“क्या गुरु अंग्रेज़ी समझते हैं?”
“क्या महात्मा संस्कृत समझते हैं?”
(जब महात्मा गांधी नारायण गुरु से मिलने गए)
दलितों को समाज में उचित स्थान दिलाने के भिन्न-भिन्न प्रयास होते रहे हैं। इनमें कौन सा मार्ग उपयुक्त है, यह कहना कठिन है। दक्षिण भारत में जातिवाद अपने अति-विकृत रूप में था। उत्तर भारत को भी इस आरोप से मुक्त नहीं किया जा सकता, लेकिन उत्तर भारत में मुसलमान शासकों के लंबे साम्राज्य के कारण समाज में कुछ अंतर था।
बीसवीं सदी तक भी दक्षिण के अनेक मंदिरों में निचली जातियों का प्रवेश वर्जित था। गाँव के कुओं से पानी भरने की इजाज़त नहीं थी। निचली जाति की महिलाओं को गहने पहनने पर पाबंदी थी और कुछ क्षेत्रों में वह खुली छाती ही रहती थी। जाति के हिसाब से यह भी नियम थे कि किस जाति के लोग कितनी दूरी बना कर रखेंगे। कुछ उच्च शूद्र जातियाँ भी निचली शूद्र जातियों से भेदभाव करती थी। अछूत तो थे ही, एक ऐसी भी जाति थी जिन्हें देखना वर्जित था। वे जब गुजरते थे तो उन्हें चिल्लाते हुए आना पड़ता कि ‘हम अमुक जाति के लोग आ रहे हैं’, और लोग अपनी आँखें या द्वार बंद कर लेते।
निचली जातियों के पास दो विकल्प थे। एक तो इस व्यवस्था में जीएँ, या अपना धर्म परिवर्तित कर ईसाई या मुसलमान बन जाएँ। उन धर्मों को छूआ-छूत से कुछ रियायत थी, हालाँकि धर्मांतरित शूद्रों को यह रियायत नहीं मिल पाती। फिर भी, क्या केरल या तमिलनाडु के सभी शूद्रों ने अपना धर्म बदल लिया? आज भी वहाँ बहुजन समाज तो हिन्दू ही है। ऐसा क्यों?
नारायण गुरु पर चर्चा इसलिए ज़रूरी है, क्योंकि उनका चुना गया रास्ता ही एक बड़ी वजह है कि धर्मांतरण रुक गया। उन्होंने धर्म का सहारा लेकर सुधार किये। अन्य सुधारकों जैसे रामास्वामी नायकर का आक्रामक मार्ग नहीं चुना, जो लड़ कर अधिकार लेने के समर्थन में थे, जिससे द्वंद्व बढ़ रहे थे।
1888 में एक शिवरात्रि की रात नारायणगुरु ने नय्यर नदी के तल से एक पत्थर टटोला, और एक शिवलिंग की स्थापना कर दी। तीन घंटे तक ‘ओम नम: शिवाय’ का जाप होता रहा। उनके निचली ‘एझवा’ जाति से होने के कारण ब्राह्मणों ने इस मंदिर पर प्रश्न उठाए। नारायणगुरु ने सौम्य स्वर में बस इतना कहा, “यह एझवा शिव हैं, जिन्हें मैंने स्थापित किया है”।
नारायणगुरु धारा-प्रवाह संस्कृत में वार्तालाप करते। उनका मानना था कि यह भाषा या हमारे ईश्वर किसी एक जन्मगत निर्धारित जाति के अधिकार में नहीं, बल्कि कर्मों से ही तय हो। उन्होंने बाद में इस विश्व में ‘एक जाति, एक धर्म, एक ईश्वर’ की बात कही।
उनके हल हिंसक न होकर सहज होते थे। जब उनके अनुयायियों को विद्यालय में प्रवेश से मना किया गया, तो उन्होंने कहा कि अपना विद्यालय बना लो। यही देवस्थलों को लेकर भी उनकी मान्यता थी कि अधिक से अधिक ऐसे मंदिर बनें जहाँ जातीय बाधाएँ न हो।
मूर्ति-पूजा का विरोध भी उन्होंने मूर्ति तोड़ कर नहीं किया, बल्कि इसके ठीक विपरीत शिवलिंग स्थापित कर किया। इसी तरह वह एक दर्पण, एक दीप की स्थापना कर कहते कि इनमें भी ईश्वर है। यह सोने के गहनों से लदे ईश्वरों से भिन्न धारणा थी। वहाँ दान-पेटियाँ न जमा कर, ईश्वर में ध्यान लगाने पर बल दिया जाता।
अरिवुप्पम के उनके द्वारा स्थापित मंदिर पर मलयालम में अंकित है,
‘जाति भेदम मत द्वेषम
एतम इल्लथे सर्वरम्
सोदारत्वेणा वझुण्णा
मात्रका स्थानम अनेतु’
(जाति और मत/धर्म से परे यहाँ सभी बंधुओं की तरह रहते हैं)
जब रवींद्रनाथ टैगोर उनसे मिलने आए तो उन्होंने कहा, “मैं दुनिया भर में घूम कर तमाम संतों और विचारकों से मिलता रहा हूँ, लेकिन नारायण गुरु जैसा आध्यात्मिक व्यक्ति मुझे कहीं नहीं मिला ।”
यह अब कई विचारक मानते हैं कि हिंदू धर्म के सुधारकों में सबसे तार्किक व्यक्ति जिन्होंने समाज के विभाजन का नहीं, बल्कि एकता का मार्ग चुना, वह नारायण गुरु थे। यह और बात है कि गांधी और अंबेदकर की पहचान अखिल भारत में अधिक है।
जब गांधी ने नारायणगुरु से पूछा, “क्या गुरु यह मानते हैं कि धर्मांतरण ही निचली जातियों की मुक्ति का मार्ग है?”
गुरु ने कहा, “नहीं। हिन्दू धर्म में आध्यात्मिक मुक्ति (मोक्ष) के स्पष्ट मार्ग वर्णित हैं। यह और बात है कि अब लोग भौतिक मुक्ति (फ्रीडम) भी चाहते हैं।”
गांधी ने पुन: पूछा, “तो क्या हिन्दू धर्म में उसका मार्ग नहीं?”
गुरु ने कहा, “हिन्दू धर्म में ही सभी मार्ग हैं। इसलिए किसी और धर्म में परिवर्तन करना हल नहीं”
उनकी समझ जाति-समस्या को लेकर अधिक परिपक्व, समावेशी और प्रायोगिक थी। यह अंतर और स्पष्ट दिखता है, जब हम उनके पड़ोस के आक्रामक सुधारक पेरियार की बात करते हैं।
(क्रमश:)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
भारतीय पुनर्जागरण का इतिहास - दो (5)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/09/5.html
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