Tuesday, 2 December 2014

मन न रंगायो , रंगायो जोगी कपड़ा !! / विजय शंकर सिंह



एक बयान आया है किसी साध्वी का. भगवा वस्त्रालंकृत, चंदनाभूषित महिला का. सारे संसार का सुख छोड़ वह राजनीति में आईं है. सेवा करने. कितना महान और पुण्य कार्य है यह. उन्होंने कहा कि दिल्ली रामज़ादों को चुने, हरामजादों को नहीं. मुझे उनके बयान पर कोई आश्चर्य नहीं है. मानसिक विकलांगता से ग्रस्त लोग ऐसी ही बात बोलते हैं. मैंने राम का नाम लेकर ऐसे फ़र्ज़ी रामभक्तों को, राम की दुर्गति करते देखा है. ऐसे ही रंगे सियारों के लिए कहा गया है, मन न रंगायो , रंगायो जोगी कपड़ा !!

साध्वी निरंजन ज्योति नामक एक मंत्री का बयान संविधान की ली गयी शपथ का उल्लंघन है. प्रधान मंत्री सबका साथ, सबके विकास के लिय चाहते हैं और यह अभद्र शब्दावली का प्रयोग करने वाली महिला खुल कर प्रधान मंत्री के विचारों के विरुद्ध है. धर्म के प्रति नज़दीकी एक दुराग्रह भी उत्पन्न कर देती है. यही दुराग्रह अहंकार और दर्प, कभी राम देव में दिखता है, कभी राम पाल में, कभी साक्षी महाराज में, तो अब इन भगवाधारी महिला मंत्री में. लोग इनके समर्थन में भी एकाध तर्क और श्लोक ढूंढ कर ला सकते हैं. और लाएंगे. पर किसी भी सभ्य समाज के परिपक्व लोकतंत्र के लिए ऐसे भाषण घातक हैं. प्रधान मंत्री जी को इन्हें सरकार में बनाये रखने के बारे में भी सोचना चाहिए.


पिछले मंत्रिमंडल विस्तार में इन्हे राज्य मंत्री के रूप में शपथ दिलाई गयी थी। उत्तर प्रदेश के फतेहपुर से इन्होने भाजपा के टिकट पर पहली चुनाव जीता था।  47 वर्षीय निरंजन ज्योति एक कथा वाचक रही हैं। संसदीय जीवन और परम्पराओं का इन्हे बहुत अधिक अनुभव नहीं है 
भाजपा में शामिल होने के पूर्व वह विश्व हिन्दू परिषद से भी जुडी रहीं हैं। इन्होने पहला चुनाव 2012 में इन्होने उत्तर प्रदेश विधान सभा का जीता था। इसके पहले भी यह चुनाव मैदान में उत्तर चुकी हैं पर सफल नहीं हो पायीं। 

आज यह मामला संसद में भी उठा. अटल जी, जगन्नाथ राव जोशी, भाई महावीर, आडवाणी और खुद मोदी जैसे प्रखर वकताओं की पार्टी के एक मंत्री और वह भी जो खुद को साध्वी कहलाती हो के इस बयान से हैरानी ही हुयी है. हालांकि , बाद में मंत्री ने माफी मांग ली. अरुण जेटली ने भी उनके कथन को उचित नहीं माना.मोदी ने भी इस पर अप्रसन्नता व्यक्त की. फिर भी सोशल मीडिया में उस मंत्री के कथन को सही और जायज़ ठहराने वाले कुबुद्धि ग्रस्त लोगों की कमी नहीं हैं. मंतिरियों को विशेषकर बाबा टाइप मंत्रियों और सांसदों को कैसे और कब, कहा, कहाँ, और क्या क्या बोला जाना चाहिए , का एक प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाया जाना चाहिए. 


संत समाज को चाहिए कि संतो के भेस धरे लोगों का विरोध करे. एक ही धर्म के रहते हुए भी संत, विभिन्न पंथों में बंटे हैं. सभी पंथ के अपने अपने नियम क़ायदे हैं. नाथ, अघोरी, सन्यासी, वैरागी, कापालिक, वैषणव, शैव, शाक्त, सखी, नागा, कबीरपंथी, रैदासी, आदि आदि शाखाओं में यह संत परंपरा विभक्त है. लेकिन जो नयी संत परम्परा राजनैतिक महत्वाकांक्षाधारी साधुओं और साधवीयों की जो 1989 से उपजी है, यह असली और प्राचीन संत परंपरा का नाश और बदनाम ही करेगी. ' संतन सो कहा सीकरी सो काम ' तो अब समाप्त हो गया. अब ' सीकरी सो ही संतन को काम ' रह गया है. अब कोई भी संत वीतरागी की तरह नहीं रहता है. अब वह ऐश्वर्य के साथ रहता है. उनके धन पर, जो धर्म भीरुता के कारण अपना धन और उनके बल पर जो अधर्म से अर्जित संपत्ति, इन्हें दान कर देते हैं, ऐश करता है. यह सभी धर्मों के लिए कह रहा हूँ. बस भाषाएँ शब्द और स्थान अलग अलग है. हाँ संतों के अपवाद भी हैं. 
( विजय शंकर सिंह )

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