आज के रियलिटी शो के जमाने में बाल-प्रतिभा कहना उचित न होगा। अगर रवींद्रनाथ ने आठ वर्ष की अवस्था में एक कविता लिख ली, या एक गीत बना दिया, तो यह आज के लिए बड़ी बात नहीं। टैगोर परिवार के बच्चे की कविता पत्रिका में छप गयी, यह भी कोई अजूबी बात नहीं। उस परिवार की प्रविष्टि कौन ठुकराता? एक पत्रिका के संपादक उनके बड़े भाई, और दूसरे की संपादक उनकी बहन थी।
प्रश्न यह है कि क्या आज की हर बाल-प्रतिभा भविष्य में गुरुदेव रवींद्रनाथ बन जाती है?
अगर हम उनके समवयस्कों से तुलना करें तो स्वामी विवेकानंद शिकागो में भाषण देकर, पूरी दुनिया में दिग्विजय कर, अपना शरीर त्याग चुके थे। जगदीशचंद्र बोस 1900 तक अपने सभी प्रमुख आविष्कार कर चुके थे। रवींद्रनाथ ने उस समय तक अपनी कालजयी रचना (गीतांजलि) लिखी ही नहीं थी। संभवत: यही बात उन्हें गुरुदेव बनाती है।
वह किसी हड़बड़ी में नहीं थे, और न ही कभी उन्होंने स्वयं को संपूर्ण मान लिया। वह हर समय कुछ न कुछ सीखते रहे। चित्रकारी तो उन्होंने जीवन के आखिरी सीढ़ी पर शुरू की। वह कलमघसीट नहीं, बल्कि प्रयोगधर्मी थे।
कुछ शुरुआती बाल-रचनाओं के बाद तेरह वर्ष की अवस्था में उनकी पहली प्रमुख पदावली ‘भानुसिंहेर पदावली’ प्रकाशित हुई, जो बंगाली में थी ही नहीं! बल्कि ऐसी भाषा में थी, जिसे उन्होंने न कभी बोला था, न शिक्षा ली थी। न ही यह उनके नाम से प्रकाशित हुई।
इस कविता के विषय में स्वयं गुरुदेव अपने संस्मरण में लिखते हैं-
" विद्यापति की अपभ्रंश मैथिली भाषा में लिखी कविताएँ मुझे इसलिए पसंद थी क्योंकि वह मुझे समझ नहीं आती थी। यही कारण था कि मैंने इसमें अधिक समय लगाया। मुझे उन्हें पढ़ते हुए ऐसा लगता था जैसे कई बीज जमीन के नीचे दबे पड़े हैं, जिनका अंकुरित होना बाकी है। एक रहस्य की तरह।
मेरे मन में तभी एक विचार कौंधा। क्यों न इसे रहस्य ही रहने दिया जाए?
मेरे मित्र अक्षय चौधरी ने यूरोपीय कवि चैटरटन के विषय में बताया था जिन्होंने प्राचीन काल की कविताओं की नकल पर छद्म-नाम से कविताएँ लिखी थी। उस कवि ने बाद में आत्महत्या कर ली थी। मैंने आत्महत्या की योजना तो नहीं बनायी, लेकिन ऐसी कविता लिखने का मन बना लिया।
एक दिन घने बादल घिरे थे, और मैं लेटे हुए, आकाश को देखते हुए एक मैथिली कविता की नकल लिखने लगा- ‘गहन कसम कुंज माझे’। वह कविता मैंने बैठे-बैठे तुकबंदी कर पूरी कर ली।
मैंने एक मित्र को कविता दिखा कर कहा, “मुझे आदि ब्रह्म समाज के पुस्तकालय में एक पुरानी पांडुलिपि मिली, जो किसी भानुसिंह नामक कवि ने लिखी थी ।”
उसने चौंक कर कहा, “ऐसी कविताएँ तो विद्यापति और चण्डीदास भी नहीं लिख पाते। इसे फिर से छपवानी चाहिए।”
मैंने कहा, “अगर मैं कहूँ कि वह भानुसिंह मैं ही हूँ”
उसने तुरंत अपनी प्रतिक्रिया बदल कर कहा, “हाँ। फिर भी। उतनी बुरी नहीं हैं।”
आखिर यह पदावली भानुसिंह के नाम से प्रकाशित हुई। हद तो तब हो गयी, जब जर्मनी के एक शोधार्थी निशिकांत चटर्जी ने अपनी पी.एच.डी. थीसिस में भारत के प्राचीन कवियों में भानुसिंह का नाम लिखा। यह रहस्य कई वर्षों तक रहस्य ही रहा कि भानुसिंह नामक कोई कवि कभी था ही नहीं!
अगर वाकई कोई भानुसिंह होते, और उनकी कविता मेरे हाथ लगती, तो मैं यह कर्म कभी न करता। ]
भानु का अर्थ रवि। उन्होंने जैसे इस नाम से विद्यापति को पुनर्जीवित कर दिया।
अब तो यह गीत इतने गायक गा चुके हैं, कि तेरह वर्षीय किशोर का लिखा यह गीत भी कालजयी बन गया।
‘गहन कुसुम कुंज माझे
मृदुल मधुर बंसी बाजे
बिसरि त्रास लोक लाज
सजनि आउ आउ हे
पहनि चारू नील बसन
हिय में प्रणय कुसुम राशि
हिरण नेत्र बिमल हास
कुंज बन में आउ आउ हे...’
(क्रमशः)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
भारतीय पुनर्जागरण का इतिहास - दो (3)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/09/2.html
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