बंगाल जाग रहा था, अब देश को जागना था। यह ताज्जुब की बात है कि भारतीय नवजागरण में कलकत्ता ही केंद्र रहा। साहित्य, धर्म और समाज, तीनों का झंडा बंगाल ने ही उठाया। क्या बाकी देश सो रहा था?
यह बात सही नहीं है, और इस कारण मुझे ‘बंगाल रिनैशां’ शब्द से आपत्ति है। अगर देखा जाए तो अधिक आक्रामक रूप से नवजागरण महाराष्ट्र और दक्षिण भारत में हुआ। यह बात ज़रूर थी कि बंगाल में इसके पुरोधा भद्रलोक समाज के दर्जनों लोग थे, जो एक साथ कई दिशाओं में तेज़ी से बढ़ रहे थे। दक्षिण में यह कुछ गिने-चुने केंद्रों से धीरे-धीरे उभर रहा था।
1913 में रवींद्रनाथ टैगोर को मिले नोबेल पुरस्कार ने यह सिद्ध किया कि बंगाली जैसे भारतीय भाषा में लिखी कृति भी विश्व-साहित्य के समकक्ष है। नवजागरण में टैगोर की भूमिका देखी जाए, तो वह एक प्रतीक के रूप में है। वह एक सक्रिय समाज-सुधारक नहीं कहे जा सकते, लेकिन उन्होंने न सिर्फ़ समाज बल्कि राष्ट्र को एक पहचान दी। वह इकलौते व्यक्ति हैं, जिनके लिखे गीत दो राष्ट्रों के राष्ट्रगान हैं। बीसवीं सदी ने दो भिन्न भारतीय व्यक्तित्वों को शीर्ष पर जाते देखा, जिन्होंने पहली नज़र में एक-दूसरे को ‘महात्मा’ और ‘गुरुदेव’ संबोधित करना शुरू कर दिया था। एक गांधी, दूजे टैगोर।
बंगाल से अब बाकी देश की ओर बढ़ता हूँ। अगर बंगाल में राम मोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर और विवेकानंद हुए, तो उसी सोच के विस्तार में उसी कालखंड में दयानंद सरस्वती, ज्योतिबा-सावित्रीबाई फुले, महादेव गोविंद रानाडे और नारायणगुरु जैसे लोग भी हुए।
ऐसा क्यों हुआ? एक ही समय मूर्ति-पूजा, जातिवाद, धार्मिक आडंबरों पर चोट क्यों की जाने लगी? एक साथ एकात्मवाद, एक ईश्वर की बातें कैसे होने लगी? क्या ईसाई मिशनरियों के बढ़ते प्रभाव के कारण ऐसा हुआ? क्या उन्हें लगा कि मुसलमानों और ईसाईयों के लंबे शासन की वजह हिंदू धर्म की संरचना है? क्या उन्हें लगा कि इन धर्मों के कुछ अच्छे गुण मिला लिए जाएँ? क्या जब ‘ओरिएंटलिस्ट’ (प्राच्यविद) वेदों और उपनिषदों का अनुवाद कर रहे थे, तो ग़ैर-ब्राह्मणों ने भी उन पर एक नज़र डाली? क्या यह पढ़ कर लगा कि हिन्दू वेदों से भटक गए थे?
अगर महाराष्ट्र चलें, तो ज्योतिबा फुले (1827-90) और उनकी पत्नी सावित्रीबाई का नाम पहले उभरता है। वह माली जाति के शूद्र थे, जिनको ईसाई मिशनरियों ने शिक्षित करना शुरू कर दिया था। अपनी पुस्तक ‘गुलामगिरी’ में उन्होंने ईसाईयों को इसका धन्यवाद दिया है कि अछूतों और शूद्रों को उन्होंने शिक्षित करना शुरू किया। ईसाई भले ही इसे धर्मांतरण उद्देश्य से कर रहे हों, लेकिन ज्योतिबा की बात में सच्चाई थी।
ज्योतिबा ने अपनी पत्नी सावित्रीबाई को भी शिक्षित किया और उन्होंने 1848 में पहला हिन्दू कन्या विद्यालय स्थापित किया। ऐसा कोई विद्यालय उच्च जातियों की महिलाओं के लिए भी नहीं था। उन्होंने निचली जातियों के पुरुषों लिए भी विद्यालय खोले। उसके बाद 1873 में उन्होंने ‘सत्यशोधक समाज’ की स्थापना की, जिसका उद्देश्य अछूत प्रथा और ब्राह्मणवाद पर चोट थी।
उन्हीं दिनों एक ब्राह्मण विधवा द्वारा बच्चा जनने और उसकी हत्या कर देने की खबर पुणे के अखबार में छपी। फुले दंपति ने एक संस्था बनायी, जहाँ ऐसी महिलाएँ गुप्त रूप से अपना शिशु जन्म दे सकती है जिनका वे सामाजिक रूप से पालन नहीं कर सकती। उन शिशुओं का पालन वह संस्था करती। ऐसे निर्णय क्रांतिकारी थे, और समाज की जड़ों को हिला रहे थे।
बंगाल के तमाम रिनैशां योद्धाओं, और यहाँ तक कि स्वामी विवेकानंद ने भी जातिवाद के विरुद्ध सीधी लड़ाई नहीं लड़ी थी। वहाँ ब्रह्मसमाजी भद्रलोक समाज के ही सुधारक हुए, जो स्वयं शूद्रों के साथ उठते-बैठते नहीं थे। जबकि दक्षिण में यह लड़ाई सीधी और आक्रामक होती गयी।
एक शब्द की भी ज़रूरत थी। शूद्र और अंत्यज शब्द पहले से थे। यह माना जाता है कि ज्योतिबा फुले ने ही पहली बार निचली जातियों के लिए ‘दलित’ शब्द का उपयोग किया (कब और कहाँ, यह स्पष्ट नहीं)। उसके बाद स्वामी विवेकानंद ने अंग्रेज़ी में ‘सप्रेस्ड क्लास’ लिखा, जिसका अनुवाद गांधी ने पहले ‘दलित’ किया और बाद में ‘हरिजन’ कहने लगे। अंबेदकर ‘दलित’ के प्रयोग पर अड़े रहे। जो भी हो, यह शब्द आने वाले कई दशकों के लिए स्थापित हो गया। यह भी माना जा सकता है कि कालांतर में यह इकलौता ‘दलित’ जागरण बंगाल के सभी सांस्कृतिक जागरणों पर भारी पड़ा। गांधी से पहले ज्योतिबा फुले ही महात्मा कहलाए।
(क्रमशः)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
भारतीय पुनर्जागरण का इतिहास - दो (4)
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