कराची वासी एमादउद्दीन सईद ने 1968 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल की थी। वे मेरे छोटे भाई के क्लासफेलो थे। उनका ताल्लुक हैदराबाद (भारत) से है और उनकी उर्दू में अचानक बडे़ प्यारे तरीके से हैदराबादी लहजा आ जाता है तो लगता है मातृभाषा कभी पीछा नहीं छोड़ती।
प्रोग्राम ये बना था कि हम लोग यानी तीन पुराने दोस्त, एमाद, जमाल नक़वी और मैं एक दिन साथ गुजारेंगे और एमाद हमारे मेज़बान होंगे। दिन भर के लिए गाड़ी, ड्राइवर और एमाद हमारे, मतलब मेरे और डाॅ. जमाल नकवी के ‘डिस्पोज़ल’ पर होंगें ।
”आपने क्या-क्या नहीं देखा? या क्या देखना चाहते हैं? क्योंकि मैंने तो एक प्रोग्राम बनाया ही हुआ है लेकिन...।“
”तुम अपने प्रोग्राम के हिसाब से घुमाओ...।“ मैंने कहा।
”ठीक है तो ज़िमख़ाना क्लब चलते हैं वो भी आप देखिए...तारीखी जगह है।“
कराची का जिमख़ाना क्लब ‘कोलोनियल’ शानो शौकत का प्रतीक है। विशाल लम्बा- चौड़ा बरामदा... सामने साफ़-सुथरा हरा-भरा लान जिसके पीछे पाम और नारियल के घने पेड़...बरामदे में सोफे पड़े थे.. फर्श चाँदी की तरह चमक रहा था। लगता था किसी कोने से चुरट पीता कोई गोरा साहब बहादुर निकल कर आ जाएगा...।
”चलिए आपको क्लब घुमा दूँ...इन्होंने तो देखा होगा।“
”हाँ आप लोग जाइए मैं बैठा हूँ।“ हम लोग जमाल को छोड़ कर क्लब घूमने निकले।
”यहाँ सब कुछ है...।“
”बाॅर भी है?“
वह हँसने लगा...”नहीं बाॅर तो नहीं है।“
”यार वो क्लब ही क्या जहाँ बाॅर न हो।“
”हाँ ये तो है...पहले हुआ करता था...ज़ियाउल हक़ ने सब बंद कराया था
...इस्लामाइजे़शन।“
हमने बिल्यर्ड रूम देखा, लाइबे्ररी देखी, स्वीमिंग पूल देखा और पता नहीं क्या-क्या देख कर हम वापस आये।
शहर के चक्कर लगाते हम एमाद के दूसरे अड्डे यानी...समन्दर के किनारे बने एक बडे़ शानदार क्लब, रिजाट काम्प्लेक्स पहुँचे। इस दौरान समन्दर के किनारे की ज़मीन दिखा कर एमाद ने कहा, ”यह आर्मी की है।“
”क्या मतलब?“
”आर्मी ने सरकार से ख़रीद ली है।“
”क्यों?“
”कुछ तो उनके काम आएगी...बाकी बेच डालेंगे।“ वह बोला।
”कौन बेच डालेगा?“
”आर्मी...मतलब पाकिस्तानी मिलेट्री। यहाँ मिलेट्री ने दसियों ऐसे ट्रस्ट बना रखे हैं जिनमें तरह-तरह के काम होते हैं। एक तरह से मिलेट्री बिजनेस करती है और उसका ‘प्राफिट’ बड़े-बड़े जरनलों से लेकर छोटे-मोटे अफसरों तक को जाता है।“
हमारी गाड़ी काॅम्पलैक्स में घुसी। लगा कि वाह क्या शानदार जगह है। एक तरफ़ समन्दर लहरें मार रहा था। दूसरी तरफ हरी घास के फैले हुए लान धुले हुए पाॅम और नाॅरियल के पेड़ों के झुंड थे। बीच में ‘केक पीस’ किस्म की बहुत
आधुनिक इमारतें थीं। ड्राइव- वे के साथ एक सिलसिले से काॅटेज बने थे।
हम एक शानदार रेस्त्राँ में आये, लेकिन एमाद का कहना था कि इससे अच्छा भी एक और रेस्त्राँ है जहाँ हमें जाना चाहिए। हम दूसरे ज़्यादा बड़े और शानदार रेस्त्राँ में आ गये जहाँ से दूर तक फैला समन्दर दिखाई दे रहा था।
आर्मी और डिफेंस फोर्सेज़ हर मुल्क में मजे़ करती हैं। इंडिया में आर्मी अफसरों के जो ठाठ हैं, हम सब जानते हैं। और अब तो डिफेंस फोर्सेज़ का रुतबा और बढ़ गया है। आज भारत में कम-से-कम पाँच राज्यों के राज्यपाल भूतपूर्व लेफ़्टीनेंट जनरल या आई.पी.एस. सर्विस के ऊँचे अधिकारी जैसे रिटायर्ड डाॅयरेक्टर जनरल बार्डर सेक्युरिटी फोर्स, डायरेक्टर आई.बी. वगैरा हैं। मतलब भारतीय लोकतंत्र में आज नौकरशाही और सेना को शासन में जो हिस्सा मिल रहा है, वह पहले नहीं था। पहले शासन में सिविल सोसाइटी को भी कुछ हिस्सा मिल जाता था लेकिन पिछले कई दशकों से यह बंद हो गया है। आज भारतीय राजनेताओं को सेना, पुलिस, आई.ए.एस. अधिकारियों की मदद चाहिए। सविल सोसाइटी का सहयोग नहीं। शायद यही वजह है कि भारतीय सुरक्षाबलों के उच्चाधिकारियों के भ्रष्टाचार के जो मामले सामने आ रहे हैं उतने पहले कभी नहीं आते थे।
हमने आज जो शुरू किया है पाकिस्तान में वह तीस साल पहले बहुत जोर-शोर से शुरू हो गया था। पाकिस्तान अपने लगाए पेड़ का जो कड़वा फल आज ‘खा’ रहा है वह कल भारत को भी खाना पड़ेगा अगर समय रहते हमारा समाज न चेता तो।
पाकिस्तान की सेना के कारोबार और व्यापार पर आयशा सिद्दीक़ा ने एक बहुत महत्त्वपूर्ण किताब ‘मिलेट्री एन्कलेब इनसाइड पाकिस्तान मिलेट्री इकोनाॅमी’ लिखी है। आक्सफोर्ड प्रेस से छपी इस पुस्तक की लेखिका ने पाकिस्तान की सेना पर एक और किताब ‘पाकिस्तान आर्म्स प्रोक्योरमेंट एंड मिलेट्री बिल्डअप’ भी लिखी है।
पाकिस्तान की फौज पर कराची में ही एक रिटायर्ड मेजर ने मुझे एक लतीफ़ा सुनाया था। लतीजा क्या सिर्फ़ एक जुमला है-
‘पाकिस्तान की फौज ने सबसे बड़ा कारनामा ये किया है कि पाकिस्तान को जीत लिया है।’
ये लतीफा नहीं सच्चाई है। पाकिस्तान में लोकतंत्र जैसे-जैसे कमजोर पड़ता गया था; राजनैतिक दलों से लोगों का विश्वास जैसे-जैसे उठता गया था। वैसे-वैसे फौज का अमल-दखल बढ़ता गया था और 1958 से फौज एक शासक-सेना बन गयी है।
पाकिस्तान की सेना में 75 प्रतिशत भर्ती पंजाब के तीन जिलों से होती है। 20 प्रतिशत भर्ती उत्तर पश्चिमी सीमावर्ती प्रान्त से, 2 प्रतिशत बिलोचिस्तान और सिन्ध से और बाकी अन्य स्थानों से होती है। इस तरह पाकिस्तानी सेना का बुनियादी चरित्र पंजाबी है। और इस कारण बिलोच लीडर पाकिस्तानी सेना को पाकिस्तानी नहीं, बल्कि पंजाबी सेना मानते हैं।
बांग्लादेश युद्ध में पराजित और अपमानित होने के बाद पाकिस्तान सेना 1977 में पुनः सत्ता में आ गयी थी। इसके बाद सैनिक नेतृत्व ने अपनी और सेना को प्रतिष्ठा और प्रभुत्व को स्थापित करने के लिए एक जटिल फौजी व्यापार, उद्योग जगत को जन्म दिया जो एग्रीकल्चर, मैनुफैक्चरिंग और सर्विस सेक्टर में फैला हुआ है। रक्षा मंत्रालय के उपक्रम फौजी फाउंडेशन, आर्मी वेलफेयर ट्रस्ट, शाहीन फाउंडेशन और बहरिया फाउंडेशन कई स्तरों पर धनोपार्जन में व्यस्त हैं जिसका सीधा लाभ सेना के अधिकारियों को होता था।
जनरल ज़ियाउल हक़ के कार्यकाल में न केवल सेना के कारोबार और
अधिकारियों को दिये जाने वाले इनामों/तोहफों में बढ़ोतरी हुई, बल्कि चुने गये राष्ट्रपति जु़ल्फिकार अली भुट्टो को फाँसी का चढ़ा कर सेना ने यह भी सिद्ध कर दिया था कि चुनी हुई सरकारें भी उसके प्रभाव से स्वतंत्र नहीं हैं। यही कारण है कि बेनजीर भुट्टो (1988-90, 1993-96) और नवाज शरीफ (1990-93, 1997-99) की सरकारों ने फौज के कारोबार की तरफ़ निगाह उठा कर नहीं देखा और वह फलता-फूलता चला गया। डाॅ. आयशा सिद्दीक़ा ने इस तथ्य पर भी ज़ोर दिया है कि शिक्षा और स्वास्थ्य की तुलना में पाकिस्तान का सुरक्षा व्यय बहुत रहा है। उदाहरण के लिए 2004-05 में स्वास्थ्य पर 0.6 प्रतिशत, शिक्षा पर 2 प्रतिशत और सुरक्षा पर 3.2 प्रतिशत व्यय हुआ था।
पाकिस्तान में सबसे बड़ा ज़मीनदार सेना है। लगभग 70,000 एकड़ ज़मीन पर सेना का कब्जा है जिसमें न सिर्फ़ सेना के प्रतिष्ठान हैं, बल्कि उसे बेच कर, लीज या किराए पर देकर अच्छा ख़ासा लाभ कमाया जाता है। सेना के अधिकारियों को भूमि देने के लिए 1912 का लैंड एक्ट अब तक जारी है जिसके तहत सेनाधिकारियों को बीस रुपये से लेकर साठ रुपये प्रति एकड़ के हिसाब से ज़मीन बेची जाती है। मेजर जरनल या उससे बड़े पद का अधिकारी 240 एकड़, ब्रिगेडियर और कर्नल 150 एकड़, लेफ्टीनेंट कर्नल 124 एकड़ तथा जे.सी.ओ.एन.सी.ओ. 64-32 एकड़ ज़मीन ख़रीद सकते हैं। ज़मीन ख़रीदने के बाद वे स्वयं खेती कर सकते हैं या ज़मीन बेच सकते हैं।
‘आर्मी वेलफेयर ट्रस्ट’ सीमेंट, दवाओं, शक्कर, जूते, कपड़े की दसियों फैक्ट्रियों के अतिरिक्त ‘रियल स्टेट’ के कारेाबार में शामिल हैं, लेकिन यह भीमकाय संगठन घाटे में ही रहता है। घाटे का कारण प्रशासनिक कमज़ोरी बतायी जाती है। यह संगठन लगातार सरकार से सहायता और बैंकों से कर्ज़ लेने के लिए सरकार की गारंटी हासिल करता रहता है। अरबों रुपये के कर्ज़ में डूबे आर्मी ट्रस्ट को अपना 2.74 बिलयन रुपये का कर्ज चुकाने के लिए रावलपिंडी का प्लाज़ा बेचना पड़ा था।
सेना की दूसरी संस्थाएँ फौजी फाउंडेशन, शाहीन फाउंडेशन आदि भी विभिन्न व्यापार करती हैं और घाटे में चलती हैं जिनकी भरपाई सरकार करती है। पाकिस्तानी सेना प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से देश की अर्थ-व्यवस्था को, जो बहुत बड़े संकट में फँसी है, और रसातल की ओर ले जा रही है।
”पूरे विश्व को हिन्दी पढ़ाने वाली भारत सरकार अपने पड़ोसी देश पाकिस्तान को हिन्दी क्यों नहीं पढ़ाती?“ यह सवाल किया उर्दू के जाने-माने लेखक और उर्दू की प्रतिष्ठित पत्रिका के सम्पादक अजमल कमाल ने जो अपनी पत्रिका के हिन्दी साहित्य पर केन्द्रित कई विशेषांक निकाल चुके हैं और अपने प्रकाशन से कई हिन्दी किताबों के उर्दू संस्करण छाप चुके हैं।
मैं और जमाल नक़वी कराची के मुख्य शहर के बाज़ारों वाले इलाकों में स्थित अजमल कलाम के आफिस पहुँचे थे। उनके प्रकाशन का शोरूम, उनका कार्यालय और उनका निवास यही है। उन्हें देखकर लगा कि भाषा, साहित्य और समाज के प्रति निष्ठावान और समर्पित लोगों को अगर कोई आज देखना चाहे तो अजमल कमाल को देख ले। उनकी लगन, मेहनत, उत्साह, सादगी, सहजता आकर्षित करती है। अजमल कमाल उर्दू-हिन्दी या कहना चाहिए विश्व साहित्य में गहरी रुचि लेने के साथ-साथ सामाजिक-आर्थिक और राजनैतिक विषयों में भी गहरी पैठ रखते हैं।
हिंदी कहानी पर केंद्रित उनकी पत्रिका का विशेषण देखते हुए मैंने कहा ”पाकिस्तान में हिन्दी कहीं नहीं पढ़ाई जाती?“
मैंने उनसे पूछा।
”कहीं नहीं...हम लोगों को बड़ी मुश्किल होती है। यहाँ एक ग्रुप है, जिसने हिन्दी सीख ली है। इसमें डाॅ. आफिफ फर्रुखी, डाॅ. रफीक अहमद नक़्श और उनकी पत्नी हैं। एक-दो लोग और हैं। जमाल साहब तो हिन्दुस्तान से हिन्दी पढ़ कर आये थे। इन्होंने यहाँ नहीं सीखी। तो हम लोग मिलजुल कर हिन्दी अदब का उर्दू में तरजुमा करते हैं।“
”क्या यहाँ उर्दू के पाठक भारतीय या हिन्दी साहित्य में दिलचस्पी लेते हैं?“ मैंने पूछा।
”बहुत ज़्यादा।“
मैंने पाकिस्तान पर बढ़ते हुए तालिबानी खतरे का जिक्र छेड़ा तो अजमल बताने लगे कि तालिबान में इतनी ताक़त और एकता नहीं है कि वे पाकिस्तान की सत्ता हथिया सकें। वे खु़द बहुत ‘डिवाइडेड’ हैं। दूसरी बात यह कि पाकिस्तान की आर्मी कभी नहीं चाहेगी कि तालिबान सत्ता में आएँ क्योंकि डेमोक्रेसी से तो आर्मी अच्छी तरह ‘डील’ कर लेती है, लेकिन तालिबान के साथ ऐसा नहीं हो सकेगा।
”लेकिन पाकिस्तान सेना में धार्मिक कट्टरता है...कम-से-कम आम सिपाही तो तालिबान को सपोर्ट करेगा?“
”नहीं, धार्मिक कट्टरता के भी यहाँ कई रूप हैं और फौज तो कमांडर के हुक्म पर लड़ती है।“
पाकिस्तान के सभी पढ़े-लिखे समझदार लोग पाकिस्तान की प्रमुख समस्याओं और धार्मिक कट्टरता के पीछे जनरल ज़ियाउल हक़ की केन्द्रिय भूमिका मानते हैं। ज़ियाउल हक़ ने सत्ता हथियाने के लिए इस्लाम धर्म का सहारा लिया था क्योंकि उनकी ‘लेजीटिमेसी’ किसी तरह सिद्ध नहीं होती थी। सत्ता पर उनका कानूनी या नैतिक या संवैधानिक कोई आधार नहीं बनता था। जुलाई 1977 में ज़ियाउल हक़ ने नब्बे दिन के अंदर चुनाव करा देने के आश्वासन पर सत्ता संभाली थी लेकिन मरते दम तक सत्ता से चिपके रहे।
जनरल ज़िया के इस्लामीकरण ने पाकिस्तान को बुरी तरह बाँट दिया था। न सिर्फ़ अहमदियों को गै़र मुस्लिम घोषित करके उन्हें झूठे मुकदमों में सजाएँ दी गयीं और दंगों में उनका नरसंहार किया गया, बल्कि शिआ-सुन्नी संघर्ष भी बहुत ज़्यादा बढ़ा। सुन्नियों के दो धार्मिक स्कूलों देवबन्दी और बरेलियों में भी खू़नी संघर्ष शुरू हो गया था। 1984 के अध्यादेश के अनुसार अहमदी अपने को मुसलमान, अपने धर्म स्थलों को मस्जिद नहीं कह सकते थे।
आतंकवाद से निपटने के लिए अमेरिका धन और हथियारों ने पाकिस्तान की राजनीति में एक नया खेल शुरू कर दिया था। ज़िया पर गंभीर आरोप हैं कि मोहाजिरों और पठानों के संघर्ष को भी उन्होंने हवा दी थी। पाकिस्तानी समाज के इस विभाजन ने जनता की एकता कायम होने और जायज माँगें उठाने की स्थिति को ख़तम कर दिया था। जरनल ज़िया यही चाहते थे जिसमें उन्होंने सफलता मिली थी।
जरनल ज़िया ने हर ऑफिस में मस्जिद बनाने के आदेश दिये थे, नमाज के वक़्त ऑफिसों में छुट्टी का प्रावधान किया गया था। 10 फरवरी, 1979 को उन्होंने एक अध्यादेश के माध्यम से चार प्रकार के अपराधों के लिए इस्लामी दंड घोषित किये थे। चोरी की सजा हाथ काटना तय की गयी थी। विवाहिता स्त्री के परपुरुष के साथ संभोग करने की सजा ‘रजम’ यानी स्त्री की पत्थर मार-मार कर हत्या कर देना, अविवाहिता के लिए संभोग की सज़ा सौ कोड़े, शराब पीने वाले की सज़ा अस्सी कोड़े, झूठा आरोप लगाने की सज़ा भी अस्सी कोड़े तय कर दी गयी थी।
ज़ियाउल हक़ के इस्लामी कानूनों में सबसे अधिक विवादास्पद कानून ज़िना अर्थात् बलात्कार के बारे में था। इसके अन्तर्गत पीड़ितों को पुलिस में रपट लिखाते समय चार गवाहों के नाम भी देने पड़ते थे। यदि पीड़िता चार गवाहों के नाम नहीं दे पाती थी तो बलात्कार को अनैतिक और गै़र कानूनी संभोग मान लिया जाता था। औरत को नाजायज़ सेक्स (एडल्टरी) के अपराध में गिरफ़्तार करके मुकदमा चलाया जाता था। इस कानून की इतनी आलोचना हुई थी कि जनरल मुशर्रफ ने सत्ता में आने के बाद (2006) में इसे बदल दिया था।
पाकिस्तान के इस्लामी कानून आज भी पाकिस्तान के उस इलाके में लागू हैं जहाँ तालिबान का प्रभाव है। वर्तमान सरकार के राष्ट्रपति आसिफ ज़रदारी ने तालिबान की माँग के अन्तर्गत उन्हें खु़श करने के लिए पाकिस्तान के उत्तर-पश्चिम के इलाके स्वात में इस्लामी कानूनों को जारी रहने का आदेश 2009 में दिया था। इस पर तीव्र प्रतिक्रियाएँ हुई थीं। यह कहा गया था कि एक देश में दो क़ानून कैसे चल सकते हैं? यह बात भी हुई थी कि देश के अन्य क्षेत्रों के धर्मान्ध भी यह माँग कर सकते हैं कि उनके क्षेत्रों में भी वही कानून लागू किये जाएँ जो स्वात में लागू किये गये हैं। हास्यास्पद और अन्तरविरोधी वक़्तव्य देते हुए आसिफ जरदारी ने चेतावनी दी थी कि तालिबानी पाकिस्तान पर अधिकार जमाना चाहते हैं। हम पाकिस्तान की बहाली के लिए लड़ रहे हैं।
(जारी)
© असग़र वजाहत
पाकिस्तान का मतलब क्या (8)
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