिन्दू ह्रदय सम्राट की उपाधि से नवाज़ा भी गया और उसका मंदिर भी बनाने का संकल्प लिया गया ?
क्या यह महिमा मंडन देश द्रोह नहीं है ?
गोडसे के महिमा मंडन के साथ तिरंगा भी जलाया गया, क्या यह कृत्य देश द्रोह नहीं कहा जाना चाहिए ?
क्या जेनएयू में हुए जिस तमाशे को लोग देशद्रोह कह रहे हैं , वे गोडसे के महिमा मंडन और तिरंगा जलाने को देशद्रोह कहेंगे ?
क्या वे इन सब के लिए भी फांसी की मांग करेंगे ?
यह कुछ स्वाभाविक प्रश्न हैं जो मेरे मन में उठ रहे हैं ।
मैं अफज़ल, याक़ूब, और गोडसे को एक ही धरातल पर रख कर देखता हूँ। तीनों को ही न्यायालय ने पूरी सुनवाई के बाद फांसी की सजा सुनायी थी। तीनों ने अपने बचाव का औचित्य भी सिद्ध किया। तीनों का ही मामला रेयर ऑफ़ द रेयरेस्ट था। फिर अगर गोडसे के महिमा मंडन पर चुप्पी या उसकी सराहना की जाय और अफज़ल गुरु और याक़ूब के महिमा मंडन को देश द्रोह कहा जाय, यह एक प्रकार का पक्षपात पूर्ण दृष्टिकोण होगा। अगर हर अपराध और अभियुक्त या सज़ायाफ्ता को आप निष्पक्ष या विधि सम्मत तरीके से देखेंगे तो कही कोई गड़बड़ नज़र नहीं आएगी। मुश्किल है कि कुछ लोग गोडसे, को देशभक्त, धर्म रक्षक और त्राता के रूप में देखते हैं, और कुछ लोग अफज़ल और याक़ूब का भी महिमा मंडन करते हैं। दोनों एक दुसरे को दोषारोपित करते हैं। दोनों ही ऐसा करने के पीछे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्राविधान का आड़ भी लेते हैं।
सरकार को , किसी भी शिक्षा संस्थान में, चाहे वह किसी भी स्तर का क्यों न हो, देश विरोधी और आतंक वादी गतिविधयों के संचालन की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। चाहे वह हैदराबाद हो, या जेनएयू या कोई और। लेकिन गतिविधि विशेष, या आयोजन विशेष, या संगठन विशेष, ऐसी कार्यवाहियों में लिप्त है, इसका निर्णय सरकार को करना है, किसी अन्य संगठन को नहीं। अगर क़ानून के प्राविधानों के अनुसार ऐसी गतिविधियों पर अंकुश लगाना संभव नहीं है तो क़ानून बनाये जा सकते हैं।
-vss.
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