बहुत दिनों के बाद अपनी एक कविता पोस्ट कर रहा हूँ , थोड़ा वर्तमान राजनीति पर है , शायद आप को पसंद आये ......
नाटक ....
यवनिका हटी , सजा मंच दिखा ,
प्रकट हुआ सूत्रधार ,
नाटक प्रारम्भ हुआ ,
और , तभी ,
ठप हो गयी सभा ,
मजमा लगा था जन मंच पर ,
कुछ कोलाहल , कुछ व्यंग्य , कुछ हास ,
से भरा भरा .
ऊपर उठी हुयी ,
पात्रों की ,
स्वस्थ माँसल मुठ्ठियाँ ,
सम्पुटित अंगूठियों से ,
हर रत्न ,थामे हुए , किसी न किसी ग्रह को ,
द्वीप बन चुकी है सभा यह ,
जन गण मन के सागर की ,
अहँकार और ऐश्वर्य के आसुरी प्रदर्शन ,
समेटे भाग्य विधाताओं के .
उठे हाँथ और मचता शोर ,
आक्रोश कम , और
विलास में डूबी हुयी मुस्कराहट अधिक दिखाता है,
यह हमारे लिए युद्ध रत हैं ?
या साज़िश है यह भी इन की .
दिखते तो हैं दायें और बायें ,
पर अलग नहीं हैं , दोनों .
कितने अरमान और हुलास से ,
भेजे थे ,रहनुमा हम ने ,
क्यों हो जाते हैं , रहज़न ,
जा के वहाँ .?
मुझे तो नहीं मालूम ,
शायद तुम्हे पता हो ,
मेरे दोस्त .
हैरान हूँ ,
इस अजब मंजर पर ,
असुर तो सब एकत्र और एकजुट हो जाते हैं ,
तुरन्त और अचानक ,
और , सच बोलने वाले ,
सहमे सहमे , चुप चुप , बिखरे बिखरे ,
क्यों रहते हैं .
सत्ता ,
हमेशा एक खोल में रहती है ,
बीभत्स , ऐश्वर्य में डूबी ,
बेहद खुद गर्ज़ ,
आत्म मुग्धता , और
आत्म श्लाघा ,से भरी हुयी ,
किसी मध्ययुगीन कच्छप के खोल में .
अजीब , कूप मंडूकता है यह ,दोस्त ,
जहाँ से इन्हें पूरा देश ,
राज पथ और कनाट प्लेस दिखायी देता है .
-vss
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