Tuesday 28 September 2021

शंभूनाथ शुक्ल - कोस कोस का पानी (5) अउर शारिक गुरु?

किसी ने भी यह नहीं पूछा कि अपनी कोस-कोस का पानी सीरीज़ से आपने वीर सिंह और वीडी तिवारी वाला प्रकरण कहाँ गोल कर दिया। शायद इसलिए भी क्योंकि फ़ेसबुक के पाठक सीरियस नहीं होते। उन्हें बस सब कुछ चाहिए फटाफट। इसलिए ऐसे फटाफट पैदाइश वाले पाठकों के लिए क्या लिखा जाए! पहले हम लोग धर्मयुग अथवा साप्ताहिक हिंदुस्तान में किसी धारावाहिक कहानी, उपन्यास को चाव से पढ़ते थे तो अगले हफ़्ते उसके आगे का हिस्सा पढ़ने को बेचैन रहते थे। शिवप्रसाद सिंह का उपन्यास “गली आगे मुड़ती है” को मैंने धर्मयुग में धारावाहिक पढ़ा था। पर आज के लोग फ़िल्मों का सीक्वल तो देखते हैं लेकिन लिखे का नहीं। ख़ैर, मैं वीर सिंह और वीडी तिवारी का क़िस्सा आगे बढ़ाता हूँ। 

मुझे जब बताया गया कि गेट के बाहर अपनी कार में बैठा कोई व्यक्ति मेरा इंतज़ार कर रहा है, तो मैं बाहर आया। वीडी तिवारी ही थे। उन्होंने कहा, शंभू शाम को मैं तुम्हारा इंतज़ार करूँगा और अपने दोस्त को भी ले आना। वीडी तिवारी उर्फ़ छोटे तिवारी आर्य नगर में रहते थे और सिर्फ़ यह बताने वे आठ किमी दूर साकेत नगर मेरे घर आए थे। इतना कह कर वे अपनी 118 NE गाड़ी से फुर्र हो गए। तब फ़ियेट कार कम्पनी ने यह कार लाँच की थी। शोफ़र ड्रिवेन यह कार काफ़ी आरामदेह थी और वातानुकूलित भी। 1990 में इस कार की क़ीमत ढाई लाख के क़रीब थी। 

वीर सिंह ने कहा गंगा जी देखनी है। मैं उन्हें अपने मित्र रागेंद्र स्वरूप उर्फ़ काका भैया के आवास पर ले गया। कानपुर के सिविल लाइंस स्थित उनके बंगले से गंगा का पाट खूब सुंदर दिखता। काका भैया कानपुर में शिक्षा जगत की मशहूर हस्ती और दयानंद शिक्षा संस्थान के सदर बाबू वीरेंद्र स्वरूप के छोटे बेटे थे। बाबू वीरेंद्र स्वरूप स्वयं उत्तर प्रदेश विधान परिषद में सर्वाधिक लंबे समय तक सभापति रहे। मृत्यु के पूर्व उन्होंने अपनी विरासत अपने तीनों बेटों को सौंपी। राजनीतिक विरासत बड़े बेटे जागेंद्र स्वरूप को, कानपुर और देहरादून के शिक्षा संस्थान मंझले बेटे नागेंद्र स्वरूप उर्फ़ अष्टू बाबू को और अचल संपत्ति छोटे बेटे रागेंद्र स्वरूप काका भैया को। इसके बाद हम लोग सिविल लाइंस स्थित स्वतंत्र भारत के दफ़्तर गए। वहाँ पर संपादक अपने जनसत्ता के पुराने साथी श्री सत्यप्रकाश त्रिपाठी थे। सबसे मेल-मुलाक़ात के बाद शाम छह बजे हम सिविल लाइंस से आर्य नगर की तरफ़ चले। 

घर पर वीडी तिवारी के आने की भनक पिता जी को लग गई थी। वे भकुर गए थे। वीरभद्र तिवारी के बेटे का घर आना-जाना उन्हें पसंद नहीं था। इशारे-इशारे में वीर सिंह को भी इसका अंदाज़ हो गया था। जब हम वीडी तिवारी के घर पहुँचे तो पाया कि ब्रजेंद्र गुरु भी वहीं बैठे हैं। ब्रजेंद्र गुरु बैंकिंग यूनियन के राष्ट्रीय नेता थे और बहुगुणा जी के करीबी। वीर सिंह भी उनसे परिचित था। हम दोनों ने ब्रजेंद्र गुरु के पैर छुये पर तिवारी जी से हाथ मिलाया। ऐसा इसलिए कि अपनी वाक्-शैली से प्रभावित करने के बावजूद वीडी तिवारी के प्रति मन में कभी श्रद्धा नहीं उपजी। भले चंद्रशेखर आज़ाद की मुखबिरी में उनके पिता की भूमिका संदिग्ध रही हो लेकिन लोक मानस को बदला नहीं जा सकता। दूसरे वीडी तिवारी एक ऐसे मनुष्य थे, जो मुझसे दोस्ती चाहते थे और हेल्पफुल भी रहते लेकिन उनके दिमाग़ में यह बात सदैव चलती कि शंभू के राजनीतिक सम्बंधों का दोहन कैसे किया जाए। इसलिए दोस्ती के बाद भी बच कर रहना पड़ता था। 

फ़र्राटे से अंग्रेज़ी बोलने में निपुण और योरोपीय रहन-सहन के आदी वीडी तिवारी कानपुर में छोटे तिवारी के नाम से प्रसिद्ध थे। ऐसा क्यों था, पता नहीं। उनके बड़े भाई कानपुर में ही डिप्टी सुपरिटेंडेंट ऑफ़ पुलिस थे। तिवारी जी बताते थे कि उनके पिता ने तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री लाल बहादुर शास्त्री से बेटे की नौकरी के लिए कहा। वे उस वक्त मैट्रिक पास थे। शास्त्री जी ने उन्हें सीधे दरोग़ा बना दिया। जो अब डीएसपी बन चुके थे। हो सकता है कानपुर में लोग उन्हें बड़े तिवारी और इन्हें छोटे तिवारी कहते हों। उनके तीसरे भाई पश्चिमी जर्मनी में सेटल्ड थे। आर्य नगर में वीडी तिवारी किराये के मकान में रहते थे। जिस गली में यह मकान था वह दो मकान बाद बंद हो जाती थी। तिवारी जी का आवास भूतल पर था। आवास तक पहुँचने के लिए सड़क से चार फुट ऊँचा चबूतरा था जिस पर चढ़ने के लिए चार सीढ़ियाँ थीं। चबूतरा लाल रंग का था और सीमेंटेड भी तथा तीन फुट चौड़ा। कुंडी वाले किवाड़ खोल कर तिवारी जी के ड्राइंग रूम में घुसा जा सकता था। क़रीब 15 फुट लम्बे और दस फुट चौड़े बैठके में तीन सोफ़े थे और दो एक सीटर तथा तथा एक तीन सीटर। साढ़े तीन बाई छह का एक तख़्त पड़ा था, जिस पर रुई का गद्दा बिछा था। उसके ऊपर बेल-बूटों वाली एक चद्दर बिछी थी। ब्रजेंद्र गुरु इस तख़्त पर अधलेटे-से थे, उनके पीछे रंगीन टेलीविजन पर वीसीआर के मार्फ़त कोई अंग्रेज़ी फ़िल्म चल रही थी। सामने वन सीटर सोफ़े पर तिवारी जी बैठे थे। एक पाँव ज़मीन पर और एक सोफ़े के ऊपर। वे चार खाने की नीली लुंगी कमर पर लपेटे थे और ऊपर सैंडो बनियायन। मेरे पहुँचते ही दोनों लोग बोले- आव गुरु!

गुरु दरअसल कानपुर में संबोधन का एक तरीक़ा है। यह आपके सरनेम के साथ नहीं बल्कि फ़र्स्ट नेम के साथ लगाया जाता है। जैसे फ़र्ज़ करिए डॉ शारिक़ अहमद ख़ान मिले तो उन्हें कोई डॉक्टर या खान साहब नहीं बोलेगा बल्कि कहेगा- “अउर शारिक गुरु?”
(जारी)

© शंभूनाथ शुक्ल 

कोस कोस का पानी (4)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/09/4_0.html
#vss

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