वीडी तिवारी की बैठक में पहुँच कर थ्री सीटर सोफ़ों पर हम दोनों बैठ गए। थोड़ी देर बाद तिवारी जी ने अपनी नौकरानी को आवाज़ दी और वह हमारे लिए भी चाय बना लाई। चाय काँच के गिलासों में थी। ये गिलास आमतौर पर ढाबे वाले रखते हैं। अचानक वीरसिंह ने अपनी भरी और भारी आवाज़ में तिवारी जी से पूछा, ‘वीरभद्दर आपका कौन था?’ पतली सुनहली कमानी वाले चश्मे से झांकती तिवारी जी की आँखें पल भर को झपकीं और चेहरे पर तनाव दिखा लेकिन वे दुनिया देखे और खेले-खाये आदमी थे। ज़रा भी देरी किए बग़ैर बोले- “मेरा बाप था”। वीर सिंह उठा और उनके पाँव छू लिए। बोला, गुरु मान गए। मैं चंद्रशेखर आज़ाद का भक्त हूँ लेकिन जिस तरह आपने पिता को स्वीकारा है वह सुन कर तो आज़ाद भी उन्हें माफ़ कर देते।
थोड़ी देर बाद पाँच फ़िट की ऊँचाई के खूब सांवले सज्जन अपनी खड़बड़ाती हुई विजय सुपर स्कूटर को चबूतरे पर टिका कर बैठक में घुसे। तिवारी जी और ब्रजेंद्र गुरु बोले, आओ गुरु सलीम! ये सलीम भाई थे और एक उत्पादकता प्रबंधन कॉलेज के पीआरओ। इनकी पत्नी ग्वालियर के एजी ऑफ़िस में थीं और ख़ुद यहाँ कानपुर में। मस्त आदमी थे इसीलिए पत्नी के मारे भी थे। पत्नी इनके पीने की आदत और मस्ती से आजिज़ थीं इसलिए ग्वालियर से भगा दिए जाते। इसके बाद एक और कार आकर रूकी। सूटेड-बूटेड एक सज्जन उतरे। ये मेहता साहब थे और केडीए में बड़े अभियंता रहे थे। उनका ड्राइवर कई डोलची लाया। इन डोलचियों में खाना था। बटर चिकेन भी था और पनीर बटर मसाला भी। एक काली फियेट आकर उसी गली में रूकी और काली शिफ़ॉन की साड़ी तथा स्लीवलेस ब्लाउज पहने एक मोहतरमा उतरीं और तिवारी जी के समीप दूसरे सोफ़े पर बैठ गईं। इनका नाम नाज़नीन था। हिंदी-उर्दू का एक लफ़्ज़ नहीं फर्राटेदार अंग्रेज़ी बोल रही थीं। लेकिन कुछ ही देर बाद सलीम के आग्रह पर जब व्हिस्की आई तो दो-तीन पेग पीने के बाद सलीम फ़ैज़ की नज़्म- ‘हम देखेंगे’ गुनगुनाने लगे तब मोहतरमा ने गायिकी सलीम से छीन ली और उन्होंने जिस अंदाज़ में- ‘जब ताज़ उछाले जाएँगे जब तख़्त गिराये जाएँगे’ गाया तो लगा कि फ़ैज़ होते तो वे भी वाह! वाह! कर उठते।
ग्यारह के क़रीब हम लोग वहाँ से निकले। मेहता साहब के ड्राइवर ने गली में गाड़ी घुमा ली और ले गया। मोहतरमा रुक गईं। ब्रजेंद्र गुरु हमारे साथ चले। उनका घर किदवई नगर में था। यह गली बमुश्किल 20 फ़िट चौड़ी थी। दोनों तरफ़ गाड़ियाँ। वीर सिंह महाराज जिप्सी बैक ही नहीं कर पा रहे थे। तब 60 साल के तिवारी जी उठे और दो मिनट में गाड़ी घुमा के लगा दी। वीर सिंह ड्राइविंग सीट पर जब बैठ गए तब तिवारी जी ने मुझे अलग ले जाकर कहा, अपने दोस्त से कहो, दारू कम पिया करें। एक तो इनको चढ़ती बहुत है, दूसरे ये पेट को टंकी बना लेते हैं। फिर कहा, शंभू शराब पीना एक आर्ट है। जो इस आर्ट को सीख गया वह जीत गया वर्ना शराबी हो गया। मैंने पूछा कि क्या आर्ट है तो बोले, कि जीवन में नियम बनाओ कि दो पेग से अधिक नहीं दूसरे चाहे जैसी पार्टी हो शराब पीने में कभी हड़बड़ी नहीं करनी चाहिए। शराब को जीभ में रखो और स्वाद लो तब उसे गले के नीचे उतारो तथा उस बज़्म में सबके बाद अपना पहला पेग ख़त्म करो। ‘जीने की कला’ के कुछ और उन्होंने टिप्स उन्होंने दिए। मसलन पार्टी में कोई महिला हो तो पहले उसे ऑफ़र करो। वह अगर नहीं पीती हो, तो उससे अनुमति लेकर ही शराब पियो। कभी किसी महिला को ऐसी पार्टियों में अंडर या ओवर इस्टीमेट न करना। तिवारी जी के प्रवचन सुन कर लगा कि मैं भी तिवारी जी के पैर छू लूँ। लेकिन मेरे अंदर जितना जोश रहता है उतना ही होश भी। इसलिए हैंड सेक किया। इसके बाद हम लोग चले। ब्रजेंद्र गुरु को उनके घर उतारा और फिर घर आया।
अगली सुबह तैयार हुए। अम्माँ ने पराठे और आलू-टमाटर की सब्ज़ी बनाई थी। अम्माँ तिकोना पराठा इतना मुलायम बनातीं थीं कि उनके जाने के बाद वैसे पराठे नहीं नसीब हुए। वीर सिंह तो पूरे बीस पराठे खा गए और अम्माँ और बनाने को आतुर। अंत में मैंने ही कहा, उठो भाई वीर सिंह! अब चलना है। अब हमारा गंतव्य था हमीर पुर यानी बुंदेलखंड का प्रवेश द्वार। हम क़रीब 11 बजे निकले। हमीरपुर रोड मेरे घर से डेढ़ किमी थी। वहाँ पहुँचते ही गाड़ी दौड़ा दी गई। रमई पुर, बिधनू, कठारा, पतारा, घाटमपुर, तिकवाँपुर होते हुए हम कानपुर से 65 किमी दूर हमीरपुर शहर में तीन बजे दाखिल हुए। वहाँ यमुना पुल पार करते ही झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की आदमक़द प्रतिमा लगी है। वीर सिंह ने जिप्सी रोकी। प्रतिमा की परिक्रमा की, नमन किया। तब हम चल पड़े सर्किट हाउस की तरफ़ जहां हमें रुकना था।
(जारी)
© शंभूनाथ शुक्ल
कोस कोस का पानी (5)
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