( चित्र: भारत का पहला यूएस पेटेंट, जो गैलेना रिसीवर (आरंभिक रेडियो में एक) के लिए जगदीशचंद्र बोस को 1904 में दिया गया )
“मैं अक्सर कहता हूँ कि दुनिया के महानतम कवि और महानतम वैज्ञानिक का पैदा होना बाकी है। इसकी वजह शायद यह है कि जब तक इन दोनों की सोच मिल नहीं जाएगी, ये संभव ही नहीं।”
- जगदीशचंद्र बोस रवींद्रनाथ टैगोर से एक चिट्ठी में
विज्ञान को कई लोग तीन चीजों से भिन्न देखते हैं- धर्म, राजनीति और कला। एक व्यक्ति अगर विज्ञान की प्रयोगशाला में ईश्वर की आराधना करने लग जाए और यह विनती करने लगे कि उसका प्रयोग सफल हो, तो यह कितना अटपटा लगेगा! राजनैतिक आंदोलनों में नारे लगते युवक की छवि जब उभरती है, तो एक कला संकाय के युवक की होती है। कई बैरिस्टर मिलेंगे, राष्ट्रवादी कवि मिलेंगे, लेकिन झंडा उठाए वैज्ञानिकों की तस्वीर कम दिखती है।
फिर भी, ऐसा क्यों होता है कि जब मनुष्य चाँद पर पहुँचता है तो हमारी छाती चौड़ी हो जाती है? मंगलयान को देखने के लिए पूरा भारत साँस थामे प्रतीक्षा कर रहा था। कोरोना के वैक्सीन बनते ही समाज आशान्वित हो गया। क्या यह किसी आंदोलन, किसी राष्ट्रवाद से कम है?
जगदीशचंद्र बोस और प्रफुल्लचंद्र रे, दोनों अभिजात्य परिवारों से थे, अच्छे अंग्रेज़ी विद्यालयों में पढ़ सकते थे। लेकिन, उनके पिता ने उन्हें बंगाली पाठशाला भेज दिया। स्कूल के बाद दोनों ही कलकत्ता के कॉलेज पढ़ने आए, और उसके बाद लंदन गए। एक कैम्ब्रिज, दूसरे एडिनबरा। एक भौतिकी, तो दूसरे रसायन। बोस सीनियर थे, तो कुछ शुरुआती दिनों में उन्होंने प्रफुल्ल को अपने कमरे में जगह भी दी थी। बाद में कलकत्ता लौट कर भी प्रफुल्ल उनके घर में कुछ समय रहे। बोस का विवाह हो चुका था, और प्रफुल्ल आजीवन कुंवारे रहे।
बोस प्रेसिडेंसी कॉलेज के पहले भारतीय भौतिकी प्रोफेसर नियुक्त हुए, और प्रफुल्ल ने रसायन विभाग की ज़िम्मेदारी ली। अब इन दोनों को प्रयोग भी स्वयं करने थे। आज के प्रयोगशालाओं की तरह स्थिति नहीं थी कि प्रोफ़ेसर के साथ दस शोधार्थी लगे पड़े हैं। बोस के असिस्टेंट तो एक टिन के डब्बे बनाने वाले व्यक्ति थे। उस समय भारत की अपनी विज्ञान पत्रिका (जर्नल) भी नहीं थी, एक ही एशियाटिक जर्नल था जिसमें विज्ञान और समाजशास्त्र साथ ही प्रकाशित होते थे।
उन दिनों हर्ट्ज़ नामक वैज्ञानिक ने एक नए तरह की तरंग की बात कही थी। रेडियो तरंग ( उस समय नाम ‘विद्युत तरंग’)। इससे पहले लोग यही जानते थे कि प्रकाश ही एकमात्र तरंग है। बोस ने अपनी प्रयोगशाला में इस पर अध्ययन शुरू किया। मैं ख़्वाह-म-ख़्वाह दावे नहीं करूँगा कि उन्होंने महान खोज कर दिया, और किसी अंग्रेज़ ने उनकी खोज चुरा ली। लेकिन, यह सत्य है कि बोस के पास न आधुनिक प्रयोगशाला थी, न ऐसे वैज्ञानिक विभाग में थे जिनसे कुछ संवाद हो सके।
1895 में कलकत्ता के एशियाटिक जर्नल में दो शोधपत्र छपे। एक बोस का पत्र था विद्युत-तरंग पर, और दूसरा प्रफुल्ल का था मर्कुरस नाइट्रेट पर। मगर कलकत्ता के इस जर्नल को पश्चिम में कोई पढ़ता नहीं था। इन दोनों ने अपने पत्र यूरोप के प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में भेजे। ‘द इलेक्ट्रिसियन’ (1895 ) नामक पत्रिका में एक संपादकीय छपा,
“भारत से एक रोचक पत्र मिला है। जगदीशचंद्र बोस के इस डिज़ाइन से संभव है कि समुद्री जहाजों से संपर्क करना सुलभ हो।”
ऐसा नहीं कि बोस ने विद्युत-तरंग या वायरलेस का आविष्कार कर लिया था। इसका सिद्धांत हर्ट्ज़ दे चुके थे, और लॉज नामक वैज्ञानिक ने यंत्र बना लिया था। उसके बाद इस विषय पर अलग-अलग कोनों से अधिक विकसित यंत्रों का निर्माण हो रहा था। जैसे बाद में अंतरिक्ष जाने की प्रतिस्पर्धा हुई, वैसा ही उस वक्त रेडियो तरंग प्रतिस्पर्धा थी। रूस के अलेक्सांद्र पोपोव, भारत के जगदीशचंद्र बोस और इटली के मार्कोनी, तीनों ने अलग-अलग क्षमताओं के यंत्र बनाएँ। तीनों के पत्र नियमित छप रहे थे, और इसमें एक दूसरे का प्रभाव तो था ही।
बोस ने लंदन में एक साक्षात्कार (1895) में कहा था, “मुझे अपने शोध के व्यवसायिक पक्ष में रुचि नहीं। इसका प्रयोग कोई भी कर सकते हैं।”
उनके विपरीत मार्कोनी विज्ञान को बाज़ार में लाना चाह रहे थे। उन्होंने एक वायरलेस कंपनी बनायी, और रेडियो तरंगें दूर भेजनी शुरू की। जब उनका एक कोड ‘s’ इंग्लैंड से कनाडा पहुँच गया, तो दुनिया में तहलका आ गया। इसने एक साथ न सिर्फ़ वायरलेस, बल्कि भविष्य के रेडियो की भी नींव रख दी।
मार्कोनी के पौत्र ने कलकत्ता में एक भाषण (2008) में कहा,
“1899 में मार्कोनी और बोस के मध्य कुछ पत्राचार हुआ हो, यह संभव है। दोनों के विचार एक ही दिशा में थे, और यंत्रों में भी साम्य है। उस समय भले ही ‘बेतार के तार’ (वायरलेस) के खोज का श्रेय मार्कोनी को मिला, हर्ट्ज, लॉज और बोस जैसे वैज्ञानिकों के बिना यह संभव नहीं था।”
प्रफुल्ल रे का बना रसायन भी एक औद्योगिक खोज थी, जिसके बाद पारे (मर्करी) के बने रसायन बनना सुलभ हो गया। इनके आविष्कार ने दुनिया को चाहे जो भी दिया, भारत को एक साथ भौतिकी और रसायन में विश्व में जगह दी। यह विज्ञान का रिनैशां (नवजागरण) था, जो विज्ञान के राष्ट्रवाद में तब्दील होने वाला था।
हमने अब तक आध्यात्मिक, सामाजिक और वैज्ञानिक नवजागरण पर चर्चा की। राम मोहन राय से विवेकानंद होते हुए जगदीशचंद्र बोस की बात की। अब इस नवजागरण को एक ब्रांड, एक ‘ऑल इन वन’ चेहरे की ज़रूरत है जैसे यूरोप में लियोनार्डो द विंची थे। जिस वर्ष (1884) बोस कैम्ब्रिज से ग्रैजुएट हुए, उसी वर्ष कलकत्ता में एक नवयुवक का पहला कविता-संग्रह प्रकाशित हुआ- ‘भानुसिंहेर पदावली’।
(क्रमशः)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
भारतीय पुनर्जागरण का इतिहास - दो (भूमिका)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/09/blog-post.html
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