इटावा से हम दोपहर भोजन के बाद निकले कानपुर के लिए। तब दिल्ली से इस राजमार्ग को मुग़ल रोड कहते थे और यह टू-लेन था। यह राजमार्ग फ़रीदाबाद, पलवल, कोसी, मथुरा, फ़रह, आगरा, एत्मादपुर, टूंडला, फ़िरोज़ाबाद, शिकोहाबाद, जसवंत नगर, इटावा, बकेवर, अजीतमल, औरय्या, सिकंदरा, भोगनीपुर, मूसा नगर, घाटमपुर, जहानाबाद, बिंदकी होते हुए बिंदकी रोड पर जीटी रोड में मिल जाता था। इसके बाद जीटी रोड से फ़तेहपुर, इलाहाबाद, वाराणसी से कलकत्ता तक का सीधा रूट था। चूँकि हमने आगरा से वाया बाह-ऊदी इटावा का रूट लिया था इसलिए मुग़ल रोड से हम हट गए थे। किंतु जब इटावा से निकले तब फिर वही रूट लिया। इस रूट पर कानपुर नहीं पड़ता था। अब दो रास्ते थे, या तो हम सिकंदरा से लिंक रोड पकड़ कर वाया रसधान, काँधी, मुंगीसापुर, अकबरपुर होते हुए बारां जोड़ पर कालपी रोड पकड़ें या भोगनीपुर पहुँच कर वहाँ पर चौराहे से कालपी रोड पर लेफ़्ट मुड़ जाएँ।
वीर सिंह ने कहा, जिधर को यमुना के बीहड़ हों उस रूट से चलें। हमने भोगनीपुर रूट पकड़ा। पहले सिकंदरा रुके और उसे वहाँ गिरि-गुसाईं लड़ाकों की गढ़ी दिखाई। फिर राजपुर और शाहजहाँपुर। इसके बाद भोगनीपुर पहुँचे। यहाँ मैंने उसे 1857 की कोतवाली और तब की तहसील दिखाई और बताया कि अगर हम यहाँ से दाएँ मुड़ जाएँ तो 25 किमी पर कालपी है। वहाँ से बुंदेलखंड शुरू होता है। लेकिन पहले कानपुर चलते हैं और हम लेफ़्ट मुड़ गए। एक किमी पर पुखरायाँ क़स्बा है। यह एक प्रमुख तहसील है। 1857 के बाद अंग्रेजों ने भोगनीपुर से तहसील हटा कर यहाँ शिफ़्ट कर दी थी और कोतवाली भी। यहाँ वीर सिंह ने अपना पसंदीदा ब्रांड ख़रीदा और जिप्सी में ही गिलास व पानी लेकर चालू हो गए। अब रात घिर आई थी। थोड़ी देर बाद वे बोले- “पंडत जी, गाड़ी मुझसे चल नहीं रही है”। अब मेरे तो होश उड़ गए। अभी कानपुर 60 किमी है और कालपी रोड बहुत चलता हुआ रोड है। सामने से ट्रकों, बसों और कारों का रेला और तब सड़क टू-लेन ही थी। उस समय तक मैं गाड़ी चला नहीं पाता था। लेकिन पूरी यात्रा में मैंने स्टीयरिंग पकड़ना और गेयर लगाना तथा क्लच और ब्रेक पर पाँव रखना सीख लिया था। वे जिस तरह गाड़ी चला रहे थे उससे लगता था कि ये गाड़ी भेड़ देंगे। यह क्षेत्र भी सुरक्षित नहीं था। फिर भी मैंने कुछ दूर बाद गाड़ी किनारे लगवाई और कहा, मेरी सीट पर आकर सो जाओ। अब धीरे-धीरे मैंने गाड़ी चलानी शुरू की। चूँकि दिल्ली में दुपहिया चलाई थी इसलिए रोड सेंस तो था ही। मैं क़रीब 35 किमी गाड़ी चला कर रनिया तक ले आया। इसमें तीन घंटे लगे। तब वीर सिंह उठे। गाड़ी फिर उन्होंने ली और देखते-देखते हम रायपुर, भौंती, पनकी होते हुए गंदे नाले चौराहे आ गए। यहाँ से दाएँ मुड़े। गोविंद नगर में नटराज सिनेमा के पास एक सरदार जी का ढाबा खुला था। वीर सिंह की पसंद का भोजन वहाँ मिल गया। इसके बाद क़रीब एक बजे हम कुछ ही दूर स्थित अपने घर पहुँचे। घर में अम्माँ-पिताजी थे। मुझे देख कर चौंक गए, वह भी इतनी रात को। मैंने उन्हें बताया कि बस चले आए। खाने के लिए मना कर दिया। कह दिया कि पूरियाँ बंधी थीं सो खा लीं। जिप्सी घर के अंदर के सहन में लग गई। हम लोगों ने अपनी खटियाँ छत पर लगवाईं और एक टेबल फ़ैन वहीं फ़िट किया। फिर सोये। अगले रोज़ खूब धूप चढ़ आने पर उठे।
तब तक बिजली जा चुकी थी इसलिए सब-मर्सिबल काम करने से रहा। अब पानी उतना ही था, जितना सुबह बिजली रहने पर उस 500 लीटर के ओवरहेड टैंक में चढ़ा होगा। पहले बाथरूम में गए वीर सिंह और जब लौटे तो बोले कि पानी तो ख़त्म हो गया। ख़ैर वे स्नान कर चुके थे और मैंने हैंड पम्प से खींच कर दो बाल्टी पानी निकाला तब नहाए। दोपहर को एक मित्र आ गए, वे थे वीडी तिवारी। मेरे घर में उनकी एंट्री बैन थी इसलिए पड़ोसी आकर बता गया कि कोई बाहर गाड़ी में बैठा आपको बुला रहा है। मैं समझ गया कि तिवारी जी होंगे। क्योंकि उनको मेरी यात्रा का पता था। तिवारी जी मुझसे क़रीब 25 साल बड़े थे किंतु उनकी नफ़ासत और जीने की कला का मैं मुरीद था। उनसे मेरा परिचय ब्रजेंद्र गुरु ने करवाया था। मगर उनके परिवार पर एक धब्बा था जिसके कारण मेरे पिता जी ने उनके घर आने पर पाबंदी लगा दी थी, जबकि वे पिता जी की हमउम्र थे। वीडी तिवारी दरअसल उन वीरभद्र तिवारी के पुत्र थे, जिन पर चंद्रशेखर आज़ाद की मुखबिरी करने का शक था। और कहा जाता है कि वीरभद्र ने ही कैप्टन नॉट बावर को कहा था कि इस समय एल्फ़्रेड पार्क में चंद्रशेखर आज़ाद सुखदेव राज के साथ बैठे हैं। हालाँकि सुखदेव राज ने लिखा है कि डिप्टी सुपरिटेंडेंट विश्वेश्वर सिंह आज़ाद को पहचानता था और उसने नॉट बावर को सूचना दी। 27 फ़रवरी 1931 की सुबह नॉट बावर ने अपने दो सिपाहियों- मोहम्मद जमान और गोविंद सिंह को साथ लेकर वहाँ पहुँचे। डिप्टी सुपरिटेंडेंट विश्वेश्वर सिंह भी पहुँच गए थे। सब सादे कपड़ों में थे लेकिन मोटर के रुकने और उससे एक गोरे अफ़सर को उतरते देख आज़ाद को शक हो गया था। इसलिए नॉट बावर ने जैसे ही पूछा “हू आर यू?” आज़ाद ने अपनी माउज़र से गोली चला दी। बावर झुक गया और गोली डिप्टी सुपरिटेंडेंट विश्वेश्वर सिंह के जबड़े पर लगी। नॉट बावर ने अपने एक बयान में कहा था, 'ठाकुर विशेश्वर सिंह से मेरे पास संदेश आया कि उन्होंने एक व्यक्ति को एल्फ़्रेड पार्क में देखा है जिसका हुलिया चंद्रशेखर आज़ाद से मिलता है। मैं अपने साथ कॉन्स्टेबल मोहम्मद जमान और गोविंद सिंह को लेते गया। मैंने कार खड़ी कर दी और उन लोगों की तरफ़ बढ़ा। क़रीब दस गज़ की दूरी से मैंने उनसे पूछा कि वो कौन हैं? जवाब में उन्होंने पिस्तौल निकालकर मुझ पर गोली चला दी।’
मेरी पिस्तौल पहले से तैयार थी। मैंने भी उस पर गोली चलाई। जब मैं मैग्ज़ीन निकालकर दूसरी भर रहा था, तब आज़ाद ने मुझ पर गोली चलाई, जिससे मेरे बाएं हाथ से मैग्ज़ीन नीचे गिर गई। तब मैं एक पेड़ की तरफ़ भागा। इसी बीच विशेश्वर सिंह रेंगकर झाड़ी में पहुँचे। वहाँ से उन्होंने आज़ाद पर गोली चलाई। जवाब में आज़ाद ने भी गोली चलाई जो विशेश्वर सिंह के जबड़े में लगी।’
बावर ने आगे कहा कि 'जब-जब मैं दिखाई देता रहा, आज़ाद मुझ पर गोली चलाते रहे। आख़िर में वो पीठ के बल गिर गए। इसी बीच एक कॉन्स्टेबल एक शॉट-गन लेकर आया, जो भरी हुई थी। मैं नहीं जानता था कि आज़ाद मरे हैं या बहाना कर रहे हैं। मैंने उस कॉन्स्टेबल से आज़ाद के पैरों पर निशाना लेने के लिए कहा। उसके गोली चलाने के बाद जब मैं वहाँ गया तो आज़ाद मरे हुए पड़े थे और उनका एक साथी भाग गया था।’ जाते समय नॉट बावर ने हिदायत दी कि चंद्रशेखर आज़ाद की लाश की तलाशी लेकर उसे पोस्टमार्टम के लिए भेजा जाये और विशेश्वर सिंह को तुरंत अस्पताल पहुँचाया जाए। आज़ाद के शव की तलाशी लेने पर उनके पास से 448 रुपये और 16 गोलियाँ मिलीं। यशपाल अपनी आत्म-कथा में लिखते हैं कि 'संभवतः आज़ाद की जेब में वही रुपये थे जो नेहरू ने उन्हें दिए थे।’ मालूम हो कि अपनी मृत्यु के एक सप्ताह पहले चंद्रशेखर आज़ाद कांग्रेस नेता जवाहर लाल नेहरू से मिले थे। लेकिन नेहरू उनके संगठन से खुश नहीं थे। नेहरू ने अपनी आत्मकथा में इस मुलाक़ात का ज़िक्र किया है।
पर मेरे पिताजी को भरोसा था कि वीरभद्र ने ही आज़ाद की मुखबिरी की थी।
(जारी)
© शंभूनाथ शुक्ल
कोस कोस का पानी (1)
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