जो कभी नहीं बीतता है और लगातार हमारे साथ साये की तरह चलता रहता है उसको इतिहास कहते हैं।इतिहास एकदम तटस्थ होता है न किसी के प्रति निर्दयी और न किसी पर मेहरबान होता है। इतिहास व्यक्तियों को नहीं व्यक्तियों की परछाई को नापता है। जब व्यक्ति की परछाई बहुत बड़ी हो जाती है तो वह व्यक्ति इतिहास के उस कालखंड को लांघकर हमारे वर्तमान से जुड़ जाता है। लेकिन दुर्भाग्य से जिनका इतिहास नहीं होता वे किसी के कंधे का इस्तेमाल करके अपनी परछाई को बड़ी करने की कोशिश करते रहते हैं लेकिन इतिहास उन्हें जगह नहीं देता है।
इतिहास अपने बड़े पात्रों को सहेजता है और उन्हें वर्तमान की ओर ढकेल देता है। महात्मा गांधी और भगतसिंह दोनों बड़े पात्रों को इतिहास ने हमारे सम्मुख धकेल दिया है । दुर्भाग्य से हम छोटे लोग इतिहास के इन बड़े पात्रों के बारे में कुछ नहीं जानते। पाकिस्तान के लाहौर की सेंट्रल जेल में आज से 90 साल पहले 23 मार्च 1931 को जो तीन सपूत फांसी के फंदे पर झूले और कुछ देर कुछ देर थरथराने के बाद शांत हो गए। उन तीन बड़े लोगों के बारे में हम छोटे लोग कुछ नहीं जानते। आज अगर ये तीन सपूत बोल सकते तो वे हमसे पूछते कि हम भारत के लिए शहीद हुए या पाकिस्तान के लिए? इस प्रश्न का जवाब किसी के पास नहीं है। आज पाकिस्तान के लाहौर में सेंट्रल जेल का कोई अस्तित्व नहीं वहां एक बड़ा सा कॉम्प्लेक्स बन गया है और चमचमाती सड़कों पर रातदिन गाड़ियां दौड़ती रहती हैं।
इतिहास इन तीन लाशों पर रुका नहीं इतिहास लाहौर से चला और 30 जनवरी 1948 को बिड़ला हाउस दिल्ली पहुंच गया। यहां एक 78 साल के बूढ़े आदमी को जिसे हम राष्ट्रपिता कहते थे , प्रार्थना के समय जाते हुए सामने से आकर एक हट्टाकट्टा आदमी तीन गोलीं मारता है। जिस तरह से वे तीन लाशें फांसी पर लटकते हमने देखीं उसी तरह एक बड़ा आदमी जिसे हम अपना वटवृक्ष कहते थे तीन गोलियां खाकर भर भरा कर गिर गया। उसकी भी लाश थोड़े समय तक थरथराती है और शांत हो जाती है।
जो हरा घाव है उस घाव को भरना सीखो।
जो भरी आंख है उस आंख में उतरना सीखो।
ये अपने या पराए हैं ये बात बहुत छोटी है।
तुम बड़े लोग हो तो बड़ी बात करना भी सीखो।।
आज हम गांधी और भगतसिंह को लड़ाने में इतना व्यस्त हैं कि हम खुद कहाँ खड़े हैं हम खुद किससे लड़ रहे हैं हमें पता ही नहीं। गांधीजी और भगतसिंह दोनों के रास्ते अलग हैं, कार्यक्रम अलग हैं, दोनों के संगठन अलग हैं, दोनों के काम करने के तरीके बिल्कुल अलग हैं। लेकिन फिर भी दोनों में समानता है दोनों के लक्ष्य देश को आजाद कराना है ।
भगतसिंह का एक गम्भीर व्यक्तित्व थे। वे कहते थे कि क्रांति का मतलब केवल बम या पटाखे चलाने से नहीं है, अपितु गंभीर चिंतन और विचार विमर्श से जनता की गोलबंदी करना है। उन्होंने कहा भी था कि वे महात्मा गांधी और उनके अहिंसा के तरीके का इसलिए विरोध कर रहे थे क्योंकि देश वर्तमान में अहिंसा की भाषा समझने लायक नहीं है। इसलिए कि उनको लगता था कि महात्मा गांधी एक अत्यंत असंभव आदर्श प्रस्तुत कर रहे हैं।लेकिन वे गांधीजी के प्रति पूर्ण सम्मान व्यक्त करते हुए कहते हैं कि महात्मा गांधी ने लोक जागरण का जो महान कार्य किया है उंसके लिए उन्हें कोटि कोटि सलाम ।
दूसरी ओर गांधीजी कहते हैं कि मैं भी क्रांतिकारी हूँ लेकिन बंदूख की दम पर हम अंग्रेजों से नहीं जीत सकते। जब हम हिंसा का सहारा लेकर राजनीतिक या सामाजिक परिवर्तन की बात करते हैं तो संघर्ष सिकुड़ जाता है। अंग्रेजों पर बन्दूखें बहुत हैं हम उनसे उस हथियार से लड़ेंगे जिसका उन्हें अभी ज्ञान भी नहीं है।
गांधीजी जानते थे कि क्रांतिकारियों के सशत्र दल गोपनीय होते हैं, जो छिपकर दुश्मन पर घात लगाने की पद्धति पर आधारित होते हैं। ऐसी स्थिति में भारत की गरीब, असहाय जनता इन हिंसक आंदोलनों का खुलकर साथ नहीं दे सकती।
गांधी का मानना था कि कोई भी हिंसात्मक संघर्ष स्वभाव से जनतांत्रिक नहीं होता। इसलिए गांधी जो सिद्धांत गढ़ रहे थे उसमें कोई गोपनीयता नहीं, कोई घात या प्रतिघात नहीं था, उसमें कोई षड़यंत्र की बू नहीं थी, जो कुछ है वह जनता के सामने है। इसलिए गांधी के अहिंसा के व्यापक सिद्धांत में भगतसिंह का विशिष्ट सिद्धांत भी समाहित था।
ऐतिहासिक दस्तावेज कुछ और सत्य से किसे लेना देना है। कौन इतना पढ़ेगा कि दरअसल गांधीजी ने भगतसिंह की फांसी को लेकर कितनी बहस वाइसराय से की। वायसराय गांधीजी को प्रस्ताव देते हैं कि हम करांची कांग्रेस तक फांसी टाल सकते हैं। अंग्रेजों की गांधीजी को घेरने की कूटनीति और गांधीजी की दूरदृष्टि ही थी कि गांधीजी वाइसराय से उलटकर कहते हैं कि 'देखिये या तो आप भगतसिंह की फांसी को हमेशा के लिए रद्द करें और अगर फांसी रद्द नहीं कर सकते तो फिर मुझे कोई घूस न दें। मैं झेलूंगा जो मुझे झेलना है। लेकिन में आप से कोई घूस नहीं चाहता हूँ। फांसी का मुझ पर एक प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा लेकिन मैं उसको झेलने के लिए तैयार हूं लेकिन मैं अंग्रेजों से कोई गुप्त समझौता नहीं कर सकता हूँ। या तो आप फांसी रद्द करो और नहीं तो फिर मेरे लिए बीच का रास्ता मत निकालो।'
24 मार्च 1931 को भगत सिंह को फांसी दिए जाने की अगली सुबह गांधीजी जैसे ही कराची के पास मालीर स्टेशन पर पहुंचते हैं तो लाल कुर्तीधारी नौजवान भारत सभा के युवकों ने काले कपड़े से बने फूलों की माला गांधीजी को भेंट की। गांधीजी विचलित नहीं हुए उन्होंने कहा-
'‘काले कपड़े के वे फूल तीनों देशभक्तों की चिता की राख के प्रतीक थे.’ 26 मार्च को कराची में प्रेस प्रतिनिधियों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा –
‘‘मैं भगत सिंह और उनके साथियों की मौत की सजा में बदलाव नहीं करा सका और इसी कारण नौजवानों ने मेरे प्रति अपने क्रोध का प्रदर्शन किया है बेशक, उन्होंने ‘गांधीवाद का नाश हो’ और ‘गांधी वापस जाओ’ के नारे लगाए और इसे मैं उनके क्रोध का सही प्रदर्शन मानता हूं। मैं यहां अपना बचाव करने के लिए नहीं बैठा हूँ, इसलिए मैंने आपको विस्तार से यह नहीं बताया कि भगत सिंह और उनके साथियों को बचाने के लिए मैंने क्या-क्या किया। मैं वाइसराय को जिस तरह समझा सकता था, उस तरह से मैंने समझाया. समझाने की जितनी शक्ति मुझमें थी, सब मैंने उन पर आजमा देखी।
लेकिन इन सब बातों के बावजूद आज जब भी चर्चा भगत सिंह की शहादत की होती है तो वह अंततः गांधी तक ही जा पहुंचती हो? लेकिन जब हम दोनों शख्शियतों को देखते है तो ऐसी चर्चाएं मात्र 23 साल के युवा भगतसिंह की अद्भुत शहादत का गुमान और एक बूढ़े गांधी द्वारा उन्हें न बचाये जा सकने की शिकायत एक साथ मौजूद रहती है। हम शहीद सपूत को शहीद राष्ट्रपिता से लड़ाकर अपना कद बड़ा करने की कोशिश करते हैं। जरूरत इस बात की है कि हम उस कालखंड में जाकर इन महान शख्सियतों को समझने की कोशिश करें। यही भगतसिंह व गांधी को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
© अवधेश पांडे
#vss
No comments:
Post a Comment