द मर्डर, द मोनार्क एंड द फकीर, (The Murderer, The Monarch and The Fakeer) इस साल सावरकर पर आने वाली तीसरी महत्वपूर्ण किताब है। इसके पहले दो और किताबे आयीं जिनकी बहुत चर्चा हुयी, पर इस किताब की चर्चा उतनी नहीं हुयी, जितनी उन किताबो की चर्चा हुयी है। उदय माहुरकर की किताब, "वीर सावरकर - द मैन हू कैन हैव प्रिवेंटेड पार्टिशन” और विक्रम संपत की किताब, सावरकर-ए कंटेस्टेड लिगेसी पर खूब चर्चाएं हुई और, सावरकर को धो पोंछ कर बेहतर तरीके से दिखाने की कोशिश भी की गयी पर इस नयी किताब जिसका मैं उल्लेख कर रहा हूँ, उस पर बहुत अधिक चर्चा नहीं हुयी। यह किताब, गांधी हत्या में दर्ज मुक़दमे की विवेचना और अभियोजन पर केंद्रित है तथा एक महत्वपूर्ण सवाल उठाती है कि, क्या सावरकर के खिलाफ पर्याप्त रूप से सुबूत न मिलना, दोषपूर्ण पुलिस तफतीश का एक परिणाम तो कहीं नहीं है? उदय माहुरकर और विक्रम संपत की किताब सावरकर की 'वीरता' पर केंद्रित हैं जबकि यह किताब गांधी हत्या की साज़िश में सावरकर की संलिप्तता पर।
इस साल सितंबर-अक्टूबर में जारी यह नई किताब "द मर्डरर, द मोनार्क एंड द फकीर - महात्मा गांधी की हत्या की एक नई जांच" पर एक नयी बहस को शुरू करती है। पत्रकार अप्पू एस्थोस सुरेश और प्रियंका कोटमराजू द्वारा संयुक्त रूप से लिखी गयी यह किताब, हार्पर कॉलिन्स, इंडिया द्वारा प्रकाशित की गयी है, और प्रिंट तथा किंडल, दोनों ही रूपों में उपलब्ध है। 234 पृष्ठों की इस किताब के लेखक, अंतर्राष्ट्रीय असमानता संस्थान, लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स एंड पॉलिटिकल साइंस में सीनियर अटलांटिक फेलो हैं। किताब पढ़ने से लगता है कि, लेखकों ने गहनता से शोध करके सामग्री इकट्ठा की और उनकी तार्किक विवेचना भी की है। उन्होंने पुलिस विवेचना जैसे प्रोवेशनल, नीरस और जटिल पुलिस जांच को, सुगमता से प्रस्तुत किया है, जिससे उत्सुकता और रोचकता बनी रहती है। सामग्री के लिए उन्होंने, राष्ट्रीय अभिलेखागार, एनएमएमएल, बॉम्बे पुलिस रिकॉर्ड और जीवन लाल कपूर आयोग की रिपोर्ट के अनेक अंश लिये हैं उन्हें, उद्धृत भी किया है।
गांधी हत्या पर एक और तथ्यात्मक और सभी घटनाओं और राजनीतिक स्थिति का विश्लेषण करती हुयी एक और किताब पिछले साल आयी है, अशोक कुमार पांडेय की, 'उसने गांधी को क्यों मारा'। इस किताब का अनुवाद, अन्य भारतीय भाषाओं में भी हुआ है और यह प्रकाशित होते ही लोकप्रिय भी खूब हुयी है। यह किताब इस महत्वपूर्ण घटना और तत्कालीन इतिहास के अनावश्यक विस्तार से बचते हुए, घटना के विवरण, षड़यंत्र और उसके राजनीतिक पहलुओ का ईमानदार विश्लेषण करती है। कमोबेश, अंग्रेजी पुस्तक, द मर्डरर, द मोनार्क, एंड द फकीर में, साजिश के बारे में जो बातें कही गयी हैं उनका उल्लेख "उसने गांधी को क्यों मारा' किताब में पहले ही लिखा जा चुका है। 'उसने गांधी को क्यों मारा' में कपूर आयोग की रिपोर्ट के महत्वपूर्ण संदर्भ दिए गए हैं, जिनसे पता चलता है कि सावरकर की भूमिका साज़िश में थी, पर यह सारे सुबूत अदालत में अभियोजन ने प्रस्तुत नही किये।
यह पुस्तक उस समय जब पुलिस तफ्तीश में वैज्ञानिक तकनीक का अभाव था और विवेचना में वैज्ञानिक दृष्टिकोण के प्रति कोई उत्सुकता भी नहीं थी के समय की गयी ढीली ढाली विवेचना के बारे में ध्यान खिंचती है। किताब इस निष्कर्ष पर पहुंचती है कि, 'तब की गयी इस अपराध की विवेचना, हमारी आपराधिक जांच पद्धति में व्याप्त गंभीर दोषों को भी उजागर करती है। तब आज की तरह से सीबीआई, एनआईए जैसी विशिष्ट जांच एजेंसियां जो, विभिन्न स्थानों पर हुई साजिश की सूक्ष्मता से जांच करने के लिए देशव्यापी अधिकार क्षेत्र के साथ उपलब्ध नहीं थी। अतः प्रत्यक्षदर्शियों के आधार पर जो साक्ष्य एकत्रित किये जा सके, किये गए पर, हत्या के साज़िश की परतें, प्रोफेशनल तरह से नहीं खोली जा सकीं, जिनके आधार पर सदी की सबसे जघन्य हत्या को अंजाम तक पहुंचाया गया।
किताब में यह सवाल भी उठाया गया है कि, अभियोजन ने किन कानूनी विन्दुओं और साक्ष्यों की कमी के कारण, वीडी सावरकर के खिलाफ उनके ही अंगरक्षक अप्पा रामचंद्र कसार और सचिव गजानन विष्णु दामले द्वारा 4 मार्च 1948 को बॉम्बे पुलिस को दी गई साजिश में शामिल होने के सबूत को, मुकदमे में क्यों नहीं पेश किया ? क्योंकि वे साज़िश के एक महत्वपूर्ण साक्ष्य थे, जो अदालत में कभी पेश ही नहीं किए गए। लेखकों के अनुसार, "यदि वे बयान, साक्ष्य परीक्षण के दौरान प्रस्तुत किये गए होते, तो मुक़दमे का परिणाम भिन्न हो सकता था"।
किताब के पृष्ठ 88 पर, लेखकद्वय दिवंगत जेडी नागरवाला, पुलिस उपायुक्त (विशेष शाखा), बॉम्बे की केस डायरी का हवाला देते हैं, जिसमें उल्लेख किया गया है कि
" आरोपी एनवी गोडसे ने पूछताछ के दौरान उल्लेख किया था कि, उसने बैठक के बाद दादर में कॉलोनी रेस्तरां में भोजन किया था।"
क्राइम रिपोर्ट नंबर: 25 की 29 फरवरी 1948 के अनुसार, कॉलोनी रेस्तरां के मालिक सीताराम अनंतराव शटे का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि, सावरकर के पास आने वाले लोग उनके रेस्तरां में भोजन करते थे और कभी-कभी उनके पैसे दामले द्वारा भुगतान किए जाते थे।"
रेस्तरां मालिक ने कहा कि,
" 23 और 25 जनवरी, 1948 के बीच "नाथूराम भोजन के लिए उनके होटल गए थे और उस समय वह विशेष रूप से भ्रमित अवस्था में पाए गए थे"।
( The case diary of J.D. Nagarwala noted the follow Indings: 'In the course of interrogation of accused NV Godse s transpired that on 23.1.48 he had taken food in the colony estaurant at Dadar after meeting Sawarkar." [sic]
This was corroborated by the owner of the restaurant.
A statement of Sitaram Anantrao Shate, proprietor of the Colony restaurant, Shivaji Park, Dadar was recorded on 26.2.48. He states that most of the visitors to Savarkar have their meals in his hotel and sometimes the money was paid by Damle, V.D Sawarkar's secretary. He says that he knows Apte and Nathuram Godse, and between 23rd and 25th Jan'48 Nathuram had visited his hotel for food and at that time he was found particularly in a confused state of mind. [sic]
(Pg 88)
लेखकों का कहना है कि,
"1 फरवरी 1948 की केस डायरी में गजानन विष्णु दामले और अप्पा रामचंद्र कसार से पूछताछ के दौरान जो बताया था, वे महत्वपूर्ण सबूत "सावरकर की मृत्यु के बाद, 1960 के दशक के अंत तक, दबे ही रहे और उन्हें तब तक, सामने कभी भी नहीं लाया गया।"
किताब में, 1 फरवरी 1948 को नागरवाला को उद्धृत करते हुए लिखा गया हैं कि,
"इन दो व्यक्तियों द्वारा जो कहानी और बातें बतायी गयी हैं से ऐसा प्रतीत होता है, कि इन दो व्यक्तियों के साथ सावरकर की इन बैठकों में, महात्माजी को खत्म करने की योजना को अंतिम रूप दिया गया था"
"नागरवाला ( तत्कालीन बॉम्बे पुलिस उपायुक्त ) के अंतर्गत, बॉम्बे पुलिस द्वारा की गई जांच ने सावरकर की साजिश में शामिल होने को निर्णायक रूप से साबित कर दिया था । यह तथ्य कि गोडसे और आप्टे सावरकर के पहले और बाद के प्रयास से पहले और वास्तविक हत्या से पहले संपर्क में थे, संदेह से परे साबित हुआ था।"
लेकिन कपूर आयोग की रिपोर्ट सामने आने तक, यह तथ्य देश के सामने नहीं आ पाए थे। उनका कहना है कि मुकदमे के दौरान अभियोजन पक्ष ने कभी भी दामले और अप्पाराव के बयानों के साथ सावरकर का सामना नहीं कराया और नही इनके बयानों के आलोक में सावरकर का क्रॉस एग्जामिनेशन यानी, जिरह ही कराई गयी।
( February 1, 1948: “From the story related by these two persons it appears that it was at these meetings of Swarkar (sic) with these two individuals that the plan to do away with Mahatmaji was finalised”
“The investigation by the Bombay Police under Nagarwala conclusively proved Savarkar’s involvement in the conspiracy. The fact that Godse and Apte had been in touch with Savarkar before and after the earlier attempt and ahead of the actual assassination was proved beyond doubt… These facts remained undisclosed to the public until the Kapur Commission reports”)
लेखकद्वय गांधीजी को, उनकी हत्या से बचाने में एक और प्रशासनिक विफलता का उल्लेख करते हैं। किताब की पृष्ठ 84 पर, वे कहते हैं कि
" मदनलाल पाहवा ने प्रोफेसर जेसी जैन से संपर्क किया था, जिन्होंने पहले शरणार्थी के रूप में उसकी मदद की थी और सावरकर और अन्य द्वारा गांधीजी के खिलाफ की जा रही हिंसक गतिविधियों के बारे में भी संकेत दिया था। जैसी जैन ने उन्हें तब तक गंभीरता से नहीं लिया जब तक कि उन्होंने 20 जनवरी, 1948 को हत्या के असफल प्रयास के बारे में अखबारों में नहीं पढ़ा था। इसके बाद वे बॉम्बे के गृह मंत्री मोरारजी देसाई के पास पहुंचे, जिन्होंने डिप्टी कमिश्नर बॉम्बे पुलिस, नागरवाला को, यह निर्देश दिया कि वे करकरे को गिरफ्तार करें और सावरकर पर कड़ी नजर रखें। लेकिन यह जितनी गम्भीरता से होना चाहिए था, नहीं किया गया।"
Madanlal Pahwa had approached Prof. J.C.Jain, who had helped him earlier as a refugee and given a hint about the violent activities against Gandhiji by Savarkar and others. Jain did not take him seriously until he read about the failed assassination attempt on January 20, 1948. After that he rushed to Bombay Home Minister Morarji Desai who in turn asked Nagarwala to arrest Karkare and keep a close watch on Savarkar. This was never achieved.
(Pg 84)
जीवन लाल कपूर आयोग की नियुक्ति, "केसरी" (पुणे) के संपादक गजानन विश्वनाथ केतकर के एक दावे के बाद हंगामा मचने के बाद जांच के लिये नियुक्त किया गया था। केतकर ने कहा था कि "उन्हें गांधी की हत्या की संभावना का पूर्व ज्ञान था।" प्रकरण इस प्रकार है। 12 नवंबर 1964 को पुणे में गोपाल गोडसे, मदनलाल पाहवा और विष्णु करकरे को सजा की अवधि पूरी होने के बाद, उन्हें सम्मानित करने के लिए एक समारोह आयोजित किया गया था। केतकर ने उस समारोह में यह बात कही थी। उन्होंने यह भी दावा किया कि " उन्होंने यह बात "बालुकाका कानिटकर" को बताया था, जिन्होंने बॉम्बे राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री बीजी खेर को यह बात बता दी थी।"
( Gajanan Vishwanath Ketkar, editor of “Kesari”(Pune) that he had prior knowledge of the possibility of Gandhi assassination. On 12 November 1964 a function was held in Pune to felicitate Gopal Godse, Madanlal Pahwa and Vishnu Karkare after completion of their term of sentences. Ketkar spoke at that time. He also claimed that he had conveyed this to “Balukaka Kanitkar” who had told the then Chief Minister of Bombay State B.G.Kher.)
उस आयोजन में कही गयी गजानन विश्वनाथ केतकर की इस बात के बाद संसद में काफी हंगामा हुआ। तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री गुरुजारीलाल नंदा ने सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील और सांसद गोपाल स्वरूप पाठक के नेतृत्व में, इस संदर्भ की जांच के लिये एक जांच दल का गठन किया। समस्त रिकॉर्ड की जांच के बाद उन्हें अपनी रिपोर्ट देने के लिए 3 महीने का समय दिया गया था, क्योंकि बालुकाका कानिटकर और बीजी खेर दोनों तब तक जीवित नहीं थे।
इसी बीच, गोपाल स्वरूप पाठक, केंद्रीय मंत्री बना दिये गए, और वे इस कारण, जांच का काम पूरा नहीं कर सके। लेकिन केंद्र सरकार ने जांच कार्य जारी रखने के लिए 21 नवंबर 1966 को न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) जीवन लाल कपूर को एक सदस्यीय जांच आयोग के रूप में नियुक्त किया। जांच के जो संदर्भ तय किये गए थे, वे थे, क्या किसी को महात्मा गांधी की हत्या के बारे में पूर्व जानकारी थी ? और हत्या को रोकने के लिए बॉम्बे सरकार द्वारा क्या कदम उठाए गए थे ? कपूर आयोग ने 162 बैठकों के दौरान 101 गवाहों से पूछताछ की और 30 सितंबर 1969 तक काम पूरा कर लिया।
पृष्ठ 305 पर आयोग ने कहा है,
" केएम मुंशी ने महात्मा गांधी के प्रति वैमनस्य और दुश्मनी का संकेत दिया है और उनकी नीतियों और नेतृत्व को सावरकर के नेतृत्व वाले समूह की तरफ़ झुकाव के लिए जाना जाता था।"
( Mr. K.M.Munshi has indicated the antipathy and antagonism to Mahatma Gandhi and his policies and leadership was known to exist in a goodly measure i.e., the group led by Savarkar”)
अदालत ने बॉम्बे पुलिस की इस त्रुटिपूर्ण विवेचना के लिये भर्त्सना ( स्ट्रिक्चर ) भी की है जो पृष्ठ 322-323 पर अंकित है।
" करकरे और आप्टे का पता लगाने और महात्मा की रक्षा करने में समन्वय की कमी के लिए बॉम्बे राज्य पुलिस के खिलाफ वे सख्त थे।"
( On pages 322-323, there were strictures against Bombay State police for lack of coordination in tracing Karkare and Apte and protecting the Mahatma.)
हत्या के बाद पुलिस सक्रियता पर तंज करते हुए कपूर कमीशन ने जो कहा है वह एक तीखी टिप्पणी है।
" हत्या के बाद, अचानक सक्रिय हो गयी, और उंसकी गतिविधियां अचानक देश भर में बढ़ गयीं, जिनको हत्या के पहले इस साजिश का कुछ पता ही नहीं था।'
( पृष्ठ 323 )
(After the murder, the police suddenly woke up into diligent activity throughout India of which there was no evidence before the tragedy. - Pg.323)
पहले की अनदेखी खुफिया रिपोर्टों और पुलिस रिकॉर्ड के आधार पर, यह पुस्तक महात्मा गांधी की हत्या की परिस्थितियों, इससे जुड़ी घटनाओं और उसके बाद की जांच को फिर से बताती है।ऐसा करके यह किताब एक ऐसी साजिश को बताती है जो इस जघन्य अपराध से कहीं अधिक गहरी है।
द मर्डरर, मोनार्क और फकीर इस उथल-पुथल भरी घटना के महत्व को उजागर करने के लिए एक खोजी पत्रकारिता और नए सबूतों पर आधारित है। यह किताब न तो राजनीतिक घटनाओं का विश्लेषण करती है और न ही तत्कालीन परिस्थितियों का विवेचन। किताब खुद को गांधी हत्या के मुकदमे की तफ्तीश और अदालत में उसके अभियोजन की पड़ताल तक ही सीमित रखती है। हत्या, यदि क्षणिक आवेश में नहीं की गयी है तो निश्चित ही उस अपराध के पीछे कोई न कोई साज़िश होती है। गांधी जी की हत्या की साज़िश रचना न तो किसी एक व्यक्ति के बस में था और न ही, इसके तार इसने सरल थे कि उन्हें आसानी से सुलझाया जा सके। हत्यारे और साजिशकर्ता यह बात बहुत ही अच्छी तरह से जानते थे कि, जो जघन्य कृत्य वे करने जा रहे हैं, उसका असर दुनियाभर में पड़ सकता है और भारत मे तो वह कृत्य भूचाल ला देगी। हत्यारे तो मौके पर पकड़ लिये गए पर इस हत्या की साज़िश की तफ्तीश उतने प्रोफेशनल तरह से नहीं हो की गई, जैसा कि, उसे किया जाना चाहिए था। साज़िश के सारे सुबूत हालांकि वीडी सावरकर की तरफ इंगित करते हैं और कपूर कमीशन तो इस निष्कर्ष पर पहुंच ही चुका था, पर उसे अदालत में साबित नहीं किया जा सका और कुछ सुबूतों को तो अदालत में लापरवाही से रखा भी गया और जितनी कुशलता से जिरह की जानी चाहिए थी, उतनी दक्षता, न्यायालय में अभियोजन ने दिखाई भी नहीं। साज़िश को साबित कर पाना कठिन तो होता है पर अभियोजन की सफलता भी तो उसी कठिन कार्य को सम्पन्न करना है। पुस्तक रोचक है और पठनीय है।
( विजय शंकर सिंह )