Saturday 11 November 2017

एक कविता - किस बियाबान में ले जा रहे हो तुम / विजय शंकर सिंह

किस बियाबान में ले जा रहे हैं तुम,
शायद तुम्हे भी इल्म न हो,
हो तो, तुम्हारे आक़ाओं को हो,
जो वक़्त बिगड़ने पर,
झटक देते हैं , उनको भी,
जिन्होंने उनके इशारे पर ,
पाप किया था. कभी.
कहानी याद आने लगती है,
बचपन मे पढ़ी, अंगुलिमाल की।

स्वर्ण घट में भरे,
हलाहल सी फितरत,
और खुद को साफ़ सुथरा दिखाने की ऐयारी,
अभी छोड़ी नहीं है तुमने !

तुम्हारी आँखों में आँखें डाल कर,
जब भी बात करता हूँ
खेत खलिहान और फसलों की ,
जब भी सवाल उठाता हूँ,
आंखों में उम्मीदों के ख्वाब समेटे
भूख भय और पेट की,
याद दिलाता हूं तुम्हें,
मटमैले कागजों पर दर्ज उन वादों की,
बेहतर और लुभावने कल के
उस दैवी फरमान की,
तो, कितने शातिराना चालाकी से
दिखाने लगते हो तुम कलैडियोस्कोप ।

हमें खड़ा कर देते हो
खानों मैं बंटे हुए ईश्वर के सामने,
जो आज तक यह तय नहीं कर पाया कि,
वह है भी, या नहीं है !
हांथों में थमा कर गाय की पूंछ ,
सूअर खदेड़ने के लिए डंडे .
उलझा कर, इन सारे सवालों से,
जी चुराती , मक्कारी भरी आंखें तुम्हारी,
देखी है मैंने ।

मूढ़ता के वायरस से ग्रसित,
हम सब कुछ भूल कर ,
बहेलिये की जाल में ,
फंसे हुए खग कुल से बेबस,
और उलझते, फंसते चले जाते हैं।

भूख , भय और भीख ,
जिन्हे मिटाने का वादा करके ,
चमचमाती गाड़ियों में चढ़ कर,
उम्मीदों का गुब्बारा थामे,
धूल उड़ाते आये थे तुम,
वे वादे और यादें उनकी
दुःस्वप्न की तरह, आज भी ज़िंदा हैं !!

मेरी आँखों में,
तुम्हारी गाड़ियों से उड़ाई हुयी धूल ,
आज भी , किरकिरी की तरह ,
टीसती रहती है !!

© विजय शंकर सिंह

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