बंगाल, महाराष्ट्र और दक्षिण भारत के नवजागरण के बाद तो एक प्रश्न यह भी है कि दिल्ली कहाँ थी? कलकत्ता में जब दर्जनों साहित्यकार, वैज्ञानिक और विचारक जन्म ले रहे थे, तो दिल्ली, आगरा, लखनऊ, पटना जैसे सांस्कृतिक नगरों में कोई हलचल क्यों नहीं थी? एक कारण तो मैंने लिखा ही है कि जहाँ-जहाँ ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने मुख्यालय बनाए, वहाँ ब्रिटिश शिक्षा आयी और सांस्कृतिक नवजागरण देखने को मिला। दिल्ली तो एक हारी हुई राजधानी थी, जहाँ के अंतिम शासक को देश से ही निकाल दिया गया, और बच्चों को मौत के घाट उतार दिया गया।
लेकिन, अंग्रेज़ों से पहले यहाँ के रंग कुछ और थे। गंगा और यमुना नदियों के इर्द-गिर्द यह पूरा उत्तर भारत सांस्कृतिक रूप से समृद्ध था। ब्रिटिश काल के नवजागरण से पहले ही उत्कृष्ट कलाएँ विकसित हो चुकी थी। दिल्ली, आगरा, लखनऊ और पटना कला और साहित्य के केंद्र थे। इसी उत्तर भारत में भक्ति-काल के कवि हुए, यहीं तानसेन हुए, मिर्ज़ा ग़ालिब हुए। अगर प्राच्यविद (ओरियेंटलिस्ट) यह दावा करते हैं कि उन्होंने प्राचीन हिन्दू ग्रंथों का अनुवाद कर पश्चिमी दुनिया में उसको महत्व दिलाया, तो उन्हें यह भी ध्यान रहे कि उनके अधिकांश अनुवाद फ़ारसी तर्जुमों से थे। ये अनुवाद मुग़ल-काल में ही किए जा चुके थे।
लेकिन, जैसे-जैसे मुग़ल साम्राज्य का पतन होता गया, समाज का भी सांस्कृतिक अवसान होता गया। न सिर्फ़ सांस्कृतिक बल्कि नैतिक कमजोरियाँ भी आने लगी। इसकी परछाई धर्म पर भी दिखने लगी। ख़ास कर मुसलमान जो मुग़ल काल में तन कर चलते थे, उनका आत्मविश्वास टूटने लगा। उनकी सृजनात्मकता घटने लगी, और धार्मिक ढकोसले बढ़ने लगे। 1857 का ग़दर इस ताबूत में आखिरी कील थी।
अंग्रेज़ों ने इसे सिपाही विद्रोह कहा और इसका ठीकरा मुसलमानों पर फोड़ा। न सिर्फ मुगल शहंशाह, बल्कि मुसलमान अभिजात्य वर्ग के कई व्यक्तियों को बेइज्जत किया गया। सय्यद अहमद ख़ान जो उस समय बिजनौर में न्यायाधीश पद पर थे, उन्होंने अंग्रेज़ी में लिखा,
“मैं यह देख कर अचंभित था कि किस तरह संभ्रांत परिवारों को सामूहिक रूप से बेइज्जत किया जा रहा था। उन्हें विद्रोह का कारण बताया जा रहा था। मैं यह आशा खो चुका था कि मुसलमानों का गौरव कभी लौट पाएगा। मेरा सर झुक चुका था और मैं वृद्ध होने लगा था। मेरी इच्छा हुई कि यह देश त्याग कर कहीं चला जाऊँ, लेकिन फिर यह लगा कि यह मेरा देश है, यह मेरा समाज है, मैं कहाँ जाऊँगा?”
उन्होंने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ किसी विद्रोह की भूमिका नहीं बनायी, बल्कि इसके ठीक विपरीत मुसलमानों और अंग्रेज़ों के मध्य दूरियाँ घटाने का निर्णय लिया। जिस तरह बंगाली भद्रलोक समाज अंग्रेज़ों से गलबहियाँ कर प्रगति-पथ पर था, कुछ उसी तरह वह मुसलमानों का एक सूट-बूट धारी अभिजात्य समाज तैयार करना चाहते थे। वह मुसलमानों को तलवार की नहीं, कलम की ताक़त देना चाहते थे। वह उन्हें भी मैंकाले के उस स्वप्न में ढालना चाहते थे जो खून से मुसलमान होंगे, लेकिन उनके स्वाद अंग्रेज़ों वाले होंगे। इस दिशा में सबसे महत्वपूर्ण हस्तक्षेप था विज्ञान। वह जानते थे कि बिना वैज्ञानिक सोच के मुसलमान अंधविश्वासों में उलझे रहेंगे।
1864 में उन्होंने साइंटिफिक सोसाइटी की स्थापना कर विज्ञान की एक ईंट रख दी। साथ ही उन्होंने मुरादाबाद और ग़ाज़ीपुर में अंग्रेज़ी स्कूल खुलवाए। उन्होंने यह भी देखा कि फ़ारसी और अरबी का भविष्य नहीं, बोल-चाल की उर्दू में ही लिखना-पढ़ना बेहतर होगा। उसी समय बनारस और अन्य हिस्सों में हिन्दी की लोकप्रियता बढ़ रही थी, और उसे न्यायालयों की भाषा बनाने की माँग चल रही थी। उन्होंने उर्दू में ‘तहज़ीब-उल-अख़लाक़’ (सभ्यता और नैतिकता) नामक पत्रिका निकाली, जिसमें आधुनिक शिक्षा पर बातें होती और इस्लाम रूढ़िवाद की आलोचना भी होती। जब मौलवियों द्वारा उनके इस फ़िरंगी रुझान पर सवाल उठा तो उन्होंने कहा,
“मैं किसी को इस्लाम छोड़ने नहीं कह रहा। वह अल्लाह की इबादत ज़रूर करते रहें। लेकिन उन्हें यूरोप की किताबें, वहाँ का विज्ञान पढ़ना होगा। नयी सोच के बिना मुसलमानों का कोई भविष्य नहीं।”
1875 में अलीगढ़ में मदरसातुल उलूम मुसलमानां-ए-हिन्द स्थापित हुआ, जो मोहम्मदन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज और बाद में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी कहलाने लगा। यह कलकत्ता से बाहर उत्तर भारत के, और ख़ास कर मुसलमानों के नवजागरण की भी नींव थी।
(क्रमश:)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
भारतीय पुनर्जागरण का इतिहास - दो (9)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/09/9.html
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