अगर पिछले सात साल के गवर्नेंस की समीक्षा करें तो आप पाएंगे कि, हम एक ऐसे शासन तंत्र के आधीन शासित हो रहे हैं, जिसकी न कोई अर्थनीति है, न विदेशनीति, न गृहनीति और न ही लोककल्याण की ही कोई नीति। सरकार अगर यदि किसी एक विंदु पर स्थिर दिखती है तो, वह है, चुनाव कैसे जीता जाय। चुनाव जीतने के लिए, धर्म का उन्माद फैलाना पड़े, या मौलिक अधिकारों का निर्लज्ज हनन करना पड़े, या हर वह कदम उठाना पड़े, जिससे देश मे सामाजिक वैमनस्यता का वातावरण बने। इन सब मे इस सरकार और सत्तारूढ़ दल को महारत हासिल है। और अंत मे अपने फोटो लगे झोले में 5 किलो अनाज, नमक, तेल, आदि के साथ कुछ रुपये जिसे वह सम्मान निधि कहते हैं, को जनता को देकर, लोककल्याण का भ्रम फैलाने की महारत हासिल है। जनता को रोजगार मिल रहा है या नहीं, बच्चों को शिक्षा मिल रही है या नहीं, बीमारों को स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध हो रही हैं या नहीं, न तो यह सरकार के एजेंडे में शामिल है, न नीति में, न तो सरकार की ऐसी कोई नीयत ही दिख रही है।
गवर्नेंस के कुछ प्रमुख उदाहरण देखें,
● नोटबन्दी हो गयी, क्यों हुयी, किस लिए हुयी, इसका किसे लाभ मिला, देश और जनता को क्या लाभ मिला, यह न तो सरकार को पता है और न ही सरकार के मुखिया को। न तो सत्तारूढ़ दल को पता है, न ही उसके थिंकटैंक को।
● इसी तरह से, कोरोना आया, तो लॉकडाउन लग गया, पर उससे जो कठिनाई जनता और कामगारों को झेलनी पड़ी, उंसकी कोई भी जवाबदेही सरकार ने नहीं लिया।
● तीन कृषि क़ानून, कृषि सुधार के नाम पर लाये गए, साल भर से सरकार, किसानों को समझाते रहे, पर किसान इन कानूनों के खिलाफ सालभर से अधिक समय तक शीत, घाम,बरसात सहते हुए, बैठे रहे अंत मे सरकार खुद ही समझ गए कि संसद में बहुमत और पीठ का दुरुपयोग कर के कानून तो पास कराया जा सकता है, पर उसे जनता न चाहे तो लागू नहीं कराया जा सकता है। अंततः यह तीनों कानून सरकार ने वापस ले लिये। पर मन मसोस कर। यह अफसोस कृषिमंत्री की ज़ुबान पर कभी न कभी आ ही जाता है।
● कभी नाम बदलने की सनक चढ़ती है तो, अकबर इलाहाबादी, अकबर प्रयागराज हो जाते हैं, पर जब दिमाग की बत्ती जलने लगती है तो वे फिर इलाहाबादी हो जाते हैं।
● प्रधानमंत्री, और मुख्यमंत्री जिन पर देश मे कानून व्यवस्था बनाये रखने की प्रथम और महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है, वह कोई ऐसा मौका नहीं चूकते जिससे समाज मे धार्मिक और सामाजिक वैमनस्यता फैले, पर देश की जनता जिसे रोजी रोटी शिक्षा स्वास्थ्य चाहिए, वह इनकी इन विभाजनकारी बातों को अब अधिक तवज्जो नहीं देती है, फिर भी यह अपने चिरपरिचित विभाजनकारी एजेंडे पर लगे ही रहते हैं, क्योंकि, यह न तो गवर्नेंस जानते हैं और न ही समाज मे एका बनाये रखना।
● विदेशनीति और देश की सुरक्षा की बात करें तो, 15 जून 2020 को, चीन की सेनाएं लदाख की सीमा में घुसपैठ कर के एक कर्नल सहित 20 सैनिकों को मार देती हैं, और प्रधानमंत्री इस घटना के महज चार दिन बाद ही, 19 जून को सर्वदलीय बैठक में कहते हैं, न तो कोई आया था, न कोई आया है। घुसपैठ, विदेशी आक्रमण और 20 सैनिकों की शहादत को या तो कोई कायर सरकार ही नजरअंदाज कर सकती है या एक मूढ़ तंत्र ही ऐसा कह सकता है।
यह कुछ उदाहरण है जब सरकार एक विफल और अदूरदर्शिता भरे शासक के रूप में नज़र आईं है। यह एक प्रकार का मूढ़तंत्र है, ककीस्टोक्रेसी है। शायद यह दुनिया की पहली सरकार होगी जो अपने ही देश मे एक ऐसा सामाजिक वातावरण बनाना चाहती है जिससे देश टूटने की ओर बढ़े, एक ऐसा आर्थिक मॉडल लाना चाहती है जिससे समाज मे आर्थिक विषमता बढ़े, एक ऐसा अवैज्ञानिक और अतार्किक बुद्धिविरोधी समाज गढ़ना चाहती है, जो सोच और मानसिकता में प्रतिगामी हो। ऐसा शासन तंत्र मूढ़ तंत्र नहीं तो क्या कहा जायेगा ? क्या हम एक मूढ़तंत्र या ककीस्टोक्रेटिक शासन तंत्र के दौर में नहीं आ पहुंचे है? अब बात थोड़ी अकादमिक और पोलिटिकल साइंस की। पर एंटायर पोलिटिकल साइंस की नहीं ! आखिर ककीस्टोक्रेसी क्या है, इस पर चर्चा करते हैं।
अनेक शासन पद्धतियों के बीच एक अल्पज्ञात शासन पद्धति है काकिस्टोक्रेसी, Kakistocracy . इसका अर्थ है, सरकार की एक ऐसी प्रणाली, जो सबसे खराब, कम से कम योग्य या सबसे बेईमान नागरिकों द्वारा संचालित की जाती है। इसे कोई शासन प्रणाली नहीं कही जानी चाहिये बल्कि इसे किसी भी लोकतांत्रिक प्रणाली के एक ग्रहण काल की तरह कहा जा सकता है जब हम निकम्मे लोगों द्वारा शासित हो रहे हों तब। यह शब्द 17 वीं शताब्दी के प्रारम्भ में इस्तेमाल किया गया जब फ्रांस का लोकतंत्र और इंगलेंड का शासन गड़बड़ाने लगा था। इंग्लैंड ने तो अपनी समृद्ध लोकतांत्रिक परम्परा के कारण खुद को संभाल लिया था पर फ्रांस ख़ुद को संभाल नहीं पाया था। तब अयोग्य और भ्रष्ट लोगों द्वारा शासित होने के कारण , 1829 में यह शब्द एक अंग्रेजी लेखक द्वारा इस्तेमाल किया गया था। मैने अपनी समझ से इसका हिंदी नाम मूढ़तन्त्र रखा है। मुझे शब्दकोश में इसका शाब्दिक अर्थ नहीं मिला।
इस का शाब्दिक अर्थ यूनानी शब्द काकिस्टोस जिसका मतलब ' सबसे खराब ' होता है और क्रेटोस यानी ' नियम ' , को मिला कर बनता है, सबसे खराब विधान । ग्रीक परम्परा से आया यह शब्द पहली बार अंग्रेजी में इस्तेमाल किया गया था, फिर राजनीति शास्त्र के विचारकों ने इसे अन्य भाषाओं में भी रूपांतरित कर दिया ।
राजनीतिशास्त्र के अनुसार इस की अकादमिक परिभाषा इस प्रकार है ~
A "kakistocracy" is a system of government which is run by the worst, least qualified, or most unscrupulous citizens.
काकिस्टोक्रेसी, शासन की एक ऐसी प्रणाली है जो सबसे बुरे, सबसे कम शिक्षित और सबसे निर्लज्ज लोगों द्वारा संचालित की जाती है ।
यह कोई मान्य शासन प्रणाली नहीं है बल्कि यह लोकतंत्र का ही एक विकृत रूप है । लोकतंत्र जब अपनी पटरी से उतरने लगता है और शासन तंत्र में कम पढ़े लिखे और अयोग्य लोग आने लगते हैं तो व्यवस्था का क्षरण होंने लगता है। उस अधोगामी व्यवस्था को नाम दिया गया काकिस्टोक्रेसी । लोकतंत्र में सत्ता की सारी ताक़त जनता में निहित है। जनता अपना प्रतिनिधि चुनती है और वे चुने हुये प्रतिनिधि एक संविधान के अंतर्गत देश का शासन चलाते हैं। शासन को सुविधानुसार चलाने के लिये प्रशासनिक तंत्र गठित किया जाता है जो ब्यूरोक्रेसी के रूप में जाना जाता है। ब्यूरोक्रेसी, सभी प्रशासनिक तंत्र के लिये सम्बोधित किया जाने वाला शब्द है। जिसने पुलिस, प्रशासन, कर प्रशासन आदि आदि सभी तंत्र सम्मिलित होते हैं। इसी को संविधान में कार्यपालिका यानी एक्ज़ीक्यूटिव कहा गया है। ब्यूरोक्रेसी मूलतः सरकार यानी चुने हुये प्रतिनिधियों के मंत्रिमंडल के अधीन उसके दिशा निर्देशों के अनुसार काम करती है। पर ब्यूरोक्रेसी उस मन्त्रिमण्डल का दास नहीं होती है और न ही उनके हर आदेश और निर्देश मानने के लिये बाध्य ही होती है । ब्यूरोक्रेसी का कौन सा तंत्र कैसे और किस प्रक्रिया यानी प्रोसीजर और विधान यानी नियमों उपनियमों के अधीन काम करती है , यह सब संहिताबद्ध है। नौकरशाही से उन्हीं संहिताओं का पालन करने की अपेक्षा की जाती है । पर यहीं पर जब ब्यूरोक्रेसी कमज़ोर पड़ती है या स्वार्थवश मंत्रिमंडल के हर काम को दासभाव से स्वीकार कर नतमस्तक होने लगती है तो प्रशासन पर इसका बुरा असर पड़ता है और एक अच्छी खासी व्यवस्था पटरी से उतरने लगती है । ऐसी दशा में चुने हुये प्रतिनिधियों की क्षमता, मेधा और इच्छाशक्ति पर यह निर्भर करता है कि वे कैसे इस गिरावट को नियंत्रित करते हैं। अगर सरकार का राजनैतिक नेतृत्व प्रतिभावान और योग्य नेताओं का हुआ तो वे ब्यूरोक्रेसी को वे कुशलता से नियंत्रित भी कर लेते हैं अन्यथा ब्यूरोक्रेसी बेलगाम हो जाती है और फिर तो दुर्गति होनी ही है। इसी समय राजनैतिक नेतृत्व से परिपक्वता और दूरदर्शिता की अपेक्षा होती है। इसे ही अंग्रेज़ी में स्टेट्समैनशिप कहते हैं।
लोकतंत्र में जनता का यह सर्वोच्च दायित्व है कि वह जब भी चुने अच्छे और योग्य लोगों को ही चुने और न ही सिर्फ उन्हें चुने बल्कि उन पर नियंत्रण भी रखे। यह नियंत्रण, अगर चुने हुये प्रतिनिधियों को वापस बुलाने का कोई प्राविधान संविधान में नहीं है तो, वह मीडिया, स्थानीय प्रतिनिधि पर दबाव, आंदोलन आदि के द्वारा ही रखा जा सकता है और दुनिया भर में जहाँ जहाँ लोकशाही है, जनता अक्सर इन उपायों से अपनी व्यथा और नाराज़गी व्यक्त करते हुये नियंत्रण रखती भी है। इसी लिये दुनिया भर में जहां जहां भी लोकतांत्रिक व्यवस्था है वहां वहां के संविधान में मौलिक अधिकारों के रूप में अभिव्यक्ति और प्रेस की आज़ादी को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गयी है। जनता का यह दायित्व और कर्तव्य भी है कि वह निरन्तर इस अधिकार के प्रति सजग और जागरूक बनी रहे और जिन उम्मीदों से उसने सरकार चुनी है उसे जब भी पूरी होते न देखे तो निडर हो कर आवाज़ उठाये । इसी लिये लोकतंत्र में विरोध की आवाज़ को पर्याप्त महत्व दिया है और विरोध कोई हंगामा करने वाले अराजक लोगों का गिरोह नहीं है वह सरकार को जागरूक करने उसे पटरी पर बनाये रखने के उद्देश्य से अवधारित किया गया है । यह बात अलग है कि इसे देशद्रोही कह कर सम्बोधित करने का फैशन हो गया है।
लोकतंत्र तभी तक मज़बूत है जब तक जनता अपने मतदान के अधिकार के प्रति सचेत है और सरकार चुनने के बाद भी इस बात पर सचेत रहे कि चुने हुये प्रतिनिधि उसके लिये, उसके द्वारा चुने गए हैं। पर हम चुन तो लेते हैं पर चुनने के बाद सरकार को ही माई बाप मानते हुये उसके हर कदम का दुंदुभिवादन करने लगते हैं । यही ठकुरसुहाती भरा दासभाव लोकतंत्र का क्षरण करता है और ऐसे ही लोकतंत्र फिर, धीरे धीरे मूढ़तन्त्र में बदलने लगता है।
लोकतंत्र में जनता सर्वोपरि है। उसके द्वारा चुनी गई संसद सर्वोच्च है। उसके प्रतिनिधियों द्वारा बनाया गया संविधान, देश की सर्वोच्च विधि संहिता है पर सरकार, सर्वोच्च नहीं है। वह चुनाव में जनता से किये गए वादों पर एक तय समय के लिये चुनी जाती है और जैसे ही विधायिका का विश्वास टूट जाता है या वह तय समय समाप्त हो जाता है या जनता उसे नकार देती है, सरकार समाप्त हो जाती है। ऐसे में जनता का यह परम दायित्व और कर्त्तव्य है कि वह सरकार और सत्तारूढ़ दल को बार बार याद दिलाते रहे कि वह किसलिए सत्तासीन किये गए हैं। लोकतंत्र में जब नेता जब व्यक्ति पूजा का माध्यम बनने लगते हैं और विकल्पहीनता के मिथ्या आवरण में उनकी अपरिहार्यता के किस्से जानबूझकर जनता में फैलाये जाने लगते हैं तो लोकतंत्र गंदलाने लगता है, और वह धीरे धीरे तानाशाही में बदलने लगता है। और जब शासक, एक लोकसेवक न होकर अवतार, अपरिहार्य और विकल्पहीन होने लगता है तो देश उसकी सनक, ज़िद और मर्जी को भोगने के लिये अभिशप्त हो जाता है।
( विजय शंकर सिंह )
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