Wednesday, 8 September 2021

प्रवीण झा - भारतीय पुनर्जागरण का इतिहास - दो (4)

      (चित्र: कादंबरी, ज्योतिरींद्रनाथ, ज्ञानदनंदिनी, सत्येंद्रनाथ (anti-clockwise)

“लोग पूछने लगे थे कि तुम कब आशाओं पर खरे उतरोगे? कब कुछ परिपक्व लिखोगे? अब तक क्या लिखा? यही कुछ गीत, कुछ छिटपुट रचनाएँ, कुछ बुद्धू बनाने की कोशिशें?”

- रवींद्रनाथ (अपने 27 वर्ष की उम्र के संस्मरण में) 

रवींद्रनाथ टैगोर की रचनाओं का अगर एक केंद्र-बिंदु ढूँढा जाए, तो वह है- मुक्ति (फ्रीडम)। इसकी बड़ी वजह शायद यह रही हो कि वह स्वयं मुक्ति तलाश रहे थे। वह टैगोर परिवार की आशाओं के बोझ तले दबे हुए थे। पहली बार मुक्ति तब मिली जब उनके पिता ‘महर्षि’ देवेंद्रनाथ टैगोर उन्हें अपने साथ हिमालय की यात्रा पर ले गए। टैगोर अपने संस्मरण में लिखते हैं कि उन्होंने बचपन में अपने पिता को पहले ढंग से कभी देखा ही नहीं, क्योंकि वह हमेशा यात्रा पर ही रहते थे। उनके भाई भी अपने-अपने कार्यों में व्यस्त थे। वह अपने नौकरों, अपने कुछ ट्यूटरों, और अपनी भाभियों के साथ ही समय बिताते। 

उनकी छोटी भाभी कादंबरी उनसे दो वर्ष छोटी थी, और उनकी कविताओं में रुचि थी। वह पारंपरिक बंगाली मिज़ाज की थी। जबकि, उनकी बड़ी भाभी ज्ञानदनंदिनी (सत्येंद्रनाथ की पत्नी) अंग्रेज़ शौकों वाली अभिजात्य स्त्री था। 

जब सत्रह वर्ष की अवस्था तक रवींद्रनाथ अपने भाइयों की नज़र में कुछ ख़ास नहीं कर सके, तो सत्येंद्रनाथ अपने परिवार के साथ उनको लेकर इंग्लैंड चले गए। वह उन्हें बैरिस्टर बनाना चाहते थे। यह भी उनका मुक्ति-द्वार ही साबित हुआ। उन्होंने पूरे इंग्लैंड की सैर की, मगर दो वर्ष तक बैरिस्टरी का ‘ब’ भी नहीं किया। खूब कविताएँ पढ़ी, और कुछ लिखी।

उन्नीस वर्ष में जब वह लौटे तो ‘संध्या गीत’ की रचना की, जिसे पढ़ कर स्वयं बंकिमचंद्र चटर्जी ने अपने गले से माला उतार कर उन्हें पहना दी। शायद वह अपना भविष्य देख रहे थे। (1896 के कलकत्ता कांग्रेस अधिवेशन में सार्वजनिक रूप से पहली बार ‘वंदे मातरम’ रवींद्रनाथ ने ही गाया)

बाइस वर्ष की अवस्था में रवींद्रनाथ का विवाह एक दस वर्ष की लड़की मृणालिनी (मूल नाम ‘भवतारिणी’) से हुआ। यह भी विडंबना है कि एक ब्रह्म-समाजी सुधारक होने के बावजूद टैगोर परिवार के हर व्यक्ति ने उस समय बाल-विवाह ही किया। इसी के कुछ महीनों बाद उनकी भाभी कादंबरी ने जहर खा लिया।

यह बात कोई नहीं जानता कि यह उन्होंने क्यों किया। रवींद्रनाथ से प्रेम फ़िल्मी पटकथाओं के लिए ठीक है, लेकिन इसके अन्य मूलभूत कारण भी संभव हैं। कादंबरी उस परिवार के रस्म-ओ-रिवाज में घुटन महसूस करती हों, अकेलापन महसूस करती हों? कहा जाता है कि उनके पति ज्योतिरींद्रनाथ अक्सर विनोदिनी दासी (एक वेश्या परिवार की अभिनेत्री) के साथ समय गुजारते थे। कादंबरी की मृत्यु के बाद ज्योतिरींद्रनाथ ग्लानि-बोध में सदा के लिए राँची के एक पहाड़ पर एकांतवास में चले गए, जो अब ‘टैगोर हिल’ कहलाता है।

सुमित्रानंदन पंत की कविता है- ‘वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान’। कादंबरी की आत्महत्या ने रवींद्रनाथ की रचनाओं को नयी मोड़ दे दी। वह भिन्न-भिन्न रूपों में उनके समक्ष आने लगी। सबसे स्पष्ट चित्रण देखें तो ‘नष्टनीर’ (टूटा हुआ घोंसला) की चारूलता जो अपने कर्मयोगी व्यस्त पति के समक्ष स्वयं को घर में अकेला पाती हैं, और अपने एक देवर से निकट होती जाती है। बाद में सत्यजीत रे ने इस कथा पर फ़िल्म ‘चारुलता’ बनायी। कोंकना सेन अभिनीत फ़िल्म ‘कादंबरी’ (2015) भी इसी घटनाक्रम पर आधारित है। 

रवींद्रनाथ कलकत्ता छोड़ कर अपने पिता की ज़मींदारी सँभालने सपत्नीक सेलीदह (अब बांग्लादेश में) चले गए। वहीं गाँव में रह कर उन्होंने सबसे अधिक कथाएँ लिखी। जैसे गाँव के डाकिए से बात करते हुए लिखी- ‘पोस्टमास्टर’। बाउल गीत सुनते हुए गीत लिखा- ‘आमार सोनार बांग्ला’ (जो बाद में बांग्लादेश का राष्ट्रगान बना)।

1902 में रवींद्रनाथ और उनकी पत्नी मृणालिनी ने मिल कर शांतिनिकेतन नामक आश्रम स्थापित किया। इसी दौरान किसी रोग से मृणालिनी की असमय मृत्यु हो गयी। रवींद्रनाथ पुन: वियोगी हुए। उसी वर्ष स्वामी विवेकानंद की भी मृत्यु हुई। दो वर्ष बाद गिरिडीह (अब झारखंड) में एक कीर्तन सुनते हुए टैगोर ने लिखा, 

‘जदि तोर डाक सूने केयो ना आशे, तोबे एकला चलो रे!’ (जब तुम्हारी आवाज़ सुनने वाला कोई न हो, तब अकेले चलो रे) 
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

भारतीय पुनर्जागरण का इतिहास - दो (3)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/09/3.html
#vss 

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