Wednesday 23 March 2016

धर्म और राजनीति के घाल मेल पर डॉ लोहिया / विजय शंकर सिंह



शायद ही कोई भारतीय चिन्तक ऐसा हो जो भारत में विद्यमान धर्म या धर्मों से प्रभावित न हुआ हो। डॉ लोहिया भी इसके अपवाद नहीं  रहे । डॉ लोहिया के समय भारतीय राजनीति में धर्म को मिलाने और राजनीतिक सत्ता की तुलना में उसे सर्वोपरि मानने का प्रयास भी चल पड़े थे, ऐसी स्थिति में तत्कालीन भारतीय समाज और धर्म के प्रति लोहिया भी सोचते रहे और उनके सोच और कर्म में यह देखने को मिला कि वे ईश्वर के बारे में रूढि़वादी मान्यताओं में कम ही विश्वास रखते थे, यहाँ तक कि वे ईश्वर अस्तित्व को भी मानने से इंकार करते रहे लेकिन जब ध्यान से हम उनके चरित्र का अध्ययन करेंगे तो पायेंगे कि उन्हें अन्तर्भूत विराट शक्तियों से कभी इंकार नहीं था। डॉ लोहिया से एक बार किसी ने व्यंग्य से कहा कि, अभी आप को ईश्वर पर यकीन नहीं है , पर जब उम्र ढलेगी तो ईश्वर पर विश्वास खुद ही हो जाएगा। लोहिया इस बात पर खिलखिला उठे और कहा कि , तुम्हारा ईश्वर भी बुढ़ौती में कमज़ोर होने पर ही सताता है क्या ? वह नास्तिक थे पर देश के अद्भुत सांस्कृतिक फलक के साथ उनका तादात्म्य सदैव बना रहा । वह देश की राजनीति में धर्म के घाल मेल के विरुद्ध थे। जब गोरक्षा के आंदोलन में दिल्ली में भीड़ उमड़ी तो उन्होंने कहा कि ऐसी चेतना और उत्तेजना रोटी, भूख और सामाजिक गैरबराबरी के खिलाफ क्यों नहीं उमड़ती है। उन्हें धर्म के कर्मकाण्ड से घृणा थी पर धर्म के उदात्त दर्शन के प्रति उनका आकर्षण साफ़ दिखता है । 

राम मंदिर आंदोलन की शुरुआत 1989 में न तो राम के प्रति श्रद्धा और मोह के कारण हुयी थी और न ही वह स्वाभिमान का स्वतः जागरण था। वह देश के दो प्रमुख दलों कांग्रेस और भाजपा की सत्ता हथियाने की कुटिल चाल थी । राम दोनों ही दलों द्वारा छले गए और दोनों के ही स्वार्थ पूर्ति का साधन बने । लेकिन इस आंदोलन के पचीस वर्ष पूर्व ही डॉ लोहिया ने रामायण मेला की शुरुआत कर के राम को लोक फलक पर एक सांस्कृतिक चेतना के रूप में ला दिया । रामायण मेला की शुरुआत चित्रकूट से हुयी थी, जहाँ तुलसी दास ने राम कथा कही थी और जहाँ राम ने अपने बनवास के सबसे सुन्दर वर्ष बिताये थे । लोहिया ने रामायण मेले के अन्तर्राष्ट्रीय महोत्सव की एक बड़ी ही मोलिक तथा विराट परिकल्पना की थी। राम उनके लिए धार्मिक अवतार नहीं बल्कि सांस्कृतिक पुरुष थे। राम , कृष्ण और शिव उनके अद्भुत प्रेरणा श्रोत थे । वे प्रार्थना करते हैं ,
‘हे भारतमाता! हमें शिव का मस्तिष्क दो, कृष्ण का हृदय और राम का कर्म और वचन दो। हमें असीम मस्तिष्क और उन्मुक्त हृदय के साथ जीवन की मर्यादा से रचो।’
यह प्रार्थना उनके व्यक्तित्व और विचारधारा के एक अलग और विलक्षण पक्ष का दर्शन कराती है। वे राम को आदर्श मानते तो पर सीता त्याग और सीता की अग्नि परीक्षा के मुद्दों पर वे राम की आलोचना भी करते हैं। राम राज्य उनका आदर्श नहीं है बल्कि वे सीता राम राज्य की कल्पना करता है। वे इस प्रकार आज के युग में प्रचलित और ज्वलंत प्रकरण नारी विमर्श की प्रस्तावना भी लिख देते हैं ।

लोहिया ने तुलसी के राम चरित मानस को महानतम ग्रन्थ बताया है और मानस पर वे कहते हैं ,
"कहा कि तुलसी की कविता से अनगिनत ऐसी सूक्तियां एवं लोकोक्तियाँ निकली है, जो थके-हारे, टूटे निराश आदमी को टिकाती है, साहस देती है और सीधे रखती है। साथ ही उसमें ऐसी कविता है जो एक बहुत ही क्रूर अथवा क्षणभंगुर धर्म से जुड़ी हुई है। ऐसी कविता मोतियों के बीच कूड़ा सी परिलक्षित होती हैं और मोती चुंगने के लिए कूड़ा निगलना जरूरी नहीं, न ही कूड़ा साफ करते वक्त मोती फेंकना।’’
डॉ लोहिया से जब विवादित चौपाई , ढोल गंवार शूद्र पशु नारी, के बारे में सवाल किया जाता था तो वह इस प्रकरण को हँस कर टाल देने का सुझाव देते थे।  उन्होंने कहा कि,
"हमें रामायण की उन पंक्तियों को जिसमें नारी को कलंकित किया गया है और शूद्रों को दीन हीन बनाया गया है, हँसकर टाल देना चाहिए। '
वे आगे कहते हैं ,
‘‘मैं उन लोगों में नहीं जो चैपाइयों के अर्थ की खींचतान करते हैं, अथवा 100 चैपाइयों के मुकाबले में केवल विपरीत चैपाई का उदाहरण देकर अपनी बात को मनवाना चाहते हैं। किसी चौपाई के सैकड़ो मतलब बनाने में न तुलसी की प्रतिभा है, न बताने वाले की। विद्वता तो इसी में है कि सभी संभव अर्थो पर टीका करते हुए सबके अर्थ को स्थिर करना।’’
मानस के सन्दर्भ में, इतने उदार विचार डॉ लोहिया के ही हो सकते हैं। लोगों ने इस चौपाई के अर्थ और व्याख्या में न जाने कल्पना के कितने वितान ताने हैं । मानस के बारे में वे यह भी कहते हैं,
" पिछड़े वर्गों और स्त्रियों को लेकर जहाँ-जहाँ रामायण में अतिरेक है, इसे समय का दोष और कवि को समय का शिकार समझकर इस महान ग्रंथ का रसपान करना चाहिए।
डॉ लोहिया ने जब अपनी आँखों से देखा कि कुछ धर्म के ठेकेदार धर्म को राजनीति में मिलाकर गलत उपयोग कर रहे हैं और साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दे रहे हैं तो लोहिया ने कहा-
‘‘धर्म और राजनीति के दायरे अलग-अलग हैं, पर दोनों की जड़ें एक हैं, धर्म दीर्घकालीन राजनीति है, राजनीति अल्पकालीन धर्म है। धर्म का काम है, अच्छाई करे और उसकी स्तुति करे। राजनीति का काम है बुराई से लड़े और उसकी निन्दा करे। जब धर्म अच्छाई न करे केवल स्तुति भर करता है तो वह निष्प्राण हो जाता है और राजनीति जब बुराई से लड़ती नहीं, केवल निन्दा भर करती है तो वह कलही हो जाती है। इसलिए आवश्यक है कि धर्म और राजनीति के मूल तत्व समझ में आ जाए। धर्म और राजनीति का अविवेकी मिलन दोनों को भ्रष्ट कर देता है, फिर भी जरूरी है कि धर्म और राजनीति एक दूसरे से सम्पर्क न तोड़ें, मर्यादा निभाते रहें।’’

धर्म और राजनीति के अविवेकी मिलन से दोनों भ्रष्ट होते हैं, इस अविवेकपूर्ण मिलन से साम्प्रदायिक कट्टरता जन्म लेती है। डॉ लोहिया भारत के बंटवारे के प्रबल विरोधी थे। वे उस समय कांग्रेस में तो सक्रिय थे पर उनका कद इतना बड़ा नहीं था कि वे बंटवारे के विरोध में खड़े हो सकें या कोई आंदोलन करते।  वे नेहरू के प्रखरतम आलोचक रहे है और अपनी पुस्तक भारत विभाजन के दोषी में कांग्रेस के प्रथम पंक्ति के सभी बड़े नेताओं की उस मूक सहमति पर सवाल उठाते हैं जो भारत के बंटवारे के मुद्दे पर जिन्ना और उनकी मुस्लिम लीग से बातचीत कर रहे थे। यह धर्म का राजनीति के साथ मिलावट का सबसे जहरीला काल था। लोहिया ने तभी कह दिया था कि यह बंटवारा 25 साल से अधिक नहीं चलेगा और 1971 में ही उनकी भविष्यवाणी सच साबित हो गयी और धर्म , राष्ट्र का आधार हो सकता है यह सिद्धांत खंडित हो गया । धर्म और राजनीति को अलग रखने का सबसे बड़ा मतलब यही है कि साम्प्रदायिक कट्टरता से बचा जाय। राजनीति के दण्ड और धर्म की व्यवस्थाओं को अलग रखना चाहिए नहीं तो, दकियानूसी बढ़ सकती है और अत्याचार भी। लेकिन फिर भी जरूरी है कि धर्म और राजनीति सम्पर्क न तोड़े बल्कि मर्यादा निभाते हुए परस्पर सहयोग करें। लोहिया ने कहा कि
"आज राजनीति के क्षेत्र में धर्म ने जाने-अनजाने धकियानूसी, प्रतिक्रियावादी, गुलामी और सामप्रदायिकता को बढ़ावा दिया है।
डॉ लोहिया का यह वाक्य भारतीय समाज और राजनीति के लिए सटीक है और आज भी प्रासांगिक है।

23 मार्च को डॉ लोहिया के जन्म दिवस पर उनका विनम्र स्मरण !!
( विजय शंकर सिंह )

2 comments:

  1. बेहतरीन सर ...👌👌

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  2. धर्म और राजनीति मे धर्म का होना जरूरी है तभी राजनीत सार्थक होती है।

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