बचपन से अब तक मानता आया था कि संस्कृत ही सभी भारतीय भाषाओं की जननी है और वह सामान्य नहीं, बल्कि देवभाषा है। लेकिन तीन महीने से पालि भाषा सीख रहा हूं तो जाना कि वह तो पालि से ठोंक-पीटकर गढ़ी गई भाषा है। खुद देख लीजिए। अहं गच्छामि, सो गच्छति, त्वं गच्छसि, मयं गच्छाम – ये सभी पालि के वाक्य हैं। संस्कृत में सो को सः और मयं को वयं कर दिया गया, बस! कुछ दिन पहले एक मित्र को मैंने बताया कि संस्कृत तो पालि से निकली है तो उन्होंने कहा कि ‘बुद्धं शरणम् गच्छामि, धम्मं शरणम् गच्छामि, संघम् शरणम् गच्छामि’ तो संस्कृत वाक्य हैं। लेकिन पालि सीखने के दौरान मैंने पाया कि ये शुद्ध रूप से पालि के वाक्य हैं।
दरअसल पालि उत्तर भारत और विशेष रूप से मगध जनपद की प्राचीन प्राकृत है। इसे मागधी भी कहते हैं, बल्कि कहा जाए तो यह मूलतः मागधी प्राकृत ही है। गौतम बुद्ध छह साल साधना करने के बाद वापस लौटे तो अनुभव से हासिल अपना ज्ञान घर-घर पहुंचाना चाहते थे। तब आम लोगों में लोकभाषा और खास लोगों में वेदों की छान्दस भाषा चलती थी। बुद्ध ने वैदिक छान्दस को न अपनाकर लोकभाषा का ही सहारा लिया। जहां उन्होंने अपने उपदेशों का छान्दस में अनुवाद करने से मना किया, वहीं दूसरी ओर “अनुजानामि भिक्खवे, सकाय निरुत्तिया” कहकर सभी प्राकृत भाषाओं में अपने उपदेशों को पेश करने की खुली अनुमति दे दी।
बाद में चूंकि सारी बुद्धवाणी मागधी प्राकृत में पालकर रखी गई (पहले कंठस्थ करके और फिर लिपिबद्ध करके) तो मागधी के इस अंश को पालि कहा जाने लगा। बुद्ध ने 45 साल तक मगध से लेकर गांधार तक इसी भाषा में लोगों के बीच अपनी बात रखी तो यह भाषा समूचे इलाके में प्रचलित हो गई। उसके शब्द अन्य प्राकृत भाषाओं में शामिल होते गए। मसलन पालि में मां के लिए बोला गया अम्मा शब्द अवधी बोलनेवाले हम लोगों के लिए बड़ा सहज है। पालि का पाहुन शब्द आज भी भोजपुरी में अतिथि के लिए इस्तेमाल होता है।
तब के भारतीय समाज में बुद्ध की बातों का इतना असर था तो भारत के पहले राजद्रोही ब्राह्मण पुष्यमित्र शुंग के दरबारी पाणिनि को इसकी काट के लिए पालि का ही सहारा लेना पड़ा, लेकिन उसे संस्कृत बनाकर। कहा जाता है कि कालिदास के नाटकों में जहां संभ्रांत चरित्र संस्कृत बोलते हैं, वहीं महिला व आम लोगों के पात्र पालि बोलते हैं। लेकिन यह भी दरअसल एक तरह का भ्रम है क्योंकि संस्कृत तो मूलतः पालि ही है और पालि की मूल भाषा मागधी है। हालांकि संस्कृत के पाणिनि व्याकरण में जहां लगभग 4000 सूत्र है, वहीं पालि के सबसे बड़े व्याकरण – मोग्गल्लान व्याकरण में सूत्रों की संख्या 800 के आसपास है। बनावट वाली चीज़ में ज्यादा तामझाम तो जोड़ना ही पड़ता है।
इस समय देश में जितने राज्य हैं, हर राज्य में जितने जिले हैं, उन जिलों में जितने शहर व तहसीलें हैं, इनकी संख्या से भी ज्यादा सस्कृत की पाठशालाएं हैं। मूल पालि के गिने-चुने पुछत्तर हैं। देश ही नहीं, विदेश तक के 99.99 प्रतिशत आम व खास लोग संस्कृत को सारी भारतीय भाषाओं की जननी मानते हैं। मैक्समुलर जैसे विदेशी विद्वान तो इसे आर्य परिवार की भाषा मानते हैं और इसका रिश्ता लैटिन तक से जोड़ते हैं।
21वीं सदी में अब हमें इस झूठ से मुक्त हो जाना चाहिए। तभी हम भारतीय जनमानस पर सदियों से लादे गए झूठ के पहाड़ को तिनका-तिनका काट सकते हैं। नकल को छोड़ हमें असल को अपनाना होगा। भारत के प्राचीन इतिहास को जानने के लिए संस्कृत के बजाय पालि को मूलाधार बनाना होगा, तभी हम अतीत की हकीकत जान पाएंगे।
अनिल सिंह (Anil Singh) के इस लेख पर Rakesh Mishra Kumar Mishra Kumar जी की यह टिप्पणी भी पढ़े।
"नहीं । इस बेबुनियाद थ्योरी को कुछ दलित आग्रह वाले विमर्श कारों ने गति दी है। सैंधव नगरों के पतन के बाद सैंधव सभ्यता के बाशिंदे ज़्यादातर दक्षिण और कुछ उत्तर भारत में फैल गए ।उनकी भाषा ठीक ठीक क्या थी ,यह ज्ञात नहीं है ।संभवत:इस भाषा की झलक दक्षिण की द्रविण तथा बलूचिस्तान के कुछ इलाक़ों की ब्राहुई भाषा में मिलती है ।आर्य कबीलों के सप्त सिंधु से गंगा घाटी में फैल जाने के क्रम में उनकी वैदिक संस्कृत के साथ सैंधवों की भाषा का इस तरह समागम हो गया कि अब यह पहचानना मुश्किल है कि वैदिक - लौकिक संस्कृत में कितना और कौन सा हिस्सा सैंधव भाषा है । पाणिनि का काल चौथी सदी ई पू है और वे महानन्द के समकालीन थे न कि पुष्य मित्र के शुंग के ।पुष्य मित्र शुंग की समकालीनता पतंजलि के साथ है न कि पाणिनि के साथ ।पाणिनि ने ही वैदिक संस्कृत को व्याकरण से सुसंस्कृत किया जिससे लौकिक संस्कृत निकली और आगे की सदियों में पुष्पित पल्लवित हुई । पालि -प्राकृत लौकिक संस्कृत की उसी तरह जन भाषा है जैसे कि आज की मैथिली , भोजपुरी ,ब्रज आदि ।बुद्ध का उद्देश्य था अपना उपदेश आम जन तक पहुँचाना ।इसी लिए अपने परिभ्रमण क्षेत्र की प्रचलित जन भाषा पालि का प्रयोग किया ।वैदिक -लौकिक संस्कृत धीरे धीरे ब्राह्मणों, क्षत्रियों के सत्तावर्ग में बदलते जाने के साथ साथ आभिजात्यों की भाषा बन गई ।इसी लिए संस्कृत भाषा के नाटकों में स्त्रियाँ और निम्न वर्गीय जन संस्कृत की जगह लोक भाषा प्राकृत का उपयोग करते हैं ।"
● इसी मूल लेख पर Bibhas Kumar Srivastav जी की यह टिप्पणी भी प्रस्तुत है।
"आप को पं॰ काशीराम शर्मा की लिखी किताब ‘द्रविड़ परिवार की भाषा हिन्दी’ और ‘हिन्दी तॊल्काप्पियम्’ भी पढ़नी चाहिए। इस विषय पर राकेश मिश्रा कुमार सर से मेरी बात होती रहती है। काशीराम शर्मा केन्द्रीय अनुवाद निदेशालय के डायरेक्टर के पद से रिटायर हुए थे। 17 अक्टूबर 2015 को इस दुनिया से विदा लिए। उनके मतानुसार संस्कृत कभी भी वर्तमान पाकिस्तान और कश्मीर से आगे नहीं बढ़ पाई। बाक़ी आज के पूरे हिन्दुस्तान में प्राकृत ही बोली गई। इसका एक सर्वेक्षण मार्कण्डेय सन् 1556 में प्राकृत सर्वस्वम् नाम से प्रस्तुत कर चुके हैं। इसमें भारत में बोली जाने वाली प्राकृत भाषाओं का आठ वर्गों में बाँट कर सर्वे किया गया है। यह किताब मेरे पास है। एक प्रमाण कि संस्कृत इस भू-भाग में कभी नहीं बोली गई, यह है कि भारत के किसी गाँव और शहर का नाम संस्कृत में नहीं है, उर्दू-फ़ारसी-अरबी में भले हो। दूसरा प्रमाण है कि संस्कृत को रट्टा मारकर भी कोई नहीं सीख पाया। मज़े की बात यह है कि हिन्दी का रट्टा शब्द ही तमिऴ के रॆट्टु से बना है। ओढ़ना तमिऴ के ओडु से बना है। पूरे वर्तमान भारत में, कश्मीर को छोड़कर कहीं भी कभी भी संस्कृत बोली नहीं गई।"
● अब Arun Verma जी की इस टिप्पणी को भी पढिये।
" संस्कृत से सभी भाषाओं का जन्म हुआ है ये विचार ब्राह्मणवादी और नागपुरी (संघ समर्थित) है। तीनों पोस्ट में अलग-अलग तथ्य हैं, राकेश मिश्रा जी सैंधव भाषा आज तक पढ़ी नहीं जा सकी है। प्राकृतों (पालि) से ही संस्कृत का विकास हुआ है। चाहे वैदिक संस्कृत हो या लौकिक। लौकिक संस्कृत का ही व्याकरण पाणिनि ने तैयार किया जैसा कि वैदिक का निघंटु,निरुक्त और सायण ने। संस्कृत किसी भी युग में जनभाषा/आम बोलचाल की भाषा नहीं रही,चाहे संस्कृतज्ञ कितना भी आग्रह कर लें। प्राकृतों से ही संस्कृत पनपी। संस्कृति मनीषी और इतिहासकार डॉ भगवतशरण उपाध्याय ने भारतीय समाज का ऐतिहासिक विश्लेषण पुस्तक में " संस्कृत के विरुद्ध प्राकृतों का संघर्ष " निबंध में विस्तार से लिखा है। बुद्ध ने ही सबसे पहले जनभाषा प्राकृत(पालि) में अपने उपदेश,संदेश दिए।द्रविड़ो की तमिल कई लिहाज से संस्कृत से भी पुरानी है।
प्राकृतों/पालि वाली थ्योरी दलित चिंतन की खोज नहीं अपितु वामपंथी इतिहासकारों (राहुल सांकृत्यायन, डी डी कोसांबी, डॉ भगवतशरण उपाध्याय, डॉ देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय, डॉ रामशरण शर्मा,डी एन झा) की शोध और मान्यता है। दुनिया की सबसे पुरानी किताब ऋग्वेद नहीं अपितु सुमेरियन महाकाव्य गिल्गमेश है जिसमें महाजलप्रलय की गाथा मिट्टी की बत्तीस ईंटों में उकेरी गई है और जो लंदन के ब्रिटिश म्यूजियम में सुरक्षित हैं।जलप्रलय की कथा भारत में सबसे पहले शतपथ ब्राह्मण में मिलती है।
संस्कृत से जुड़े सारे मिथक उसदिन धराशायी हो जाएंगे जिसदिन सैंधव भाषा पढ़ ली जाएगी। हड़प्पा सभ्यता से जुड़ी राखीगढ़ी की खोजें भी फिर से आर्यों के भारत से बाहर से आने का संकेत दे रहीं हैं।"
#vss
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