डॉ राम मनोहरं लोहिया का निधन आज ही के दिन, 12 अक्टूबर 1967 को, दिल्ली के वेलिंगटन क्रीसेंट हॉस्पिटल जो अब डॉ राम मनोहर लोहिया स्मारक अस्पताल है, में हुआ था. लोहिया अपने प्रसिद्धि के शिखर पर थे उस समय. उनके गैर कांग्ग्रेसवाद के सिद्धान्त ने कांग्रेस को उत्तर भारत के अनेक राज्यों से बेदखल कर दिया था. बदलाव की एक बयार बह चली थी. पर नियति ने उन्हें अधिक आयु नहीं प्रदान की थी. वह 57 वर्ष में दुनिया छोड़ गए. आज उनकी पुण्य तिथि है.
डॉ लोहिया के निधन को रेखांकित करते हुए, उस समय के अत्यंत प्रतिष्ठित साप्ताहिक पत्र दिनमान जिसके संपादक, हिंदी के मूर्धन्य साहित्यकार सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय थे, ने अपने शोक लेख में इसे भारतीय समाजवाद की अपूरणीय क्षति माना था। लोहिया ने संसदीय लोकतंत्र में नेहरू जैसे दिग्गज और लोकप्रिय प्रधान मंत्री के विरुद्ध उन्ही के क्षेत्र फूलपुर से चुनाव लड़ा और अपनी जमानत बचा सकने में सफल रहे. लोहिया की जमानत बचा लेना, नेहरू के लिए इम्बैरेसमेंट से कम नहीं था। उनकी 3 आने बनाम 13 आने की बहस ने नेहरू को संसद में लगभग निरुत्तर कर दिया था. इंदिरा के प्रधान मंत्री होने पर यह कह कर कि अब रोज़ अखबारों में एक सुन्दर चेहरा देखने को मिलेगा, उन्होंने एक विवाद को भी जन्म दिया था. वह जीवन पर्यन्त संघर्ष शील और अपने सिद्धांतों पर अडिग रहे. अब जब ऐसे राजनेता है जो धृष्टता और बेशर्मी से अपने साथी और सहयोगियों के हर गलत कामों का बचाव करते नहीं अघाते हैं, तब डॉ लोहिया ने केरल में गठित अपनी ही पार्टी के मुख्यमंत्री थाणू पिल्लै के खिलाफ मोर्चा खोला और उनसे हट जाने को कहा. हालांकि ऐसे कदम से पार्टी टूट गयी . पर लोहिया नहीं झुके. उनके लिए पार्टी विचारों से ऊपर और सत्ता साध्य नहीं थी. पार्टी और सत्ता बदलाव के एक माध्यम थे. वे दल में टूट और बिखराव से कभी हताश नहीं हुए. वह ज़िंदा थे, ज़िंदा है, और ज़िंदा रहेंगे !
आज धर्म और साम्प्रदायिकता फिर से बहस के मुख्य मुद्दे हो गए है. इस पर लोहिया की दृष्टि बहुत साफ़ थी. भारत में विभिन्न प्रकार के धर्म पाये जाते है और उन धर्मों के अनुसार भारतीय समाज में नाना प्रकार की परम्पराएं और प्रथाऐं प्रचलित हैं, शायद ही कोई भारतीय चिन्तक ऐसा हो जो भारत में विद्यमान धर्म या धर्मों से प्रभावित न हुआ हो। लोहिया के समय भारतीय राजनीति में धर्म को मिलाने और राजनीतिक सत्ता की तुलना में उसे सर्वोपरि मानने का प्रयास भी चल पड़े थे, ऐसी स्थिति में तत्कालीन भारतीय समाज और धर्म के प्रति लोहिया भी सोचते रहे और उनके सोच और कर्म में यह देखने को मिला कि वे ईश्वर के बारे में रूढि़वादी मान्यताओं में कम ही विश्वास रखते थे, यहाँ तक कि वे ईश्वर अस्तित्व को भी मानने से इंकार करते रहे लेकिन जब ध्यान से हम उनके चरित्र का अध्ययन करेंगे तो पायेंगे कि उन्हें अन्तर्भूत विराट शक्तियों से कभी इंकार नहीं था। लोहिया ने रामायण मेले के अन्तर्राष्ट्रीय महोत्सव की एक बड़ी ही मोलिक तथा विराट परिकल्पना की थी जो निश्चय ही एक प्रकार की सांस्कृतिक क्रान्ति ही थी. डॉ लोहिया सनातन धर्म की आत्मा, राम, कृष्ण और शिव से प्रभावित हुए बिना नहीं रहे तभी तो उन्होंने कहा कि -
‘हे भारतमाता! हमें शिव का मस्तिष्क दो, कृष्ण का हृदय और राम का कर्म और वचन दो। हमें असीम मस्तिष्क और उन्मुक्त हृदय के साथ जीवन की मर्यादा से रचो।’
‘हे भारतमाता! हमें शिव का मस्तिष्क दो, कृष्ण का हृदय और राम का कर्म और वचन दो। हमें असीम मस्तिष्क और उन्मुक्त हृदय के साथ जीवन की मर्यादा से रचो।’
आज जब राम एक राजनीतिक एजेंडे को पूरा करने के माध्यान के रूप में उपयोग किये जा रहे हैं तब लोहिया ने अपने जीवन काल में ही, चित्रकूट में रामायण मेला लगा कर देश की संस्कृति का एक अद्भुत दिग्दर्शन प्रस्तुत किया था. लोहिया ने तुलसी के राम चरित मानस को एक महानतम ग्रन्थ बताया और कहा कि,
" तुलसी की कविता से अनगिनत ऐसी सूक्तियां एवं लोकोक्तियाँ निकली है, जो थके-हारे, टूटे निराश आदमी को टिकाती है, साहस देती है और सीधे रखती है। साथ ही उसमें ऐसी कविता है जो एक बहुत ही क्रूर अथवा क्षणभंगुर धर्म से जुड़ी हुई है। ऐसी कविता मोतियों के बीच कूड़ा सी परिलक्षित होती हैं और मोती चुंगने के लिए कूड़ा निगलना जरूरी नहीं, न ही कूड़ा साफ करते वक्त मोती फेंकना।’’
" तुलसी की कविता से अनगिनत ऐसी सूक्तियां एवं लोकोक्तियाँ निकली है, जो थके-हारे, टूटे निराश आदमी को टिकाती है, साहस देती है और सीधे रखती है। साथ ही उसमें ऐसी कविता है जो एक बहुत ही क्रूर अथवा क्षणभंगुर धर्म से जुड़ी हुई है। ऐसी कविता मोतियों के बीच कूड़ा सी परिलक्षित होती हैं और मोती चुंगने के लिए कूड़ा निगलना जरूरी नहीं, न ही कूड़ा साफ करते वक्त मोती फेंकना।’’
लोहिया ने आग्रह किया है कि हमें रामायण की उन पंक्तियों को जिसमें नारी को कलंकित किया गया है और शूद्रों को दीन हीन बनाया गया है, हँसकर टाल देना चाहिए। उन्होंने कहा कि -
‘‘मैं उन लोगों में नहीं जो चैपाइयों के अर्थ की खींचतान करते हैं, अथवा 100 चैपाइयों के मुकाबले में केवल विपरीत चैपाई का उदाहरण देकर अपनी बात को मनवाना चाहते हैं। किसी चैपाई के सैकड़ो मतलब बनाने में न तुलसी की प्रतिभा है, न बताने वाले की। विद्वता तो इसी में है कि सभी संभव अर्थो पर टीका करते हुए सबके अर्थ को स्थिर करना।’’
रामायण के सम्बन्ध में इतने उदार विचार लोहिया के ही हो सकते हैं।
‘‘मैं उन लोगों में नहीं जो चैपाइयों के अर्थ की खींचतान करते हैं, अथवा 100 चैपाइयों के मुकाबले में केवल विपरीत चैपाई का उदाहरण देकर अपनी बात को मनवाना चाहते हैं। किसी चैपाई के सैकड़ो मतलब बनाने में न तुलसी की प्रतिभा है, न बताने वाले की। विद्वता तो इसी में है कि सभी संभव अर्थो पर टीका करते हुए सबके अर्थ को स्थिर करना।’’
रामायण के सम्बन्ध में इतने उदार विचार लोहिया के ही हो सकते हैं।
लोहिया कहते थे,
‘‘धर्म और राजनीति के दायरे अलग-अलग हैं, पर दोनों की जड़ें एक हैं, धर्म दीर्घकालीन राजनीति है, राजनीति अल्पकालीन धर्म है। धर्म का काम है, अच्छाई करे और उसकी स्तुति करे। राजनीति का काम है बुराई से लड़े और उसकी निन्दा करे। जब धर्म अच्छाई न करे केवल स्तुति भर करता है तो वह निष्प्राण हो जाता है और राजनीति जब बुराई से लड़ती नहीं, केवल निन्दा भर करती है तो वह कलही हो जाती है। इसलिए आवश्यक है कि धर्म और राजनीति के मूल तत्व समझ में आ जाए। धर्म और राजनीति का अविवेकी मिलन दोनों को भ्रष्ट कर देता है, फिर भी जरूरी है कि धर्म और राजनीति एक दूसरे से सम्पर्क न तोड़ें, मर्यादा निभाते रहें।’’
आगे वे कहते हैं,
" धर्म और राजनीति के अविवेकी मिलन से दोनों भ्रष्ट होते हैं, इस अविवेकपूर्ण मिलन से साम्प्रदायिक कट्टरता जन्म लेती है। धर्म और राजनीति को अलग रखने का सबसे बड़ा मतलब यही है कि साम्प्रदायिक कट्टरता से बचा जाय। राजनीति के दण्ड और धर्म की व्यवस्थाओं को अलग रखना चाहिए नहीं तो, दकियानूसी बढ़ सकती है और अत्याचार भी। लेकिन फिर भी जरूरी है कि धर्म और राजनीति सम्पर्क न तोड़े बल्कि मर्यादा निभाते हुए परस्पर सहयोग करें। लोहिया ने कहा कि आज राजनीति के क्षेत्र में धर्म ने जाने-अनजाने धकियानूसी, प्रतिक्रियावादी, गुलामी और सामप्रदायिकता को बढ़ावा दिया है। "
लोहिया का यह वाक्य भारतीय समाज और राजनीति के लिए सटीक है।
‘‘धर्म और राजनीति के दायरे अलग-अलग हैं, पर दोनों की जड़ें एक हैं, धर्म दीर्घकालीन राजनीति है, राजनीति अल्पकालीन धर्म है। धर्म का काम है, अच्छाई करे और उसकी स्तुति करे। राजनीति का काम है बुराई से लड़े और उसकी निन्दा करे। जब धर्म अच्छाई न करे केवल स्तुति भर करता है तो वह निष्प्राण हो जाता है और राजनीति जब बुराई से लड़ती नहीं, केवल निन्दा भर करती है तो वह कलही हो जाती है। इसलिए आवश्यक है कि धर्म और राजनीति के मूल तत्व समझ में आ जाए। धर्म और राजनीति का अविवेकी मिलन दोनों को भ्रष्ट कर देता है, फिर भी जरूरी है कि धर्म और राजनीति एक दूसरे से सम्पर्क न तोड़ें, मर्यादा निभाते रहें।’’
आगे वे कहते हैं,
" धर्म और राजनीति के अविवेकी मिलन से दोनों भ्रष्ट होते हैं, इस अविवेकपूर्ण मिलन से साम्प्रदायिक कट्टरता जन्म लेती है। धर्म और राजनीति को अलग रखने का सबसे बड़ा मतलब यही है कि साम्प्रदायिक कट्टरता से बचा जाय। राजनीति के दण्ड और धर्म की व्यवस्थाओं को अलग रखना चाहिए नहीं तो, दकियानूसी बढ़ सकती है और अत्याचार भी। लेकिन फिर भी जरूरी है कि धर्म और राजनीति सम्पर्क न तोड़े बल्कि मर्यादा निभाते हुए परस्पर सहयोग करें। लोहिया ने कहा कि आज राजनीति के क्षेत्र में धर्म ने जाने-अनजाने धकियानूसी, प्रतिक्रियावादी, गुलामी और सामप्रदायिकता को बढ़ावा दिया है। "
लोहिया का यह वाक्य भारतीय समाज और राजनीति के लिए सटीक है।
यह दुनिया जैसे देशों की सीमाओं में बंटी है, उसी तरह धर्म की सीमाओं में भी बंटी है. हम अपनी और से कुछ भी कहते रहें , कुछ भी करते रहें, जहां भी हम है, किसी न किसी धर्म की सीमा में ही है. लेकिन दो देशों के बीच तो नो मैन्स लैंड का गलियारा होता है, पर दो धर्मों के बीच इस तरह का कोई स्पेस भी नहीं है . धर्म ने मनुष्य को इतना जकड़ रखा है कि धर्म से मुक्त होना भी चाहे तो वह नहीं हो पाता. धर्म निरपेक्षता धर्मों का विरोध नहीं है बल्कि धर्म के आधार पर किसी भी विशेष दृष्टि का अभाव है. धर्म विहीनता भी एक धर्म ही है. जैसे ईश्वर को मानने वाले विभिन्न धर्म और संप्रदाय है, जो ईश्वर पर आस्था रखने के बावज़ूद भी अपने अपने धार्मिक मामलों में अलग हैं और बहुधा एक दुसरे के विरोधी भी. इसी प्रकार निरीश्वरवाद खुद ही एक सम्प्रदाय या धर्म गठित कर देता है. भारत में तीन दर्शन निरीश्वरवादियों के रहे हैं . आज भी बौध्द और जैन दर्शन निरीश्वरवाद पर ही आधारित है. राजनीति ने भी अपने वोट बैंक और स्वार्थलोलुपता के कारण धर्म का दुरुपयोग किया वहीं धर्म ने अपना आदर्श छोड़कर राजनीतिक गलियारों में अपना रुतबा कायम करने की कोशिश की जिससे कट्टर सांप्रदायिक ताकतों का जन्म हुआ जो भारतीय समाज को आगे बढ़ने में रुकावट पैदा कर रही है। अतः हमें चाहिये कि हम लोहिया के दार्शनिक विचारों को समझे और धर्म एवं राजनीति के विवेकपूर्ण मिलन से एक आदर्श राज्य, उन्नत समाज और उज्जवल राष्ट्र का निर्माण करें।
बीसवीं सदी के युग में डॉ लोहिया एक अनुपम संगठन कर्ता और राजनीतिक विचारक के रूप में उभर कर सामने आये थे. वे खुद को गांधीवादी कहते थे. पर कुजात. ऐसा गांधीवादी जिसे सुविधाभोगी और सरकारी गांधी के चेले पचा नहीं पाते थे. डॉ लोहिया ने 1 रूपये के लिए मुक़दमा लड़ा. विश्व नागरिक के लिए बिना पासपोर्ट के सिंगापूर की यात्रा की , यह अलग बात थी कि, वह सिंगापुर एयर पोर्ट से ही वापस कर दिए गए.
पर एक चेतावनी भी इस लेख के साथ. आज उनका नाम ले कर चलने वाली जो भी लोहिया वादी सरकार है , उसे लोहिया के सिद्धांतों पर आधारित न मानें. आज लोहिया जीवित होते तो बहुत पहले ही ऐसी समाजवादी सरकारों के खिलाफ वह आंदोलन छेड़ देते. ऐसे ही समाजवादी मुखौटे लिए सरकारों और दलों को लक्षित कर संभवतः धूमिल ने यह पंक्तियाँ लिखी होंगी..
अपने देश का समाजवाद,
माल गोदाम में लटकी ,
उन बाल्टियों की तरह है,
जिन पर लिखा तो आग,
पर भीतर, बालू और पानी भरा है !
( धूमिल )
माल गोदाम में लटकी ,
उन बाल्टियों की तरह है,
जिन पर लिखा तो आग,
पर भीतर, बालू और पानी भरा है !
( धूमिल )
इस महान स्वतंत्रता सेनानी, सतत विद्रोही , और प्रखर राजनीतिक चिंतक को उनकी पुण्य तिथि पर विनम्र श्रद्धांजलि !!
( विजय शंकर सिंह )
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