जब विवेकानंद ने कहा कि भारत का केंद्र ही धर्म है, तो वह इसलिए नहीं कहा था कि वह धर्मगुरु थे। विवेकानंद की बात एक आधुनिक सोच के साथ थी। भारत में जन्म से मरण तक धर्म गुँथा हुआ है। हर गाँव, हर शहर, हर नदी, हर पहाड़ पर। आप दुनिया भर का चक्कर लगा लें, जहाँ ईसाइयों ने बल और बुद्धि से धर्म स्थापित किया, वहाँ भी जीवन-शैली में धर्म इस तरह घुला हुआ नहीं मिलेगा। कुछ गिरजाघर होंगे, कुछ आश्रम (मोनास्ट्री) होंगे, कुछ किताबें भी होगी; मगर यूँ माहौल न होगा कि गाड़ी खरीदी तो नारियल फोड़े जा रहे हैं या टैक्सी चालक के ‘रियर व्यू’ शीशे पर एक लाल कपड़ा बँधा होगा जो कहीं किसी मंदिर से मिला होगा।
इस्लाम देशों में अवश्य यह स्थिति मिल सकती है। वहाँ भी देश की धुरी धर्म है, लेकिन वहाँ एक निश्चित अनुशासन है। नमाज़ पढ़ने से लेकर त्यौहारों का प्रोटोकॉल है। पूरा देश एक रंग में रंगा दिख सकता है। जबकि भारत में यह बड़े ही बेतरतीब ढंग से, हज़ारों रंगों के कूचे से बना है। शिव से लेकर बरम बाबा तक की पूजा हो रही है। अगर कोई तानाशाह इस देश को पूरी तरह धर्म-मुक्त बनाने की ठान भी ले, तो भी यह असंभव है। आधुनिक दुनिया में कई शहरी पढ़े-लिखे भारतीय स्वयं को धर्म से परे कहते हैं, मगर क्या वह वाकई ऐसा ‘क्वारांटाइन’ माहौल बना पाते हैं कि धर्म उन्हें छू न सके?
इस भूमिका के साथ नवजागरण इतिहास का विचित्र पहलू पेश करता हूँ।
भारत इकलौता क्षेत्र है जहाँ विज्ञान के पुरोधा धर्म के भी पुरोधा बन गए। यह मैं भास्कराचार्य या आर्यभट्ट की बात नहीं कर रहा, बल्कि इंग्लैंड से पढ़ कर आए जगदीशचंद्र बोस और प्रफुल्लचंद्र रे का उदाहरण दे रहा हूँ। जगदीशचंद्र बोस ने पौधों की संवेदना पर कार्य करते हुए यह कहा कि उनमें भी भावनाएँ होती हैं, क्योंकि वह अद्वैत हैं। एक मशहूर क़िस्सा है कि जब शाकाहारी जॉर्ज बर्नाड शॉ ने बोस के लंदन डेमो के दौरान पत्तागोभी को रोते हुए देखा तो उनके भी आँसू आ गए (दूसरे संदर्भ में गाजर पर विद्युत परीक्षण का वर्णन है)। मेरा ध्येय इस पराभौतिक विज्ञान की तह में जाना नहीं है, बल्कि यह है कि एक आधुनिक शिक्षा से लैस और विदेशी कॉलेजों में पढ़ा व्यक्ति ऐसा कैसे सोच सकता है? क्या यह विज्ञान को देखने का भारतीय तरीका है?
रिनैशाँ इतिहास में यह वाक्यांश कई बार सामने आता है- ‘इंडियन वे ऑफ़ डुइंग साइंस’।
प्रफुल्लचंद्र रे ने जब अपनी प्रमुख वैज्ञानिक खोज (मर्कुरस नाइट्रेट) पूरी कर ली, तो वह संस्कृत ग्रंथों में डूब गए, और उन्होंने ‘हिंदू रसायन शास्त्र’ नामक पुस्तक लिख दी। भला रसायन शास्त्र का कब से धर्म होने लगा? यहाँ उनका अर्थ भारत के प्राचीन रसायन शास्त्र का आकलन था, जो आज भी इस विषय की मानक पुस्तक है।
बोस और रे, दोनों ही आचार्य कहलाए, और अपने जीवन का आखिरी समय आध्यात्मिक दुनिया में व्यतीत किया। यह बात पश्चिम के वैज्ञानिकों को चौंका सकती है, जो विज्ञान और धर्म को द्वैत मानते हैं। उनमें कुछ नौसिखिए यह भी तंज करते हैं कि भला एक विज्ञान से जुड़ा व्यक्ति ईश्वर में विश्वास कैसे कर सकता है। कुछ यह मान कर चलते हैं कि वैज्ञानिक नास्तिक ही होते हैं, और आध्यात्मिक व्यक्ति विज्ञान की दुनिया का नहीं होता।
दक्षिण के रिनैशाँ और पेरियार की चर्चा से पहले एक व्यक्ति का जिक्र करना ज़रूरी है जो कुम्बकोणम (तमिलनाडु) के एक गाँव से ताल्लुक रखता था, मंदिरों में बैठ लंबी आराधना करता था, जिसे ईश्वर में अटूट विश्वास था, और जो ईश्वर को ही उसके तमाम गणितीय सिद्धांतों का स्रोत बताता था। उस व्यक्ति के आगमन ने यह भी स्पष्ट किया कि वैज्ञानिक पुनर्जागरण सिर्फ बंगाल में ही नहीं, मद्रास में भी हो रहा था। वह व्यक्ति जिस पर पिछले दशक में हॉलीवुड फ़िल्म बनी- ‘The man who knew infinity’!
(क्रमशः)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
भारतीय पुनर्जागरण का इतिहास - दो (6)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/09/6.html
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