Sunday, 19 September 2021

असग़र वजाहत - पाकिस्तान में ट्रेन का सफ़र (1)

              ( मुल्तान रेलवे स्टेशन )

सन 2011 में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के जन्म शताब्दी समारोह में पाकिस्तान जाना हुआ था। लौटकर मैंने  40 दिन की सघन यात्रा पर एक किताब लिखी थी जो  रवींद्र कालिया ने ज्ञानोदय में छापी थी  और उसे  ज्ञानपीठ ने  किताब की शक्ल में  छापा था।  उस किताब में  'पाकिस्तान में ट्रेन के सफर' का जिक्र भी है। लेकिन लॉकडाउन के दिनों में जब करने को कुछ नहीं है तो सोचा पाकिस्तान में ट्रेन के सफर को फेसबुक के दोस्तों के साथ शेयर कर दिया जाए।
मेरे पाकिस्तान जाने से पहले कई दोस्तों ने पाकिस्तान में दो काम न करने की सलाह दी थी। पहली सलाह  यह थी कि मैं पाकिस्तान में रेल यात्रा न करूं । दूसरी सलाह थी कि मैं कराची के डाउनटाउन इलाके में पैदल घूमने की कोशिश न करूं। शुभचिंतकों और दोस्तों  की सलाह के विपरीत मैंने यह दोनों काम किए।

पाकिस्तान में मेरी ट्रेन यात्रा को केवल मेरा व्यक्तिगत अनुभव माना जाए। इस आधार पर कोई बड़े निष्कर्ष न निकाले जाएं।

मुल्तान (मूल स्थान) का रेलवे स्टेशन एक शाहकार है, एक मास्टरपीस है। उसकी एक दिलचस्प तस्वीर मिली है जो  पार्टीशन से पहले की है। लेकिन तस्वीरों में मुल्तान रेलवेस्टेशन  की भव्यता ठीक से नजर नहीं आती।

स्टेशन पहुंचने पर पता लगा कि, बहाउद्दीन एक्सप्रेस जो मुल्तान  से कराची जाती है चार घंटा लेट है। अपने लोकल गाइड जाफरी साहब के साथ चाय पीते और गप्प मरते चार घंटे बिता दिए। ट्रेन आई। फर्स्ट क्लास कंपार्टमेंट के कूपे में बैठकर यह लगा के पूरा कोच बहुत पुराना है। 
सर्दियों के दिन थे। मैंने जाफरी साहब से पूछा कि क्या यहां बिस्तर वगैरह मिलेगा?  
जाफरी साहब ने कहा, यहां आपको एक रुमाल भी न मिलेगा।
मैंने कहा, तब तो रात में बहुत सर्दी लगेगी ।
जाफरी साहब ने बताया कि जैसे-जैसे ट्रेन कराची की तरफ बढ़ेगी वैसे-वैसे  सर्दी कम होती चली जाएगी...

कुछ देर के बाद जाफरी साहब चले गए और मैं डिब्बे का मुआयना करने लगा। छः बर्थ वाला कूपे  था । सीटों पर जो रक्सीन चढ़ा हुआ था  उस पर जगह जगह  सिलाई  की हुई थी  और  उस पर ER लिखा था। मैंने मतलब लगाया ईस्टर्न रेलवे । लेकिन पाकिस्तान में तो ईस्टर्न रेलवे जैसी कोई चीज  है नहीं। फिर ये क्या है?

डिब्बे की छत पर लाइट के पांच पॉइंट थे लेकिन चार पॉइंट्स से तारों के गुच्छे लटक रहे थे। पांचवें पॉइंट से एक तार लटक रहा था जिसमें एक बल्ब लगा था। स्विच बोर्ड से भी तारों का गुच्छा लटक रहा था। मतलब यह  कि बल्ब जलाने बुझाने या पंखा चलाने के लिए तारों को जोड़ना पड़ता है और जो नहीं जानता किस-किस तार से कौन सा तार जुड़ेगा वह बैठा रहे। खिड़कियों के जो शीशे बंद थे उन्हें खोलना और जिनके खुले थे उन्हें बंद करना मुझे अपने बस की बात नहीं लग रही थी। खिड़की के शीशों से बाहर देखने के लिए काफी कल्पना करना पड़ती थी जो मेरे लिए मुश्किल न था।

कूपे का एक टॉयलेट भी था। मैंने टॉयलेट का दरवाजा खोल कर देखा तो सीट की जगह एक इतना बड़ा 'होल' था कि पूरा आदमी नीचे चला जाय। इतना तय था कि टॉयलेट का इस्तेमाल टॉयलेट के अंदर जाकर नहीं किया जा सकता। हां टॉयलेट का दरवाजा खोल कर टॉयलेट के बाहर खड़े होकर  कुछ कोशिश की जा सकती थी। लेकिन दूसरे यात्रियों की मौजूदगी में ऐसा करना शायद अपराध  माना जाए।  मैं पाकिस्तान में सब कुछ कर सकता था लेकिन अपराध नहीं।

ट्रेन छूटने का नाम नहीं ले रही थी। मैं कूपे में अकेला था। अचानक कूपे के दरवाजे के अंदर आता मानव शरीर का एक ऐसा अंग नजर  आया जो पहले कभी नहीं देखा था। कुछ ही क्षण बाद पता चला कि यह एक भिखारी का कटा और सूजा हुआ  हाथ था जिसे उसने दरवाजे के अंदर डालकर मेरे अंदर भय और दया  का भाव पैदा करने की कोशिश की थी।  कुछ क्षण बाद उसका सिर भी दिखाई दिया। मैंने हाथ जोड़कर उससे माफी मांग ली और वह आगे बढ़ गया। इसके बाद एक - दो भिखारी और आये लेकिन मैंने किसी को कुछ नहीं दिया ।

ट्रेन बेमन से चलने लगी। ट्रेन के चलते ही टॉयलेट से चुड़ियों के चहचहाने जैसी आवाजें आने लगी। यह बात समझ में नहीं आई। क्या टॉयलेट की छत पर चिड़ियों ने अपना घोंसला बना रखा है ? और अगर ऐसा है तो ट्रेन चलने से पहले उनकी आवाज क्यों नहीं सुनाई दी? और फिर लगातार उनके बोलने की आवाज कैसे आ रही है? कुछ जांच करने पर पता चला कि ये चिड़ियों की आवाज नहीं है बल्कि लोहा लोहे से या तार तार से है या लकड़ी लकड़ी से या ये सब एक दूसरे से टकराते हैं तो यह आवाज़ पैदा होती है।

ट्रेन इतनी मंद गति से चली जा रही थी कि कोई भी बड़ी आसानी से चढ़ या उतर सकता था। सोचा, डिब्बे में अकेला हूं। कोई एक आदमी छोटा सा चाकू ले कर भी अगर आ गया तो मुझे अपना फोन और पर्स देना पड़ेगा। इसलिए मुझे लुट जाने के लिए तैयार हो जाना चाहिए। मैंने अपना पर्स खोल कर बड़ी रकम निकाल ली और उसे सामान के थैले में छुपा दिया । यह तय कर पाना थोड़ा मुश्किल था कि पर्स में लुटने के लिए कितनी रकम छोड़ी जाए ।अगर पर्स में लुटेरे को बहुत कम पैसे मिले तो हो सकता है उसे गुस्सा आ  जाए और वह मुझे मारना पीटना शुरू कर दे । इस तरह के किस्से मैंने सुने थे। इसलिए पर्स में पहले मैंने दो सौ छोड़े ....लगा बहुत कम हैं , फिर पांच सौ रखे,  उसके बाद हज़ार रख दिए।  मैंने सोचा  पाकिस्तानी एक हजार रुपया हमारे पांच सौ के बराबर होता है। अगर लुटेरा हजार रुपया ले भी गया तो यह मानकर मुझे कुछ तस्कीन मिलेगी कि वह सिर्फ पांच सौ ले गया है। मोबाइल फोन निकाल कर कुछ जरूरी नंबर एक कागज पर नोट किए। पर्स और  मोबाइल को बिल्कुल अपने बराबर इस तरह रख लिया कि अगर लूटने वाला आए तो उसे बहुत तकलीफ न हो और उसे तकलीफ नहीं होगी तो मुझे भी तकलीफ नहीं होगी।
(जारी रहेगा.....)

असग़र वजाहत 
© Asghar Wajahat
#vss

No comments:

Post a Comment