अब वे तर्क शून्य हो रहे हैं .
सीधे सवालों पर अक्सर कन्नी काटने लगते हैं ,
गौर से देखो,
झुंझलाहट, खीज और अकुलाहट ,
प्रतिविम्बित है, अब उनकी देह भाषा में .
उनके शब्द अक्सर बदल जाते हैं अपशब्दों में !
इतिहास का अधकचरा और पूर्वाग्रह से भरा ज्ञान ,
धर्म के मर्म के बजाय ,
धर्म के प्रतीकों को ही धर्म मानने की ज़िद ,
उन्हें जिस कुंठा में खींच लायी है ,
यह वे खुद भी नहीं जानते .
सब कुछ वही चाहते हैं !
अत्याचारों के तौर तरीके भी,
अत्याचारों के उपकरण भी,
उन्हें भी वे,
अपनी ही मर्ज़ी से, चुनते हैं,
जिन पर कहर बरपाते हैं वे !
कहर बरपेगा, तो चीखें भी उभरेंगी,
और उठेंगे चंद हाँथ ,
कुछ मुट्ठियाँ बांधें और कुछ तने पंजे लिए,
जैसे उठता है, सागर में ज्वार,
जैसे गहराता है,
काल बैसाखी का पवन, बादलों के सैन्य के साथ
सब कुछ उड़ा कर ,
शांत कर देने की दुर्दम्य अभिलाषा लिए !
उनके माथे पर, बिखरे स्वेद कण,
हकलाते स्वर, जो अनायास
आरोह और अवरोह में बदल रहे हैं,
आँखों में फैली अविश्वास की छाया,
कांपते हाँथ की अनामिका ,
जिसे वे, बरबस उठा कर अज्ञात की ओर,
हम सब से, नज़रें चुराते हुये, शोर मचाते हैं,
और, वह हिलती हुयी ज़मीन,
जिस पर खड़े होकर,
स्थिर रहने का वे नाटक कर रहे हैं,
उनके भीतर घिरते हुए
भय को प्रतिविम्बित कर रही है !!
किस बियाबान में ले जा रहे हैं वह ,
जब भी बात मैं करता हूँ ,
खेत, खलिहान और फसलों की
जब भी बात करता हूँ ,
पेट, भूख और भय की
जब भी बात करता हूँ मैं ,
आस भरे , लुभावने कल की ,
कितने शातिराना चालाकी से वे ,
हमें खड़ा कर देते हैं ,
किसी मंदिर या मस्जिद के दर पर ,
हांथों में थमा देते हैं गाय की पूंछ ,
या सूअर खदेड़ने के लिए डंडे
हम सब कुछ भूल कर ,
उसी बहेलिये की जाल में ,
निरुपाय हो , फंसते चले जाते हैं .
भूख , भय और भीख ,
जिन्हे मिटाने का वादा करके वे ,
चमचमाती गाड़ियों में चढ़ कर गए थे कल ,
वे वादे आज भी ज़िंदा हैं .
- vss
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