गुलाम अली साहब , बड़े अफ़सोस के साथ कहना पड़ रहा है , बराए मेहरबानी , आप तशरीफ़ वापस ले जाइए. मुम्बई अब थोडा बदल गयी है. अब यहां नज़ाक़त और खैर मकदम करने का जज़्बा कम हो गया है. वक़्त , वक़्त की बात है. ' जो देते थे, दवा ए दिल, वह दूकान अपनी बढ़ा गए हैं '. दरिया ए गंगा में जो पानी सब को पवित्र करता हुआ रवां था कभी, अब वह थोडा कमज़ोर पड़ गया है. उसमें तो अब फैक्टरियों के कचड़े के साथ सियासी कचड़ा भी आने लगा है. फ़हमीदा रियाज़ जी से कहियेगा कि उनकी एक नज़्म, " तुम भी हम जैसे निकले " मुझे अब अक्सर याद आने लगी है. वैसे भी, अब ज़माना डिजिटल हो रहा है. कहीं भी हंगामा बरपे, हम बिना पिए ही जान जाते है. सुना था, कला, साहित्य, संगीत किसी बंधन में नहीं बंधते. पर क्या कीजियेगा, जब अच्छे लोग खोल में दुबक जाते हैं तो गली में लफंगे डेरा जमा ही लेते हैं.
मुझे याद है, 1996 / 1997 की सर्दियों में आप कानपुर आई आई टी आये थे. वहाँ के सालाना होने वाले जलसे अंतराग्नि में . कितनी फरमाइशें हुयी थी आप से. आई आई टी के छात्र ' हंगामा है बरपा ' पर इतना झूमे कि मरहूम अकबर इलाहाबादी भी जहां होंगे खुश हो गए होंगे. आखिर यह ग़ज़ल उन्होंने ने ही तो लिखी है . आप ने दो बार यह ग़ज़ल सुनायी. हम सब उम्र भूल कर शोर और तालियां बजा बजा कर पूरी रात ' चुपके चुपके ' से ले कर ग़ालिब के रूहानी ग़ज़लों का आनंद लेते रहे. आप से रू ब रू मुलाक़ात की दरख्वास्त की थी मैंने. मुलाक़ात हुयी भी . सुबह आई आई टी के अतिथि गृह में , आप को क़रीब से देखा था . कहीं से लगा ही नहीं कि आप हम से जुदा है. वैसी ही मुस्कान, वही अलफ़ाज़, वही दिलकशी, लगा कि सरहदें झूठी होतीं है. सियासी होती हैं. मंटो की कहानी का ' टोबा टेक सिंह ' जिस पर गुलज़ार साहब की एक बेहट खूबसूरत और दिल को छू लेने वाली एक नज़्म भी है , ज़ेहन में कौंध गयी. आप कितनी बार मुम्बई आये होंगे. लोगों ने पलकों पर आप को बिठाया होगा. पर अब तो वे आप को चुपके चुपके भी नहीं आने देंगे. हंगामा ही बरपा देंगे.
एक गायक हैं अभिजीत. अच्छा गाते हैं पर अच्छी बात कभी कभी नहीं कह पाते हैं. उन्होंने कभी सलमान खान की कार से कुचल जाने वाले विपन्न लोगों को कुत्ता कहा था, अब वे इन्हें डेंगू आर्टिस्ट कह रहे हैं. गुलाम अली साहब इन्हें डेंगू आर्टिस्ट लग रहे हैं. यह भी राष्ट्रवादी बुखार से ग्रस्त हैं लगता है. किसी को ध्रुपद के गायक डागर बंशुओं का गायन उबाऊ और न समझ में आने लायक लगे तो, इस में डागर बंधुओ और ध्रुपद गायकी का क्या दोष है ? दोष तो नासमझी का है. कल के दिन वे कहेंगे अमीर खुसरो विदेशी थे, रहीम , रसखान सब विदेशी थे. कहना तो वह यही चाहते थे , जिन्ना साहब के स्वर में स्वर मिला कर, पर तब नहीं कह पाये. अब जब भी मौका मिलता है एक फुरहरी छोड़ कर टेस्ट करते हैं जैसे सेंधमार चोर सेंध खोद कर पहले टांग घुसाता है, और अंदर की प्रतिक्रिया का अंदाजा भी लगाता है, जब देखता है घर भर सो रहा है तो वह घुसता है नहीं तो फिर सरक जाता है. फिसल गए तो हर हर गंगे !! यही सोच कुछ लोगों की है। आज भी इनका यह टेस्ट चल रहा है. कभी गांधी पर कभी नेहरू पर कभी गाय गोरू पर कुछ न कुछ कह कर गरमाते हैं पर जब एक्सपोज़ होने लगते हैं तो पत्तेझार भागने भी लगते है.
इस्लाम में संगीत वर्जित है. पर संगीत के अनन्य पुराधाओं में मुस्लिम बहुत बड़ी संख्या है. कव्वाली जो दरगाहों पर भजनों के रूप में शुरू हुयी उसके अमर गायकों की अमीर खुसरों से ले कर, नुसरत फ़तेह अली खान तक एक लंबी और संपन्न परंपरा है. अब मेरे कुछ भाजपा और शिव सेना के मित्र कह रहे हैं कि गुलाम अली का विरोध उनकी ग़ज़ल गायकी और धर्म से नहीं है, बल्कि पाकिस्तान से बिगड़े संबंधों के कारण है. दो मुल्कों की सीमाएं होती है और उनकी शासन परंपरा भी अलग अलग होती है . दो पड़ोसी मुल्कों में संबंध सदैव अच्छे कभी नहीं रहते हैं. कुछ न कुछ खटास रहती ही है. पर पाकिस्तान तो शत्रु देश ही है. चार चार जंगें हो चुकी है. यह घुसपैठ भी एक तरह का युद्ध ही है. क्षद्म युद्ध . पर गुलाम अली साहब जंग की नीयत से तो तशरीफ़ ला नहीं रहे हैं. और न ही पहली बार आ रहे हैं। वह तो अपने मौसीकी और गज़क गायकी का हुनर दिखाने आ रहे है. आखिर शाल साड़ी का आदान प्रदान पड़ोस से हो ही रहां है. मुलाक़ातों का सिलसिला भी कभी कभार जब दोनों देश के प्रधान मंत्री मिलते हैं तो होता ही है। फिर यह नज़ला गुलाम अली साहब के इस बार मुंबई आगमन पर ही क्यों गिरे !
इसी महान देश में मैहर की माँ शारदा के पट उस्ताद अलाउद्दीन खान के साज़ की आवाज़ से गूंजते थे कभी. काशी विश्वनाथ के दरबार में भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह खान के शहनाई के स्वर बाबा को प्रिय थे. अर्ध निमीलित , भंग की दुनिया में खोये आशुतोष, के मंद मंद मुस्कान की मैं कल्पना कर सकता हूँ. ग़ुलाम अली साहब भी तो बनारस में इसी साल हुए संकट मोचन संगीत समारोह में अपनी स्वर लहरी और गज़ल गायकी से बजरंग बली को प्रसन्न कर ही चुके है. संगीत के हर विधा में बनारस घराने की छाप रही है. संकट मोचन मंदिर के संयोजकत्व में प्रति वर्ष संगीत समारोह का आयोजन होता है. पर बनारस में उनका कोई विरोध नहीं किया. संकीर्णता की और बढ़ता यह समाज धीरे धीरे पाकिस्तान की राह पकड़ रहा है.
प्रख्यात कथाकार, कमलेश्वर का एक अलग तरह का उपन्यास है, कितने पाकिस्तान. पाकिस्तान यहां कोई मुल्क नहीं है बल्कि एक प्रवित्ति है. धर्म को राष्ट मानने का जिन्ना का तर्क, पाकिस्तान को नर्क में तब्दील कर देगा, यह उन्होंने सोचा भी नहीं था. ऐसे धर्म आधारित देश पाकिस्तान ही है. भारत पाकिस्तान की राह पर, उसी कट्टरता पर बढ़ रहा है बस धर्म अलग है. महाभारत के यक्ष प्रश्न के एक प्रश्न किं आश्चर्यम् को याद करें धर्म आधारित राज्यों की दुर्दशा को देखते हुए एक ही धर्म के आधार पर देश की परिकल्पना करना आत्मघाती ही होगा. भारत, पाक और बांगला देश की साहित्यिक, संगीत और ललित कलाओं की एक संयुक्त और संपन्न परंपरा रही है. चाहे क़ाज़ी नज़रुल इस्लाम की अग्नि वीणा पढ़िए या अल्लामा इक़बाल का जावेद नामा दोनों की ही जड़ें भारतीत वांग्मय के उत्स से निकलती है.
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