अमीर खुसरो से जुड़ा यह प्रसंग साभार असग़र वजाहत है।
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हमारे अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के एक सीनियर मित्र तारिक फारूक (अब कनाडावासी) ने फेसबुक पर अपना एक शेर डाला था जिसे पढ़ कर मुझे अमीर ख़ुसरो के जीवन का एक प्रसंग याद आ गया. तारिक साहब का शेर है -
कुफ्र की बात है न दीन की है
बात जो भी है बस यकीन की है
कहते है हज़रत अमीर ख़ुसरो क़ुतुब मीनार के पास अपने कुछ साथियों के साथ चले जा रहे थे. रास्ते में उन्होंने देखा कि भक्तों की एक टोली वज्द के आलम में (आध्यात्मिक उन्माद की स्थिति) नाचती गाती एक मूर्ति उठाये चली जा रही है. पता चला की भक्तजन मूर्ति को किसी मंदिर में स्थापित करने जा रहे हैं. अमीर ख़ुसरो ने भक्तों के नाच गाने में आध्यत्मिकता, विश्वास, समर्पण और आस्था का ऐसा चमत्कार देखा की वे अपने को रोक नहीं सके. वे घोड़े से उतरे और भक्तों की टोली में शामिल हो गए और उन्ही की तरह नाचते गाते मंदिर गए और मूर्ती स्थापन में भाग लिया. जब लौट कर वापस आये तो उनके साथियों ने कहा, हुज़ूर आप तो मुसलमान हैं, आप हिन्दुओं के साथ...’
अमीर ख़ुसरो ने जवाब दिया - मैंने उन लोगों में इतना विश्वास, समर्पण और आस्था का ऐसा आध्यात्मिक रूप देखा था कि मै अपने को रोक नहीं सका.’
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ऐसी असंख्य किस्से कहानियां और प्रसंग बिखरे पड़े हैं जो हमारी विविधता में एकता की ताकत को बार बार याद दिलाते है। कट्टरता और धर्मांधता समाज की सहज स्थिति नहीं है, वैसे ही जैसे, उन्माद कोई सहज भाव नहीं है। उन्माद मस्तिष्क का असहज भाव है। जो किसी कारण से उपज सकता है और जब उसका शमन होता है तो वही उन्माद पश्चाताप में बदल जाता है। यही स्थिति धर्मांधता की। धर्मांधता स्वयं ही धर्म विरुद्ध है। धर्म का आधार अगर, सत्य, करूणा, सेवा और कल्याण है तो, फिर धर्मांधता का स्थान धर्म मे कहा हुआ। संसार के सारे धर्म उचित मानवीय मूल्यों की ही बात करते है।
अमीर खुसरो का काल भारतीय इतिहास में उथलपुथल का काल रहा है। सल्तनत काल मे दिल्ली के सुल्तान बदलते रहे और जो स्थायित्व बाद में मुग़ल काल मे भारत को मिला उसका उस समय अभाव था। खुसरो दिल्ली के प्रसिद्ध सूफी संत हजरत निजामुद्दीन औलिया के शिष्य थे और आज भी वे दिल्ली में उन्हीं के बगल में सोये हुये हैं। सूफ़ी परंपरा में कव्वाली का प्रारंभ अमीर खुसरो द्वारा ही किया गया है। मन्दिरों में होने वाले भजनों का यह असर है। खुसरो खुद भी सूफी थे और हिन्दी साहित्य इतिहास में वीरगाथा काल और भक्तिकाल के संधि में वे ठहरते हैं। असग़र वजाहत जी द्वारा लिखा गया यह प्रसंग, समस्त धार्मिक दिशा निर्देशों के ऊपर प्रेम की विजय का द्योतक है।
© विजय शंकर सिंह
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