यह सीरीज मैं प्रसिद्ध पत्रकार, हेमन्त शर्मा Hemant Sharma, जी की टाइमलाइन से उठा रहा हूँ। हेमन्त बनारस के रहने वाले है और बनारस को उन्होंने जीया है। बनारस की अपनी अदा है, कहने सुनने की अपनी शैली है, औऱ हेमन्त का सधा हुआ लेखन, बनारस के इस अंदाज ए बयानी को और स्पष्ट करता है।
हेमन्त इस सीरीज के बारे में कहते है,
"जीवन में कुछ लोग ऐसे होते है।जो हो सकता है आपको महत्वपूर्ण न लगे।पर हमारे निजी जीवन पर उनका गहरा असर होता है।"
■
बनारस के किस्से औऱ लोग (1)
लंगड़ा मोची
कोरोना काल में घुले इस अवसाद के माहौल में ‘इवंनिग वॉक’ उर्जा देता है। ये अलग बात है कि मेरे सेक्टर के ज़्यादातर ‘ईवनिंग वॉकर’ डर के मारे घर में दुबके है। आदमी तो आदमी कुत्ते भी सड़क पर नहीं दिख रहे है।सिर्फ़ चंदू बाबू आते हैं शाम की सैर के लिए।चंदू पेंशनभोगी इंजीनियर है।बड़े बड़े पदों पर रहे है।इसलिए रोज़ नए नए “ब्रान्ड “ के वॉक करने वाले जूते पहनते है।कल मुझे चलने में थोड़ी परेशानी हुई क्योंकि मेरा पनारू (बिना फ़ीते वाला पम्प शू) मेरे अंगूठे को दबा रहा था। अब गलती अंगूठे की थी या जूते की इस विवाद में मैं फ़िलहाल नहीं पड़ता।
सैर के बाद जूते उतार मैं पैर में चुभने वाली वस्तु को तजबीज़ ही रहा था कि चंदू उखड़ गए। मुझसे बोले कि आप इतने रद्दी जूते पहनते ही क्यों हैं? ब्राण्डेँड क्यों नहीं पहनते? देखिए मेरा मोची का जूता है। मैंने कहा मोची का जूता तो मैं बचपन में पहनता था।अब जूता बनाने वाले मोची रहे कहॉं? मेरे बचपन में बनारस का जगतगंज ऐसे मोची हस्तनिर्मित जूतों का बाज़ार था। संत रविदास के समय से यह बाज़ार चल रहा है।उन जूतों की ख़ासियत यह थी कि ख़रीदने के बाद उसमें पूरी रात तेल भर कर रखा जाता था। तभी दूसरे रोज़ जूता अपनी पूरी मुलायमियत के साथ पैर की शोभा बढ़ाता था।
चंदू एक बार फिर से उखड़ गए। इस बार हत्थे से भी दो अंगुल उपर।क्योंकि ईवनिंग वॉक के बाद उन्हें नीला वाला हास्य कलाकार ( जॉनीवॉकर) पसन्द है। उसी के असर में झल्लाकर बोले, “आप भी क्या घटिया बात करने लगे।मैं ‘मोची’ ब्रान्ड की बात कर रहा हूँ। दिल्ली के बडे बड़े मॉल में इसकी दुकान है।मामूली दुकानो तो में यह मिलता भी नहीं है।मुझे आपने क्या समझ रखा है मैं मोची का बनाया जूता क्यो पहनूगॉं।” मैंने फिर समझाया मैं तो मोची के बनाए चमरौधे जूते को जानता हूँ। कालेज के दिनों में एक लंगड़ा मोची मेरा दोस्त भी था। धीर,गम्भीर और दार्शनिक। वह चमरौधे जूते बना लेता था।आप चमरौधा जूता कैसे नहीं जानते विलायत से तो आए नहीं है।ददुआ के ज़िले के ही तो है ? इस जूते पर तो महाप्राण निराला ने अपने दामाद के पैरों का चित्रण करते लिखा है -
"वे जो यमुना के-से कछार
पद फटे बिवाई के, उधार
खाये के मुख ज्यों, पिये तेल
चमरौधे जूते से सकेल
निकले, जी लेते घोर गन्ध
उन चरणों को मैं यथा अंध
कल घ्राण-प्राण से रहित व्यक्ति
हो पूजूँ ऐसी नहीं शक्ति।"
निराला का नाम सुनकर चंदू बाबू कहीं खो से गए। कुछ देर बाद बोले, “कौन निराला एक निराला मेरा जेई होता था,निर्माण निगम में।उसने मेरे रिटायरमेंट पर एक मशहूर विदेशी ब्रांड का जूता गिफ्ट करने का वादा किया था मगर रिटायरमेंट के एक दिन पहले से ही उसने मेरा फोन उठाना बंद कर दिया।पर वो तो कविता लिख नही सकता।मैंने उनके ज्ञान को प्रणाम किया।और काफ़ी के बाद उन्हें समझा पाया कि निराला जी हिन्दी के महाकवि है।आप तेलियरगंज के जिस मोतीलाल नेहरू में पढे है। उसी के पास दारागंज में वे रहते थे।बहरहाल आप उन्हें नहीं जानते तो मैं मोची के बारे में ही आपको बताता हूँ। मगर चंदू कुछ सुनने को तैयार ही नही थे।मैने गौर किया कि वे जल्दी जल्दी अपने वाट्सएप पर किसी को मैसेज टाइप कर रहे थे और साथ ही साथ बड़बड़ा रहे थे, “फुटवियर में क्रान्ति फ़ैशन के लिए ही नही, पैरों के आराम के लिए हुई है। इसलिए ब्रॉन्ड पहनना ज़रूरी है।” मैने ध्यान से देखा इस बीच उन्होंने तीन अलग अलग नंबरों पर एक ही मैसेज कट पेस्ट किया और फिर से जूतों की बहस में उलझ गए।ये मैसेज “आरआईपी” का था। जूतों पर बहस करते करते ही उन्होंने अपने तीन परिचितों को ‘पीस’ में ‘रेस्ट’ करा दिया और वापिस मुद्दे पर लौट आए।
चन्दू जूते और ब्रान्ड में उलझे ही हुए थे कि मुझे अपना लंगड़ा मोची याद आने लगा।वह पक्का बनारसी था।हो सकता है लंगड़ा आपकी सबकी दृष्टि में महत्त्वपूर्ण न हो पर मेरे जीवन में उसकी असरदार भागीदारी रही है। काशी ऐसे ही रत्नोँ की खान है। तुलसीदास लिख गए हैं- “ग्यान खान अघ हानि कर। जहँ बस संभु भवानि “ अर्थात काशी ज्ञान की खान है। जहॉं शिव पार्वती बसते हैं।” पर काशी के ज्ञान की पहचान सिर्फ़ मंडन मिश्र से नहीं होती है। एक कपड़ा बुनने वाला कबीर और दूसरा जूता गॉठने वाला रैदास भी ज्ञान की इस पांडित्य परम्परा का प्रतिनिधित्व करते है।अब आप समझ गए होंगे कि मैं लंगड़े मोची का जिक्र किस संदर्भ में कर रहा हूं।
पढ़ते वक्त गोदौलिया पर एक किताब की दुकान थी पुस्तक मंदिर। उसी के सामने यह लंगड़ा मोची बैठता था पुस्तक मंदिर बीएचयू आते जाते वक्त अपनी अडी थी।तब काशी के हर मुहल्ले में चाय पान या कोई दूसरी दुकान समानधर्मा मित्रों के बैठने की जगह होती थी। जो ज्ञान बॉंटने का अड्डा होती है। यहॉं सुबह से शाम तक पॉंडित्यपूर्ण शास्त्रार्थ होते थे इन अड्डों पर होने वाली बहसें संसद से कम रोचक नहीं होती हैं। अपना ज्ञान बॉंटने के लिए बुद्ध और आचार्य शंकर को भी काशी में अडी लगानी पड़ी। आचार्य शंकर और मंडन मिश्र का शास्त्रार्थ इतिहास प्रसिद्ध है। भगवान बुद्ध भी गया से ज्ञान लेकर उसे बॉंटने काशी ही आए।और सारनाथ में अडी लगायी। जिसे बौध्द लोग धर्मचक्र प्रवर्तन कहते हैं।
ऐसी ही अड़ियों पर मेरा संस्कार और समाजबोध बना । इन अड़ियों ने मुझे संवारा, निखारा, प्रबुद्ध किया।ये अडिया मेरा बोधगया थी। यानी ज्ञान प्राप्ति का केन्द्र । कबीरचौरा पर चूहणमल की चाय की दुकान मेरे बचपन की अडी थी जहॉ मुहल्ले के लोग अख़बार पढ़ने जाते और इन्दिरा गॉधी से लेकर गोल्डामायर तक और भण्डारनायके से लेकर क्वीन एलिज़ाबेथ तक सब पर यहॉं विमर्श चलता रहता था।इस अडी पर अध्यापक ,पत्रकार और कबीर चौरा का संगीत परिवार जमा होता था।
पुस्तक मंदिर की अडी के सदस्य केवल विश्वविद्यालयी साथी ही नहीं थे। इसमें आरटीओ में काम करने वाले क्लर्क, सिनेमा में टिकट ब्लैक करने वाले एक सज्जन, एक सरस्वती टाकीज में साईकिल स्टैंड चलाते। एक सज्जन थे जो हत्या के मामले में जेल हो आए थे ।एक महापुरुष को हम इसलिए प्रोफ़ेसर कहते थे कि वे जुए में मास्टर थे। दिन भर जुआ खेलते थे। वे हमारे लिए प्रोफ़ेसर पद का दैवीय संस्करण थे।एक छेदी लाल थे जिनकी बूंदी और समोसे की दुकान थी। छेदी विश्वविद्यालय में प्राचीन भारतीय इतिहास और पुरातत्व के छात्र थे। पर अपने नाम को लेकर कुण्ठित रहते थे।विभाग में लड़कियाँ बहुत पढ़ती थी वहॉं जा हम उन्हें छेदी कहते तो परेशान होते।तो हम लोगो ने उनका नाम रखा ‘विलियम होल’। कुछ मित्रो ने सुराख़ अली भी सुझाया। पर छेदी विश्वविद्यालय में विलियम होल हो गए थे। रंग भी उनका दक्षिण अफ्रीकी था। सो नाम फ़िट बैठ गया। इस अडी में एक पाण्डे जी थे जो कई वैज्ञानिक उपकरण बना चुके थे।आइंस्टाइन की बनारसी परम्परा में थे। पर जीवन अडी पर बिता दिया।एक लंगड़ा मोची, कुछ दवाइयों की मार्केटिंग से जुड़े लोग , सैकड़ों रिक्शा किराए पर चलवाने वाले एक मित्र,जैसे नाना विधाओं के ढेर सारे लोग यहॉं रोज़ जमा होते थे। यह अडी समूचे समाज और उसके वर्गीय चरित्र का प्रतिनिधित्व करती थी ।यूनिवर्सिटी से आते जाते मैं भी यहॉं रूक जाता था या फिर शाम को यहीं साईकिल खड़ी कर गंगा घाट तक आवारागर्दी होती ।मेरे मित्र अजय त्रिवेदी नियमित तौर पर यहॉं लूडो खेलते थे। लूडो को इन अडीवाजो ने बड़ा वैज्ञानिक खेल बना दिया था। इस खेल मे उस जमाने में सैकड़ों के वारे न्यारे होते थे। इसी अडी पर एक होमियोपैथ के डॉक्टर भी थे। वे एक ही होमियोपैथिक दवा जानवर और मनुष्य दोनों को देते थे। बस मात्रा में बदलाव करते। उनकी क्लिनिक देर रात से सुबह तक चलती थी।क्यो की दूध बेचने वाले उनके क्लायंट थे।गॉंव से दूध वाले आते तो उनकी बीमारी का इलाज करते डॉ साहब उन्हे होमियोपैथ की दवा देते। और अगर वो यह बताते की उनकी भैंस भी बीमार है। तो वो मनुष्य को देने वाली दवा का चार गुना डोज़ भैंस के लिए दे देते। डॉ की अच्छी प्रैक्टिस थी।
एक से बढ़कर एक चरित्र थे । व्यक्ति विशेष की विलक्षणता में दिलचस्पी की मेरी आदत को इन्हीं अड़ियों ने परिष्कृत किया। इसी पुस्तक मंदिर की अड़ी के नीचे वह लंगड़ा माफ़ कीजिएगा दिव्यांग मोची था। हम सब का मुखबिर। देश दुनिया की ख़बर वह रखता था। काम भले ही वह मोची का करता था। पर आदमी एकदम दार्शनिक बुद्धि से लबालब था। समझ, प्रतिउत्पन्नमति और देहभाषा को पढ़ने में उसका कोई तोड़ नही था। उसके पास चौकन्नी नज़रों की पूंजी थी। भवितव्यता को पढ़ने में वो सबसे अव्वल था। यूं तो हमारे बीच वो लँगड़ा मोची के नाम से मशहूर था मगर बड़े बड़ों की चाल ठीक करने की क्षमता उसमें थी।वो पुस्तक मन्दिर की ‘अडी ‘ का नियमित और सक्रिय सदस्य था।
लँगड़ा मोची अपनी सोच में अरस्तू और सुकरात का फूफा था। जूता सिलने के काम को लँगड़ा न छोटा मानता न उसके चलते किसी कुण्ठा में रहता। बल्कि जूता सिलने की बात आते ही वो अपनी अकड़ का डिस्प्ले बोर्ड ऑन कर देता।उससे मैने सीखा अपने काम के प्रति कोई हीन भावना नही होनी चाहिए।आपको याद होगा इसी शहर में जूता गॉंठते गाँठते रैदास मुक्ति की धुरी का सत्य बता गए। लंगड़े मोची की उम्र कोई २५ साल थी। गठीला शरीर। एक पैर नही था। जीवनसंगिनी के नाम पर एक बैशाखी थी। वह हमें दिन भर की सारी सूचनाएँ देता था। मिलते ही सारी रिपोर्ट एक सॉंस में दे जाता। कौन आया? कौन किधर गया ? किसके साथ कौन था? हमें देखते ही वह बैसाखी उठाता सड़क के उस पार जाकर चाय लाता। हमें पिलाता और खुद भी पीता। पैसा ज़रूर हम देते पर चाय का मैनेजमेंट उसी का होता।
लँगड़े मोची के जीवन का बड़ा सीधा सा फलसफा था कि जूता हमेशा टोपी से कीमती रहा है। टोपी दस रूपए में मिल जाती है और जूते पचास रुपये से कम में नही मिलते। यानी एक जूते पर पचीसों टोपियां न्योछावर होती हैं। इसी फलसफे पर चलते हुए लंगड़ा हमेशा इस फिराक में रहता कि कब कोई टोपी उसके सामने आए और वह तपाक से उस पर अपना जूता रख दे। अपनी इसी आदत के चलते लंगड़ा एक नही बल्कि बीसियों बार बड़ी बड़ी इज्जत की सुराहियों के पेंदे में छेद कर चुका था। लोग उससे जितना डरते थे उतना ही सतर्क भी रहते थे। वो कभी भी किसी वक्त भी किसी की भी इज्जत के कपड़े बड़ी बेरहमी से उतार सकता था। उसके भुक्तभोगी पूरे शहर में थे।
वह गजब दार्शनिक किस्म का आदमी था। मुझे कई बार लगता है कि अगर इस देश में वास्तव में प्रतिभाओं की कद्र होती तो अब तक उसके फक्कड़ सिद्धांतों पर कई किताबें लिखी जा चुकी होतीं। मगर अफसोस....। खैर! लंगड़े मोची ने इससे हार नही मानी। उसने उल्टा ही जीवन की स्थितियों और मजबूरियों को अपना हथियार बना लिया था। मोची के बैठने की स्थिति उसकी सामाजिक स्थिति का आइना होती है। वह सामने खड़े व्यक्ति के घुटनों के बराबर पालथी मारकर बैठा रहता है और उसी स्थिति में उस व्यक्ति की सोच और चरित्र का एक्सरे निकाल लेता। उसके पास विनम्रता के पुतले भी आते हैं और अकड़ के राक्षस भी। वह इन दोनों ही अतिवादों के बीच अपनी व्यवहारिकता का हाईवे बनाकर सरपट दौड़ता हुआ निकल जाता है।
घर से यूनिवर्सिटी जाने के रास्ते में पुस्तक मंदिर हमारा पहला पड़ाव होता। यहीं साइकिल खड़ा कर हम लोग अपनी अपनी सुविधा से आगे का रास्ता चुनते। कोई बस पर चढ़ जाता। कोई किसी की मोटर साईकिल पर सवार होता। या फिर कई और मित्रो के साथ साईकिल से ही जाता। पुस्तक मंदिर की इस अड़ी के सभी सदस्य परिचय में एक ग्रन्थ लिखे जा सकते है। एक महापुरुष औऱ थे जो हीरोईन और चरस का तुरन्त इन्तज़ाम करते थे। दुनिया में ऐसा कोई ऐब नही था जिसमें पारंगत कोई न कोई महाशय इस अडी के सदस्य न हो। आप कह सकते है कि चार्ल्स शोभराज और नटवरलाल जैसे महापुरुषों भी इस अडी पर आते तो उन्हें भी कुछ सीखने को मिलता। संयोग है कि ये दोनों बनारस में काफ़ी समय तक रहे थे। अजय गुरू इन सबके गुरू थे।गुरू नाम उनका इसी अडी पर पड़ा था। इस किताब की दुकान के मालिक बच्चेलाल पैदाइशी सभ्य और विनम्र थे। वे कभी किसी से मुंह नही बिदकाते थे। हरदम मुस्करा कर हर किसी का स्वागत करते। कभी कभार हमे उनके होंठ तेज़ी से चलते नज़र आते पर आवाज़ कुछ भी न आती। ये इस बात का सिग्नल था कि बच्चेलाल मन ही मन किसी की माँ बहन कर रहे होते। पर इस दौरान भी उनके चेहरे पर मुस्कुराहट दौड़ती रहती। इस दुकान के अन्दर बैठकर कुछ लोग दिन भर लूडो खेलते। सिर झुका कर सात आठ लोग तल्लीनता से लूडो की फड़ पर घंटो बैठे रहते।पर बच्चेलाल बुरा नहीं मानते थे। न दुकानदारी के ख़राब होने की शिकायत करते। हॉं भीड़ भाड के दौरान लूडो खेलने वाले साथी बच्चेलाल की किताब निकालने और बिल बनाने में मदद भी करते।
तो मित्रो, बात लंगड़े मोची की हो रही थी। लंगड़ा मोची विपरीत लिंग के प्रति उतना ही सतर्क रहता था जितना सीमा पर इस्तेमाल किए जाने वाले टोही राडार होते हैं। किस व्यक्ति के साथ आ रही महिला कौन है। यह लँगड़ा देखते ही बता देता जो अकसर सटीक निकलता था। कैन्ट से दिलीप जी आए थे और स्कूटर यहॉं खड़ा कर गोरकी के साथ बस में बईठ के गईलन। औरंगाबाद वाले लाला भाई आज इतने बजे साइकिल से इनवरसिटी जात रहलन। आगे आगे पतरकी रेक्शा पर रहल। पीछे पीछे दुनो भाई।" ऐसी सूचनाएँ वो अपनी ज़ुबान पर तैयार रखता और हमारे पहुंचते ही अपना रेडियो ऑन कर देता।
एक बार मै और अजय गुरू पुस्तक मंदिर पर बैठे थे। लंगड गुरू आए। अजय गुरू से बोले कुछ पैसा दे दअ। पूछने पर कितना? उसने पचास रूपये माँगे। गुरू ने तीस और मैने बीस रूपये दे दिए। लगंडा ख़ुशी ख़ुशी चला गया। मुझे लगा उसने दवा वग़ैरह के लिए पैसे लिए होगे। उसके बाद लँगड़े ने दो दिन दुकान नही खोली। फिर जब लँगड़ा लौटा तो मैंने पूछा दो दिन कहॉं गए थे? उसने झट से जवाब दिया आपसे पैसा मिलल त चल गईली शिवदासपुर।उहरे रह गईली। मैं आश्चर्यचकित हो उसकी बात सुनता रहा।शिवदासपुर में उन दिनों लाल बत्ती जगमगाती थी।
लँगड़ा मोची बड़ा स्वाभिमानी था। उसका स्वाभिमान भी दीवार फ़िल्म के बच्चा अमिताभ बच्चन जैसा था। वह भी जूते की पॉलिश का फेंका हुआ पैसा नही उठाता था। उसने अपने जीवन मे दीवार फ़िल्म बीसियों बार देखी थी। उसके ऊपर कुछ कुछ फ़िल्म का असर सा होने लगा था। लँगड़े के भीतर एक अजीब किस्म की मौलिकता थी। दरअसल जूता सीना अपने आप में एक चरित्र होता है। बनारस में ही चौदहवीं शती में संत रविदास हुए। वे जूता सिलते थे। उनकी वजह से रविदासी लोगों का एक पूरा मुहल्ला जगत गंज में आज भी है जहॉं आज भी जूते बनते है। लंगडा मोची की ये भी ताकत थी कि वह कद की लंबाई और पद की ऊंचाई से व्यक्ति की चौड़ाई की पहचान नहीं करता था। बड़े ही निरपेक्ष भाव से अपने कर्म में लीन रहता था। वो शायद धूमिल के "मोचीराम" की उसी परम्परा का वाहक था जिसकी नज़रों में उसका साध्य सामने पड़े जूतों की मरम्मत भर होता है। फिर उन जूतों में समाने वाले पैरों की औकात चाहे जो हो! धूमिल का मोचीराम भी इसी दर्शन को आगे बढ़ाता है। वे लिखते हैं-
"राँपी से उठी हुई आँखों ने मुझे
क्षण-भर टटोला
और फिर
जैसे पतियाये हुये स्वर में
वह हँसते हुये बोला-
बाबूजी सच कहूँ-मेरी निगाह में
न कोई छोटा है
न कोई बड़ा है
मेरे लिये,हर आदमी एक जोड़ी जूता है
जो मेरे सामने
मरम्मत के लिये खड़ा है।"
धूमिल बनारस के थे। मेरा मोचीराम भी उसी जमीन का था। धूमिल और उसके बीच अगर कोई रिश्ता हो सकता था, तो वह कुछ परिचित सी सम्वेदनाओं का रिश्ता था। उसने जीवन के उस दर्शन को आत्मसात कर लिया था जो धूमिल होते हुए भी शाश्वत था, सनातन था। मुझे अक्सर ही उसकी सोच की जमीन पर धूमिल के उन विचारों के वृक्ष लहलहाते नजर आते । धूमिल ने जो लिखा, मेरे मोचीराम ने उसे जी कर दिखाया। सार बस इतना था -
"और बाबूजी! असल बात तो यह है कि ज़िन्दा रहने के पीछे
अगर सही तर्क नहीं है
तो रामनामी बेचकर या रण्डियों की
दलाली करके रोज़ी कमाने में
कोई फर्क नहीं है।"
इस शहर में जूता सीने के पीछे रैदास की सनातन परंपरा भी है। यह रैदास की भक्ति का चमत्कार ही था कि उनके चमड़ा साफ करने की कठौती से गंगा को प्रकट होना पड़ा।वहां भी काशी थी। वहां भी एक मोची था। यहीं से इस कहावत का भी जन्म हुआ कि मन चंगा तो कठौती में गंगा। लगंडा मोची एड्स से मर गया। लेकिन जब तक जिया शान से। कुण्ठाओ के आवरण को तोड़ वह जीवन का पूरा आनन्द लेता रहा। चंदू बाबू की जूता गाथा ने आज फिर से उसकी याद दिला दी। उसकी स्मृति को प्रणाम।
* हर जगह लंगड़े की जगह दिव्यांग पढे।
हेमन्त शर्मा
© Hemant Sharma
No comments:
Post a Comment