“मुझे तुम्हारे निष्कर्षों के सत्य या असत्य होने में रुचि नहीं है। मेरे लिए यह महत्वपूर्ण है कि तुम निष्कर्ष तक पहुँचे कैसे। अगर निष्कर्ष सिद्ध न किया जा सके, तो गणित में उसका कोई महत्व नहीं।”
- गॉडफ्रे हार्डी अपने शिष्य श्रीनिवास रामानुजन से
पश्चिम और पूरब में द्वंद्व-द्वेष और श्रेष्ठता का दावा अपनी जगह है, लेकिन वे एक दूसरे के पूरक भी हैं। यह गौरव-गाथा ठीक है कि भास्कराचार्य महान गणितज्ञ थे, लेकिन अगर आज हज़ार वर्ष बाद और कहीं अधिक सुविधाओं के साथ भारतीय उनसे बेहतर मौलिक सिद्धांत नहीं दे पा रहे, तो इसकी चिंता होनी चाहिए। पश्चिम तो अपने क्षेत्र के किसी भी प्राचीन वैज्ञानिक (आर्किमीडीज, कोपरनिकस, गैलिलियो आदि) से कहीं आगे सिद्धांत रच चुका है। यह आवश्यक है कि इतिहास पर गर्व से अधिक उसका गहन अध्ययन, मीमांसा और उसका खंडन भी किया जाए। नए सिद्धांत पुराने सिद्धांतों को ब्रह्म-सत्य मान कर नहीं रचे जा सकते।
श्रीनिवास रामानुजन इस दिशा में स्पष्ट उदाहरण हैं जब पश्चिम और पूर्व द्वारा विज्ञान के देखने के तरीकों, का मिलन हुआ। रामानुजम उन जादुई दंतकथाओं वाले किरदारों में हैं, जिन्हें स्वप्न में देवी-देवता गणित के फॉर्मूला दे जाते। अगर यह सत्य भी है, तो मुझे इस तर्क में कोई रुचि नहीं। मुझे उनके पूरे ग्राफ़ को समझने में रुचि है जो स्वप्न से यथार्थ तक ले जाती है।
वह कुंबकोणम में एक साधारण प्राथमिक शिक्षा लेने वाले एक बाल-प्रतिभा थे, जिन्हें अंकगणित में रुचि थी। इसके फ़िल्मीकरण में कुछ यूँ दिखाते हैं कि एक शिखाधारी ब्राह्मण बालक मंदिर प्रांगण में, जमीन पर एक खड़ी हाथ में लेकर फॉर्मूले हल कर रहा है। यथार्थ में यह वर्णित है कि उन्होंने त्रिकोणमिति की एस. एल. लोनी की वह मानक पुस्तक बचपन में हल की थी, जो हमारी पीढ़ी ने भी पढ़ी है। इसी तरह उन्होंने गणित की जी. एस. कार की किताब भी हल की।
रामानुजम अंग्रेज़ी किताबों से ही गणित पढ़ रहे थे, लेकिन एक समानांतर सोच उनके माँ द्वारा दिए गए पौराणिक ज्ञान और अद्वैत सिद्धांत से भी थी। इस विषय में कैम्ब्रिज में उनके साथ पढ़ रहे एक अन्य भारतीय गणितज्ञ पी. सी. महालानोबिस लिखते हैं,
“हम अक्सर सुबह साथ टहलने जाते। रामानुजम शून्य और अनंत (इनफिनिटी), दोनों को अद्वैत सिद्धांत से जोड़ता था। उसकी यह बात मुझे रोचक तो लगती थी, लेकिन मैं कभी यह नहीं समझ पाया कि इसका गणितीय प्रयोग क्या है। मुझे यही आभास हुआ कि उसकी रुचि गणित से अधिक दर्शन में थी।”
रामानुजम मद्रास के कॉलेज में ग्रैजुएट नहीं हो सके, क्योंकि गणित के अतिरिक्त अन्य विषयों में वह कमजोर थे। उनके पास मोटे नोटबुक हुआ करते, जिसमें वह गणित के हल लिखा करते थे। वही उनकी संपत्ति थी। उन्हीं दिनों एक डिप्टी कलक्टर वी. रामास्वामी अय्यर ने ‘इंडियन मैथमेटिकल सोसाइटी’ की स्थापना की, जहाँ उन्होंने रामानुजन को बतौर मुंशी रख लिया। उसी संस्था द्वारा प्रकाशित पत्रिका में रामानुजन ने गणित के पत्र लिखने शुरू किए।
छब्बीस वर्ष की अवस्था में रामानुजन ने एक नौ पन्नों की चिट्ठी गणितज्ञ गॉडफ्रे हार्डी को लिखी। हार्डी ने जब उन सिद्धांतों को पढ़ा, तो उनमें से कुछ ग़लत थे, कुछ पहले ही छप चुके थे, कुछ से वह प्रभावित हुए। लेकिन, उन सिद्धांतों के प्रूफ़ सम्मिलित नहीं थे। उन्हें लगा कि यह जो भी विद्यार्थी है, उसे गणित की मानक शिक्षा लेनी चाहिए और अपने हलों को व्यवस्थित रूप से सिद्ध करना चाहिए।
अगले वर्ष रामानुजन को कैम्ब्रिज बुलाया गया, और हार्डी उनके सिद्धांतों को दिशा देने लगे। रामानुजन की इच्छा थी कि उसे प्रकाशित कर दिया जाए, क्योंकि वह कॉलेज में समय व्यर्थ नहीं करना चाहते। मगर हार्डी ने उन्हें समझाया कि यूँ गणित के हल नहीं छपते, उसे जाँच कर, सिद्ध कर, और आपत्तियों को निपटा कर ही छापा जा सकता है। वहीं रामानुजन अपने सिद्धांतों को दैविक मानते थे। धीरे-धीरे हार्डी ने उन्हें विद्यार्थियों के मार्ग पर लाया, और रामानुजन ग्रैजुएट हुए, फेलो बने, और व्यवस्थित रूप से छपने लगे।
हार्डी और रामानुजन का मिलन पश्चिम और पूर्व का मिलन तो था ही, यह एक नास्तिक का आस्तिक से मिलन भी था। कैम्ब्रिज में ही रामानुजन बुरी तरह बीमार हुए, भारत लौटे और मात्र 33 वर्ष की अवस्था में चल बसे। इंग्लैंड के अस्पताल में जब खून की उल्टियाँ करते रामानुजन से मिलने हार्डी पहुँचे तो रामानुजन ने कहा, “मेरे लिए समीकरणों का कोई महत्व नहीं, अगर उसमें ईश्वर न दिखे”
हार्डी ने कहा, “तुम जानते हो मैं नास्तिक व्यक्ति हूँ। लेकिन आज मैं तुम्हारी बात मान लेता हूँ कि ईश्वर ने तुम्हारे मन में सिद्धांत दिए। मुझे खुशी है कि तुमने उनका प्रतिपादन कर मनुष्य का कर्तव्य निभाया।”
(क्रमशः)
प्रवीण झा
© Praveen Jha
भारतीय पुनर्जागरण का इतिहास - दो (7)
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