Monday, 4 May 2015

एक कविता / अरे यार , ज़रा आहिस्ता चल - विजय शंकर सिंह






कौन कहे समय से ,
कौन पकडे लगाम वक़्त की ,
अरे यार , ज़रा आहिस्ता चल ,
यार ज़रा चल धीरे धीरे !

हो मिलन की आस, तो ,
हों , विरह के गीत ही ,
कुछ धुंध रहे , भरम रहे ,
जो कुछ भी रहे , ज़रा देर रहे !!

आदत है , सपनों में जीने की ,
सपनों के अंतराल में ,
झूठ और सच के बिखरे भ्रम में ,
तब तक , जब तक, हम हैं,
जीते ही रहते हैं, बस !

टूटा यह भ्रम तो,
बिखर जायेंगे ,सारे मंज़र ,
कभी घनी अंधेरी रात ,
कभी सूरज का उपहार ,
अजीब धूप छाँव है !

उम्मीद और नाउम्मीदी के बीच ,
उसे जोड़ता एक पुल, सपनों का,
रंग भरे कितने कलैडियोस्कोप ,
रहे ख्वाब, बचे उम्मीद तो ,
कुछ भी रहे ! कुछ भी बचे !

थक चुका पथिक अब ,
श्रांत ,क्लांत , आतुर - विश्राम,
अब कौन कहे , समय से ,
अरे यार, ज़रा आहिस्ता चल !!
यार ज़रा चल धीरे धीरे !!!


( विजय शंकर सिंह )

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