“अंग्रेज़ों और हम भारतीयों में क्या अंतर है? सिर्फ़ यह कि उनमें आत्मविश्वास है। वे सोचते हैं कि वे अंग्रेज़ हैं, जो कुछ भी कर सकते हैं। वे स्वयं को ईश्वर समझने का भ्रम पाल लेते है ...जबकि हमें सिखाया गया है कि हम कुछ नहीं हैं। अगर हर भारतीय जान ले कि एक सूक्ष्मतम जीव में भी ईश्वर का वास है। आत्मा और परमात्मा द्वैत नहीं, अद्वैत है। तो वह अपने विश्वास से ईश्वर को जगा सकते हैं।”
- स्वामी विवेकानंद
नरेंद्रनाथ नयी दुनिया के व्यक्ति थे। वह उस कलकत्ता के भद्रलोक समाज से थे, जो पूरी तरह मेट्रोपॉलिटन बन चुका था। उनके पिता सात भाषाएँ जानते थे, बंगाली संस्कृति के अतिरिक्त अंग्रेज़ी जीवन-शैली और मुग़लिया भोजन के भी प्रेमी थे।
नरेंद्रनाथ की शिक्षा पश्चिमी पद्धति से कलकत्ता के उन्हीं स्कूलों में हुई, जहाँ भद्रलोक के बच्चे पढ़ते थे। कलकत्ता विश्वविद्यालय से ग्रैजुएट हुए, यूरोपीय दार्शनिकों को पढ़ा और वकालत की पढ़ाई करने वाले थे। उनके बौद्धिक यौवन की नींव में हिन्दू दर्शन कम ही था। वह किसी ऐसे गुरुकुल से नहीं थे, जहाँ बच्चों को वेद कंठस्थ कराया जाता है। फिर वह कुछ ही वर्षों बाद ऐसे संत कैसे बन गए जो दुनिया को प्रभावित कर रहा हो?
क़िस्सा है कि एक यूरोपीय शिक्षक ने विलियम वर्ड्सवर्थ की कविता ‘एक्सकर्सन’ पढ़ाते हुए कहा, “अगर ‘ट्रांस’ शब्द को समझना है तो परमहंस से जाकर मिलो। वह दक्षिणेश्वर मंदिर का पुजारी है।”
यह बात नरेंद्रनाथ के पास एक मित्र के माध्यम से पहुँची, तो वह भी मंदिर में मिलने चले गए। रामकृष्ण परमहंस एक फक्कड़ पुजारी थे, जिनका ज्ञान बाल-सुलभ उदाहरणों से भरा होता। जैसे किसी ने पूछा कि जब ईश्वर निराकार है तो भक्तों को नज़र कैसे आते हैं? वह कहते, “परमात्मा को एक समुद्र की तरह मानो, जिस पर कभी-कभी ठंड में बर्फ़ जाती है। वह कुछ समय के लिए आकार रूप में दिखने लगते हैं। लेकिन, यह क्षणिक है। ज्ञान के ताप से पिघल कर वह पुन: निराकार हो जाएँगे, मगर वह छवि मन में रह जाएगी।”
नरेंद्रनाथ अठारह वर्ष के थे, जब उनसे पहली मुलाक़ात हुई। पाँच साल बाद परमहंस चल बसे। यह बहुत ही कम समय था, लेकिन नरेंद्र ने उनके दिए सहज उदाहरणों के साथ अपनी तरफ से वेदाध्ययन और शंकराचार्य के अद्वैत सिद्धांत पर शोध कर लिया। उसके बाद वह भारत-भ्रमण पर निकले, जिस दौरान खेतरी (राजस्थान) के महाराज अजीत सिंह से उनका संपर्क हुआ। उन्हीं ने उनका नाम विवेकानंद रखा, और अमरीका के धर्म-सम्मेलन में जाने के लिए सहयोग दिया।
यहाँ से विवेकानंद का एक धर्म प्रचारक काल शुरू होता है, जो हिंदू धर्म में कम देखा गया था। बौद्ध पंथ के प्रचारक सुदूर देशों तक गए और उन्हें बौद्ध बनाया लेकिन कभी भारत से बाहर हिंदू धर्म का प्रचार नहीं हुआ। हालाँकि इस तरह की यात्रा और प्रचार स्वयं शंकराचार्य ने पहले किया था, मगर वह भी भारत तक सीमित रहे।
विवेकानंद 1893 से 1896 अमेरिका में रहे, जिसमें कुछ समय इंग्लैंड गए जब उन्हें माग्रेट नोबल नामक युवती मिली। वह विश्व भर की अखबारों में इस कदर आ रहे थे कि एक पूरी किताब उनके मीडिया कवरेज के संकलन से ही बन गयी है। विदेशियों के लिए भी यह संत एक कौतूहल था, जो महज तीस वर्ष की उम्र में भारतीय दर्शन से परिचय करा रहा था।
अमरीका से लौट कर विवेकानंद ने बेलूर मठ स्थापित किया और मार्ग्रेट नोबल को भगिनी (सिस्टर) निवेदिता बना कर उसकी ज़िम्मेदारी दे दी। ऐसा भी पहले हिंदू धर्म में नहीं हुआ था कि एक महिला, और वह भी एक विदेशी महिला को आश्रम का कार्यभार मिले। इसकी एक व्याख्या यह भी हो सकती है कि जहाँ ईसाई मिशनरी हिंदुओं को ईसाई बनाने के प्रयत्न कर रहे थे; उनके गढ़ कलकत्ता में एक हिंदू मिशन खुल गया था जिसकी मुखिया एक ऐसी ईसाई महिला थी जो अब हिंदू हो गयी थी! कहीं न कहीं, यह उनके श्रेष्ठता-बोध पर एक प्रहार था।
अगले वर्ष विवेकानंद फिर से दो वर्ष के लिए यूरोप और अमरीका यात्रा पर निकल गए। वहाँ से लौट कर वह 39 वर्ष की अवस्था में चल बसे। प्रश्न यह है कि इतने कम समय में और बहुधा विदेश भ्रमण करते हुए विवेकानंद ने देश के लिए आखिर क्या किया?
उन्होंने भारतीय जनमानस में यह आत्मविश्वास दिया कि उनकी संस्कृति विश्व की पथ-प्रदर्शक हैं और उनके धार्मिक सिद्धांत संपूर्ण पश्चिम से श्रेष्ठ हैं। बाल गंगाधर तिलक ने कहा कि विवेकानंद ने राष्ट्रवाद की ज्योति जलायी। इसका कारण यह नहीं था कि उन्होंने कांग्रेस अधिवेशन में ब्रिटिशों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठायी, बल्कि यह था कि उन्होंने भारतीयों के धर्म को जागृत किया।
विवेकानंद मानते थे कि हर देश का एक केंद्रीय सिद्धांत होता है, जिस पर देश का जन-जीवन आधारित होता है। इंग्लैंड के लिए वह सिद्धांत सत्ता की राजनीति है, जबकि भारत के लिए वह सिद्धांत धर्म है। धर्म ही देश में एकता और राष्ट्र-चेतना ला सकता है।
धार्मिक पुनर्जागरण तो हो रहा था, लेकिन विज्ञान कहाँ था? विवेकानंद इससे पहले निकोला टेसला और केल्विन जैसे वैज्ञानिकों से मिल चुके थे। उन्होंने कहा था, “विज्ञान का ध्येय एकात्म की खोज है”।
1900 ई. में जब विवेकानंद पेरिस के धर्म संसद में बोल रहे थे, तो उन्हें खबर मिली कि वहीं एक भौतिकी का सम्मेलन भी चल रहा है। जब वह पहुँचे तो एक भारतीय वैज्ञानिक विचित्र विषय पर बोल रहे थे- ‘सजीव और निर्जीव की प्रतिक्रिया में साम्य’। भला एक मृत, एक निर्जीव वस्तु सजीव की तरह कैसे प्रतिक्रिया दे सकती है?
जगदीशचंद्र बोस के इस भाषण में विवेकानंद पीछे बैठे मुस्कुरा रहे थे। जैसे कोई सूत्र मिल गया हो। जैसे किसी ने भौतिकी के माध्यम से एकात्म खोज लिया हो।
[प्रथम शृंखला समाप्त]
धन्यवाद।
प्रवीण झा
© Praveen Jha
भारतीय पुनर्जागरण का इतिहास - एक (18)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/08/18.html
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