Sunday, 10 November 2013

एक कविता .... अचानक एक मोड़ पर .



अचानक एक मोड़ पर ,
वह गुम हो गया .
कितनी देर ,
हम साथ साथ चले थे !

कभी हँसते हंसाते ,
कभी लड़ते झगड़ते ,
कितनी दूरी का सफ़र ,
तय किया था हम ने .
साथ था , प्यार था ,
झगडे थे , शिकवे थे ,

पर जब बरसता था प्यार ,
जैसे धूल बैठ जाए ,
सब कुछ थम जाता था .
एक बयार खुशबुओं की बरात लिए ,
छु छू जाती थी .
झींसी, एक सावन के मेह की ,
अन्दर तक भिंगो जाती थी .

अचानक उस मोड़ पर ,
एक जलजला आया ,
जैसे टूट जाए शाख किसी पेड़ से ,
और नीचे बहती दरिया की तेज़ धार में ,
देखते ही देखते ,
कहीं ओझल हो जाए .

ऐसे ही वह खो गया .
बहते दरिया का शोर सुनता
मैं ठूंठ की तरह ,
दूर तक कभी उसे, डूबता , कभी उतराता ,
धुंधलाई आँखों से ,
बिछुड़ते देखता रहा .

आज भी, दरिया के किनारे
ढूंढ रहा हूँ उसे ,
दरिया की रवानी , उसका सौंदर्य ,
उदय और अस्त होते हुए ,
सूरज की लालिमा ,
पवन के स्पर्श की मादकता ,
कुछ भी तो नहीं बदला .
सब कुछ वैसे ही है .

बस मैं ,
उस के बिना ठूंठ सा हूँ .
तुम्हे उसका कुछ पता लगे ,
तो बताना , मेरे दोस्त .

-vss .

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