Wednesday, 8 September 2021

कहानी - अन्तोन चेख़फ़ की कहानी - भिखारी

— ओ साहिब जी, एक भूखे बेचारे पर दया कीजिए! तीन दिन का भूखा हूँ। रात बिताने के लिए जेब में एक पैसा भी नहीं.. पूरे आठ साल तक एक गाँव में स्कूल मास्टर रहा.. बड़े लोगों की बदमाशी से नौकरी चली गई... ज़ुल्म का शिकार बना हूँ... अभी साल पूरा हुआ है बेरोज़गार भटकते फिरते हुए...

बैरिस्टर स्क्वार्त्सोफ़ ने भिखारी के मैले-कुचैले कोट, नशे से गंदली आँखें, गालों पर लगे हुए लाल धब्बे देखे। उन्हें लगा कि इस आदमी को कहीं पहले देखा है।

— अभी मुझे कलूगा जिले में नौकरी मिलने ही वाली है, -- भिखारी आगे बोलता गया -- पर उधर जाने के लिए पैसे नहीं हैं। कृपा करके मदद कीजिए साहिब... भीख माँगना शर्म का काम है, पर क्या करूँ, मजबूर हूँ...

स्क्वार्त्सोफ़ ने उसके रबर के जूतों पर नज़र डाली जिन में से एक नाप में छोटा और एक बड़ा था तो उन्हें एकदम याद आया —

— सुनिए, तीन दिन पहले मैं ने आपको सदोवाया सड़क पर देखा था, - बैरिस्टर बोले, -- आप ही थे न ? पर उस वक़्त आप ने मुझे बताया था कि आप स्कूल मास्टर नहीं, बल्कि एक छात्र हैं जिसे कालिज से निकाल दिया गया है। याद आया?

— न..नहीं.. यह नहीं हो सकता, -- भिखारी घबराकर बुदबुदाया। -- मैं गाँव में मास्टर ही था... चाहें तो कागज़ात दिखा दूँ...

— झूठ मत बोलो ! तुमने मुझे बताया था कि तुम एक छात्र हो, कालिज छूटने की कहानी भी सुनाई थी मुझे! अब याद आया?
स्क्वार्त्सोफ़ साहब का चेहरा गुस्से से तमतमा उठा। घृणा से मुँह बिचकाकर वे भिखारी से दो क़दम पीछे हट गए। फिर क्रोध भरे स्वर में चिल्लाए —

— कितने नीच हो तुम! बदमाश कहीं के! मैं तुम्हें पुलिस के हवाले कर दूँगा! भूखे हो, ग़रीब हो, यह ठीक है, पर इस बेशर्मी से झूठ क्यों बोलते हो?
भिखारी ने दरवाज़े के हत्थे पर अपना हाथ रखकर पकड़े गए चोर की तरह नज़र दौडाई।

— मैं... मैं झूठ नहीं बोलता... — वह बुदबुदाया — मैं कागज़ात...

— अरे कौन विश्वास करेगा! — स्क्वार्त्सोफ़ साहिब का क्रोध बढ़ता गया — गाँव के मास्टरों और ग़रीब विद्यार्थियों पर समाज जो सहानुभूति दिखाता आया है, उस से लाभ उठाना कितना गन्दा, नीच और घिनौना काम है!

स्क्वार्त्सोफ़ साहब क्रोध से आगबबूला हो उठे और भिखारी को बुरी तरह कोसने लगे। अपनी इस निर्लज्ज धोखेबाजी से उस आवारा आदमी ने उनके मन में घृणा पैदा कर दी थी और उन भावनाओं का अपमान किया था जो स्क्वार्त्सोफ़ साहब को अपने चरित्र में सब से मूल्यवान लगती थीं। उनकी उदारता, भावुकता, ग़रीबों पर दया, वह भीख जो वे खुले दिल से माँगनेवालों को दिया करते थे -- सब कुछ अपवित्र करके मिट्टी में मिला दिया इस बदमाश ने! 
भिखारी भगवान् का नाम लेकर अपनी सफाई देता रहा, फिर चुप हो गया और उसने शर्म से सर झुका लिया। फिर दिल पर हाथ रखकर बोला—

— साहिब, मैं सचमुच झूठ बोल रहा था। न मैं छात्र हूँ और न मास्टर। मैं एक संगीतमण्डली में था। फिर शराब पीने लगा और अपनी नौकरी खो बैठा। अब क्या करूँ? भगवान् ही मेरा साक्षी है, बिना झूठ बोले काम नहीं चलता! जब सच बोलता हूँ तो कोई भीख भी नहीं देता! सच को लेकर भूखों मरना होगा या सर्दी में बेघर जम जाना होगा, बस! कहते तो आप सही हैं, यह में भी समझता हूँ, पर क्या करूँ?

— करना क्या है? तुम पूछ रहे हो कि करना क्या है! -- स्क्वार्त्सोफ़ साहब उसके निकट आकर बोले, -- काम करना चाहिए! काम करना चाहिए और क्या!

— काम करना चाहिए! यह तो मैं भी समझता हूँ, पर नौकरी कहाँ मिलेगी?

— क्या बकवास है! जवान हो, ताक़तवर हो, चाहो तो नौकरी क्यों नहीं मिलेगी? पर तुम तो सुस्त हो, निकम्मे हो, शराबी हो! तुम्हारे मुँह से तो वोदका की बदबू आ रही है जैसे किसी शराब की दूकान से आती है! झूठ, शराब और आरामतलबी तुम्हारे ख़ून की बूँद-बूँद पहुँच चुके हैं! भीख माँगने और झूठ बोलने के अलावा तुम और कुछ जानते ही नहीं! कभी नौकरी कर लेने का कष्ट उठा भी लेंगे जनाब तो बस किसी दफ्तर में, या संगीत-मण्डली में, या किसी और जगह जहाँ मक्खी मारते-मारते पैसे कमा लें! मेहनत-मजदूरी क्यों नहीं करते? भंगी या कुली क्यों नहीं बन जाते? ख़ुद को बहुत ऊँचा समझते हो!

— कैसी बात कर रहे हैं आप? - भिखारी बोला। मुँह पर एक तिक्त मुस्कान उभरी। -- मेहनत-मज़दूरी कहाँ से मिलेगी? किसी दुकान में नौकरी नहीं कर सकता, क्योंकि व्यापार बचपन से ही सीखा जाता है। भंगी भी कैसे बनूँ, कुलीन घर का हूँ... फ़ैक्टरी में भी काम करने के लिए कोई पेशा तो आना चाहिए, मैं तो कुछ नहीं जानता।

— बकवास कर रहे हो! कोई न कोई कारण ढूँढ़ ही लोगे! क्यों जनाब, लकडी फाड़ोगे?

— मैंने कब इनकार किया है, पर आज लकड़ी फाड़ने वाले मज़दूर भी तो बेकार बैठे हैं!

— सभी निकम्मे लोगों का यही गाना है! मैं मज़दूरी दिलवाता तो मुँह फेरकर भागोगे! क्या मेरे घर में लकड़ी फाड़ोगे?

— आप चाहें तो क्यों नहीं करूँगा...

— वाह रे! देखें तो सही!

स्क्वार्त्सोफ़ साहब ने जल्दी से अपनी रसोई से अपनी बावरचिन को बुलाया और नाराज़गी से बोले —

— ओल्गा, इन साहब को जलाऊ लकडी की कोठरी में ले जाओ। इनको लकडी फाड़ने के लिएव दे दो!

भिखारी अनमना-सा कन्धे हिलाकर बावरचिन के पीछे-पीछे चल पड़ा। उसके चाल-चलन से यह साफ़ दिखाई दे रहा था कि वह भूख और बेकारी के कारण नहीं, बस अपने स्वाभिमान की वजह से ही यह काम करने के लिए मान गया है। यह भी लग रहा था कि शराब पीते-पीते वह कमज़ोर और अस्वस्थ हो चुका है।काम करने की कोई भी इच्छा नहीं है उस की।

स्क्वार्त्सोफ़ साहब अपने डाइनिंग-रूम पहुँचे जहाँ से आँगन और कोठरी आसानी से दिखाई दे रहे थे। खिड़की के पास खड़े होकर उन्होंने देखा कि बावरचिन भिखारी को पीछे के दरवाज़े से आँगन में ले आई है। गन्दी-मैली बर्फ़ को रौंदते हुए वे दोनों कोठरी की ओर बढ़े। भिखारी को क्रोध भरी आँखों से देखती ओल्गा ने कोठरी के कपाट खोल दिए और फिर धड़ाम से दीवार से भिड़ा दिए।

— लगता है, हमने ओल्गा को काफ़ी नहीं पीने दी — स्क्वार्त्सोफ़ साहब ने सोचा, — कितनी ज़हरीली औरत है!

फिर उन्होंने देखा कि झूठा मास्टर लकडी के एक मोटे कुन्दे पर बैठ गया और अपने लाल गालों को अपनी मुट्ठियों में दबोचकर किसी सोच-विचार में डूब गया। ओल्गा ने उसके पैरों के पास कुल्हाड़ी फेंककर नफ़रत से थूक दिया और गालियाँ बकने लगी। भिखारी ने डरते-डरते लकड़ी का एक कुन्दा अपनी ओर खींचा और उसे अपने पैरों के बीच रखकर कुल्हाड़ी का एक कमज़ोर-सा वार किया। कुन्दा गिर गया। भिखारी ने उसे दुबारा थामकर और सर्दी से जमे हुए अपने हाथों पर फूँक मारकर कुल्हाड़ी इस तरह चलाई जैसे वह डर रहा हो कि कहीं अपने घुटने या पैरों की उँगलियों पर ही प्रहार न हो जाए। लकड़ी का कुन्दा फिर गिर गया।

स्क्वार्त्सोफ़ साहब का क्रोध टल चुका था। उन्हें ख़ुद पर कुछ-कुछ शर्म आने लगी कि इस निकम्मे, शराबी और शायद बीमार आदमी से सर्दी में भारी मेहनत-मज़दूरी किस लिए करवाई।

— चलो, कोई बात नहीं, — अपने लिखने-पढ़ने के कमरे में जाते समय उन्होंने सोचा, — उस की भलाई ही होगी!

एक घण्टे बाद ओल्गा ने अपने मालिक को सूचित किया कि काम पूरा हो गया है।

— लो, उसे पचास कोपेक दे दो, — स्क्वार्त्सोफ़ साहब ने कहा, — चाहो तो हर पहली तारीख़ को लकड़ी फाड़ने आ जाया करो। काम मिल जाएगा।

अगले महीने की पहली तारीख़ को भिखारी फिर आ गया। शराब के नशे में लड़खड़ाने पर भी उसने पचास कोपेक कमा ही लिए। उस दिन से वह जब-तब आया ही करता था। हर बार कोई न कोई काम कर ही लेता। कभी आँगन से बर्फ़ हटाता था, कभी कोठरी साफ़ करता था, कभी कालीनों और मेट्रेसों से धूल निकालता था। हर बार वह बीस-चालीस कोपेक कमाता था, और एक बार स्क्वार्त्सोफ़ साहब ने उसे अपने पुराने पतलून भी भिजवाए थे।

नए फ़्लैट में जाते समय स्क्वार्त्सोफ़ साहब ने उसे फर्नीचर बाँधने और उठाकर ले जाने में कुलियों की मदद करने को कहा। उस दिन भिखारी संजीदा, उदास और चुप्पा था। फर्नीचर पर हाथ बहुत कम रखता था, सर झुकाए इधर-उधर मण्डरा रहा था। काम करने का बहाना भी नहीं कर रहा था, बस सर्दी से सिकुड़ता रहा था और जब दूसरे कुली उसकी सुस्ती, कमज़ोरी और फटे-पुराने “साहब किस्म के” ओवरकोट का मज़ाक उड़ाते थे तो शरमाता रहा था। काम पूरा हुआ तो स्क्वार्त्सोफ़ साहब ने उसे अपने पास बुला भेजा।

— लगता है, तुम पर मेरी बातों का कुछ असर पड़ा है, — भिखारी के हाथ में एक रूबल पकडाते हुए उन्होंने कहा, —यह लो अपनी कमाई। देखता हूँ तुमने पीना छोड़ दिया है और मेहनत के लिए तैयार हो। हाँ, नाम क्या है तुम्हारा?

— जी, लुश्कोफ़...

— तो, लुश्कोफ़, अब मैं तुम्हें कोई दूसरा और साफ़-सुथरा काम दिलवा सकता हूँ। पढ़ना-लिखना जानते हो?

— जी हाँ...

— तो यह चिट्ठी लेकर कल मेरे एक दोस्त के यहाँ चले जाना। कागज़ातों की नक़ल करने की नौकरी है। सच्चे मन से काम करना, शराब मत पीना, मेरा कहना मत भूलना। जाओ!

एक पापी को सही रास्ता दिखाकर स्क्वार्त्सोफ़ साहब बहुत प्रसन्न थे। उन्होंने लुश्कोफ़ के कन्धे पर एक प्यार की थपकी दी और उसे छोड़ने बाहर दरवाज़े तक आए फिर उससे हाथ भी मिलाया। लुश्कोफ़ वह चिट्ठी लेकर चला गया और उस दिन के बाद फिर कभी नहीं आया।

***

दो साल बीत गए। एक दिन थिएटर की टिकट-खिड़की के पास स्क्वार्त्सोफ़ साहब को छोटे क़द का एक आदमी दिखाई दिया। वह भेड़ के चमड़े की गरदनी वाला ओवरकोट और एक पुरानी-सी पोस्तीन की टोपी पहने हुए था। उसने डरते-डरते सब से सस्ता टिकट माँगा और पाँच-पाँच कोपेक के सिक्के दे दिए।

— अरे लुश्कोफ़, तुम! -- स्क्वार्त्सोफ़ ने अपने उस मज़दूर को पहचान लिया, -- कैसे हो? क्या करते हो? ज़िन्दगी ठीक-ठाक है न?

— जी हाँ, ठीक-ठाक है, साहिब जी... अब मैं उसी नोटरी के यहाँ काम करता हूँ, पैंतीस रूबल कमाता हूँ...

— कृपा है भगवान् की! वाह, भाई, वाह! बड़ी ख़ुशी की बात है! बहुत प्रसन्न हूँ! सच पूछो तो तुम मेरे शिष्य जैसे हो न! मैं ने तुम्हे एक सच्चा रास्ता दिखाया था! याद है, कितना कोसा था तुमको? कान गर्म हुए होंगे मेरी बातें सुनकर! धन्य हो, भाई, कि मेरे वचनों को तुम भूले नहीं!

— धन्य हैं आप भी, — लुश्कोफ़ बोला, — आपके पास न आता तो अब तक ख़ुद को मास्टर या छात्र बतलाकर धोखेबाजी करता फिरता! आपने मुझे खाई से निकालकर डूबने से बचाया है!

— बहुत, बहुत ख़ुशी की बात है!

— आपने बहुत अच्छा कहा भी और किया भी! मैं आपका आभारी हूँ और आपकी बावरचिन का भी, भगवान् उस दयालु उदार औरत की भलाई करे! आप ने उस समय बहुत सही और अच्छी बातें की थी, मैं उम्र भर आपका आभारी रहूँगा,पर सच पूछिए तो आपकी बावरचिन ओल्गा ही ने मुझे बचाया है!

— वह कैसे?

— बात ऐसी है साहिब जी। जब-जब मैं लकडी फाड़ने आया करता था वह मुझे कोसती रहती — "अरे शराबी! तुझ पर ज़रूर कोई शाप लग गया है! मर क्यों नहीं जाता!" फिर मेरे सामने उदास बैठ जाती, और मेरा मुँह देखते-देखते रो पड़ती — "हाय बेचारा! इस लोक में कोई भी ख़ुशी नहीं देख पाया और परलोक में भी नरक की आग में ही जाएगा! हाय बेचारा, दुखियारा!" वह बस इसी ढंग की बातें किया करती थी। उसने अपना कितना ख़ून जलाया मेरे कारण, कितने आँसू बहाए, मैं आपको बता नहीं सकता! पर सब से बड़ी बात यह हुई कि वह ही मेरा सारा काम पूरा करती रहती थी! सच कहता हूँ साहिब, आपके यहाँ मैंने एक भी लकड़ी नहीं फाड़ी, सब कुछ वही करती थी! उस ने मुझे कैसे बचाया, उसको देखकर मैंने पीना क्यों छोड़ दिया, क्यों बदल गया मैं, आपको कैसे समझाऊँ। इतना ही जानता हूँ कि उसके वचनों और उदारता की वजह से मैं सुधर गया, और मैं यह कभी नहीं भूलूँगा। हाँ साहिब जी, अब जाना है, नाटक शुरू होने की घण्टी बज रही है...

लुश्कोफ़ सर झुकाकर अपनी सीट की ओर बढ़ गया।

© मूल रूसी से अनुवाद : अनिल जनविजय
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