Tuesday, 29 March 2016

डॉ नारंग की हत्या और मोनिका भारद्वाज का ट्वीट - एक प्रतिक्रिया / विजय शंकर सिंह

दिल्ली पुलिस की आई पी एस अधिकारी मोनिका भारद्वाज की डॉ नारंग की हत्या के बाद जारी ट्वीट पर कुछ मित्र सवाल जवाब उठा रहे हैं । कुछ का कहना है कि,
1. यह ट्वीट एक पुलिस अधिकारी को नहीं करना चाहिए, यह उसके द्वारा अधिकारों का अतिक्रमण है ।
2. कुछ का कहना है यह ट्वीट तथ्यात्मक रूप से गलत है ।
3. यह ट्वीट गुमराह करने वाला है और घटना को दबाने के उद्देश्य से किया गया है ।

मैं एक पुलिस अधिकारी के अनुभव और कर्तव्य तथा दायित्व के सन्दर्भ में इन आक्षेपों पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करूँगा ।
पुलिस अधिकारी का मौलिक कर्तव्य यह है कि उसके क्षेत्राधिकार में क़ानून व्यवस्था की स्थिति ठीक बनी रहे और अपराध कम से कम हों और जो भी हों वह जल्दी से जल्दी खुल जाए और दोषी पकडे जाए। उस रात जब डॉ नारंग की हत्या झुग्गी झोपड़ी वालों ने कर दी तो उस समय सोशल मिडिया पर यही प्रचारित हुआ कि यह एक साम्प्रदायिक घटना है और इसका तात्कालिक कारण भारत की बांगला देश पर विजय है । हमलावर बांग्लादेशी थे, और वे अपने मूल देश की पराजय से उत्तेजित थे और उन्होंने इसका बदला लेने के लिए यह काम किया । सुबह तक दिल्ली में क्या हुआ यह तो मैं नहीं जानता पर सोशल मिडिया पर सीधे सीधे हिन्दू मुस्लिम साम्प्रदायिकता की बात होने लगी। तभी मोनिका का वह ट्वीट आ गया जिसमें उन्होंने इसे साम्प्रादायिक घटना न माने जाने की बात की और गिरफ्तार 9 अभियुक्तों का ब्रेक अप दे दिया जिसमे हिन्दू मुसलमान दोनों थे । बाद में दिल्ली पुलिस ने भी इसे सांप्रदायिक घटना मानने से इनकार कर रोड रेज़ कहा । मोनिका का वह ट्वीट बहुत शेयर भी हुआ, और जब सोशल मिडिया में घटना का यह पक्ष भी सामने आया तो तनाव भी कम हुआ और दिल्ली का वातावरण भी शांत रहा ।

मोनिका का यह कदम क़ानून और शान्ति व्यवस्था की दृष्टि से न केवल सराहनीय रहा बल्कि उन्होंने एक बड़ा खतरा बचाया । एक मित्र ने कहा कि क्या उनका ट्वीट करना उचित था ? क्या यह क़ानून के दायरे में है ? मेरे वे मित्र जिन्होंने दंगा अपनी नौकरी के दौरान झेला है वे इसकी गंभीरता को भली भाँति समझ सकती हैं । अधिकतर दंगे अफवाहों और गलत फ़हमियों के कारण फैलते हैं और ये अफवाहें फैलायी जाती हैं और गलत फ़हमियों पैदा की जाती हैं । जिनको इन दंगों से लाभ होता है वे ऐसा कृत्य करते हैं । वे दंगे फैला कर फिर क़ानून की बातें करते हैं और क़ानून की आड़ लेते हैं । इन अफवाहों से निपटने के लिए आवश्यक है कि इन का न सिर्फ जोरदारी से खंडन किया जाय बल्कि सारे तथ्यों को तत्काल प्रेस के माध्यम से जनता के सामने रखा जाय । पहले सोशल मिडिया नहीं था, अफवाहें लैंड लाइन के फोन या कानाफूँसी से फैलायी जाती थी । और पुलिस या प्रशासन इनका खंडन प्रेस कॉन्फरेंस या प्रेस विज्ञप्ति के ज़रिये करता था । आज भी बड़ी घटना होने पर प्रदेश स्तर पर डीजी और प्रमुख सचिव प्रेस को तथ्य बतातें हैं और जनपद स्तर पर यही काम जिला मजिस्ट्रेट और एस पी करते हैं । कभी कभी प्रेस का सहयोग भी माँगा जाता है, और प्रेस अपना सहयोग देते हुए नकारात्मक रिपोर्टिंग से बचता भी है । क्यों कि शहर का अमन चैन बना रहे यह सबके लिए महत्वपूर्ण है । अब जब फेस बुक, ट्वीटर, और व्हाट्सएप्प जैसे त्वरित जन संचार के साधन उपलब्ध हैं तो, इनका उपयोग किए जाने में कोई बुराई नहीं है बल्कि इनका उपयोग किया जाना चाहिए ।मोनिका ने यही किया है और उनका यह कृत्य गैर ज़िम्मेदाराना बिलकुल नहीं है ।

कुछ मित्रों का कहना है कि यह ट्वीट तथ्यात्मक रूप से सही नहीं है। मुझे यह पता नहीं कि पुलिस के अतिरिक्त तफ्तीश करने का अधिकार कुछ मित्रों को कैसे मिल गया और किसने दे दिया । अगर आप के पास तथ्य हैं और उसके समर्थन में सुबूत हैं तो दिल्ली पुलिस को दे । सोशल मिडिया पर भले ही यह सुबूत और तथ्य पोस्ट करे पर दिल्ली पुलिस को भी दे ।

यह ट्वीट गुमराह करने वाला नहीं है बल्कि गुमराह होने वालों को रोकने के लिए है । आखिर अगर दंगा होता तो किसकी जन धन हानि होती ? आज डॉ नारंग की हत्या हुयी है अगर इसी बात पर दंगा भडकता तो, नारंग जैसे लोग जो उस पॉश कॉलोनी में रहते उनके घर ही लुटते और वह लोग भी हताहत होते । पॉश कॉलोनी के बाशिंदे तब सड़क पर घर से निकलते हैं जब वे यह देख लेते है कि पुलिस आ गयी है । और झुग्गी झोपड़ी में  रहने वाले आपराधिक तत्व ऐसी अफवाहों और तनावों का पूरा फायदा उठाते हैं ।डॉ नारंग पीते जाते रहे क्यों नहीं उनके पड़ोसी निकल कर सामने आये या 100 नम्बर पर पुलिस को खबर किया ? यह महानगरों की अपार्टमेंटल और डिजिटल संस्कृति है ।

आखिर दंगे से फायदा किसको होता है ?
जब समाज का ताना बाना मसकता है तो समाज में वैमनस्य फैलता है तो उसका लाभ कौन उठाता है ?
कौन फ़र्ज़ी सहानुभूति के दो बोल बोल कर और उसे प्रचारित कर के खुद को सबके सामने अपनी अहमियत बनाये रखता है ?
ज़रा रू ब रू होइएगा इन सवालों से तो पाइएगा कि , बिल्लियों को आपस में लड़ा कर उनकी रोटी बन्दर ही खा जाता है !
ऐसे बंदरों की मनोवृत्ति और कुटिलता से बच के रहिये । सामाजिक सद्भाव बनाये रखना ही सबसे बड़ी देश भक्ति है । नारा लगाना सिर्फ दिखावा है ।

( विजय शंकर सिंह )

Friday, 25 March 2016

गणेश शंकर विद्यार्थी - विनम्र श्रद्धांजलि / विजय शंकर सिंह


25 मार्च 1931 को कानपुर में एक अत्यंत दुःखद घटना हुयी थी। एक साम्प्रदायिक उन्माद से भरी भीड़ ने गणेश शंकर विद्यार्थी की हत्या कर दी थी। विद्यार्थी जी हिंदी पत्रकारिता के शलाका पुरुष रहे हैं। वे न केवल व्यावसायिक पत्रकार रहे हैं, बल्कि जन जागृति के इस लोक माध्यम को उन्होंने एक मिशन की तरह लिया। यह उनकी शहादत थी। 1931 का साम्प्रदायिक दंगा , कानपुर के इतिहास में बहुत व्यापक और बीभत्स था। विद्यार्थी जी इस उन्माद से पगलाई भीड़ को शांत करने के उद्देश्य से पुराने कानपुर की गलियों में निकले थे और उस उन्माद और पागलपन की आग ने उन्ही की जान ले ली, जिसे वे खुद बुझाने निकले थे। वह दुर्भाग्यपूर्ण दिन और तारीख आज ही की थी।

गणेश शंकर विद्यार्थी का जन्म 1890 के अक्टूबर में इलाहाबाद में हुआ था। हाइ स्कूल की परीक्षा वहाँ से उत्तीर्ण कर के वे वहाँ से निकलने वाले अखबार, हिंदी प्रदीप, स्वराज्य, कर्मयोगी और अभ्युदय से जुड़े। इन पत्रिकाओं में उनके लेख नियमित रूप से प्रकाशित होते रहते थे। विद्यार्थी जी हालांकि प्रदेश कांग्रेस के महत्वपूर्ण नेताओं में से थे पर वे देश में चल रहे क्रांतिकारी आंदोलन के साथ साथ भी जुड़े थे। उनके लेख, प्रेस की आज़ादी, दास प्रथा, क्रांतिकारी आंदोलन के उभार और यहाँ तक कि सशस्त्र संघर्ष के समर्थन में भी अपनी बात कहते थे।

1905 में ही तिलक और गोखले के वैचारिक मतभेद के कारण कांग्रेस गरम और नरम दलों में बंट चुकी थी। तिलक उस समय गोखले से अधिक लोकप्रिय हो गए थे । अँगरेज़, उन्हें फादर ऑफ़ इंडियन अनरेस्ट कहते ही थे। विचारधारा का यह टकराव , इलाहाबाद के छात्रों में भी बहुत व्यापक था । म्योर सेन्ट्रल कॉलेज जो इलाहाबाद विश्वविद्यालय का आज का विज्ञान संकाय है, में  वहाँ के छात्रों ने कांग्रेस के तत्कालीन नरम पंथी नेताओं सर सुन्दर लाल और महामना मदन मोहन मालवीय का प्रबल विरोध किया था । गणेश शंकर विद्यार्थी ने उस समय राजनीतिक पत्रकारिता को अपना मिशन के रूप में चुना । वे पहले इलाहाबाद के स्वराज्य भवन स्थित कांग्रेस कार्यालय में पत्रकारिता से जुड़े । उस समय वहाँ से उर्दू में एक अखबार निकलता था, जो 1908 में सरकार विरोधी लेख छापने के कारण प्रतिबंधित कर दिया गया था । उस पत्रिका के संपादक शांति नारायण भटनागर थे , जिन्हें साढ़े तीन साल के कारावास की सजा दी गयी थी । इसी समय ब्रिटिश राज द्वारा प्रेस का उत्पीड़न शुरू हुआ था, और होती लाल वर्मा, राम हरि, नन्द गोपाल और लढ़ राम आदि संपादकों को,  जो उस अखबार से जुड़े थे , राजद्रोह के आरोप में दस वर्ष के लिए जिला बदर कर दिया गया था। विद्यार्थी जी ऐसे ही वातावरण में स्वराज्य के साथ जुड़े। इलाहाबाद से ही निकलने वाले पत्र ,कर्मयोगी और अभ्युदय के वे नियमित स्तंभकार भी रहे । अपने लेखों और विचारों के कारण वे भी प्रेस क़ानून के चंगुल से बच नहीं सके और बाद में वे इलाहाबाद से कानपुर आ गए ।

कानपुर से  ' प्रताप ' पत्र का सम्पादन इन्होंने शुरू किया, और चंपारण के निलहे किसानों की व्यथा, प्रवासी भारतीय जो अंग्रेजों द्वारा देश के बाहर अन्य उपनिवेशों में ले जाए जा रहे थे के कष्टों एवं कानपुर के श्रमिकों के सन्दर्भ में  नियमित लिखना शुरू किया । उनका लेखन बहुत सधा हुआ था और विचार अत्यंत स्पष्ट थे । अपनी स्थापना के एक वर्ष बाद ही 1914 में प्रताप का प्रथम विशेषांक निकला।  इसे राष्ट्रीय अंक नाम दिया गया । साठ पृष्ठों के इस पत्र की कीमत चार आना रखी गयी थी । इस अंक के लेखकों में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, मैथिलि शरण गुप्त , मुंशी प्रेम चंद, विद्यावती सेठ, सैयद हैदर हुसैन, बद्रीनाथ भट्ट, श्रीमती बाला जी, सत्यनारायण कविरत्न, और जनार्दन भट्ट जैसे लेखक थे । एक वर्ष में प्रताप और विद्यार्थी जी ने पत्रकारिता के क्षेत्र में अपना एक विशिष्ट स्थान बना लिया था ।

प्रताप के अँगरेजी राज विरोधी लेखों और विचारों ने कानपुर के प्रशासन के कान खड़े कर दिए। एक रोचक प्रकरण प्रताप के कार्यालय पर पुलिस के छापे का इस प्रकार है । कानपुर के डी एस पी ने प्रताप कार्यालय पर छापा मारा। उनके साथ तत्कालीन कोतवाली कानपुर के इन चार्ज बाक़र अली थे। दोनों प्रताप कार्यालय पहुंचे और कार्यालय को पुलिस ने घेर लिया। प्रताप कार्यालय के संपादक के कक्ष में एक मेज़ और दो कुर्सी पडी रहती थी । एक कुर्सी संपादक के लिए और दूसरी आगंतुक के लिए। पर जब छापा पड़ा तो संपादक के कार्यालय में एक कुर्सी पर डी एस पी और दूसरी पर बाक़र अली बैठ गए। इस पर विद्यार्थी जी ने आपत्ति की और बाक़र अली को कुर्सी खाली करनी पडी। तब विद्यार्थी जी अपनी कुर्सी पर बैठे और छापे का सामना किया । हालांकि उस छापे में पुलिस को कुछ भी आपत्ति जनक नहीं मिला । प्रताप प्रेस और अखबार , विद्यार्थी जी के अतुलनीय बलिदान, श्रम और अदम्य साहस का प्रतिफल था ।1919 में उन्होंने इसे एक ट्रस्ट के रूप में बदल दिया।  इसके न्यासियों में मैथिलि शरण गुप्त, डॉ जवाहर लाल रोहतगी, फूल चंद और शिव नारायण मिश्र वैद्य और स्वयं विद्यार्थी जी थे । 

बनारसी दस चतुर्वेदी के शब्दों में , गणेश शंकर विद्यार्थी ने न केवल हिंदी पत्रकारिता में निर्भीक और सार्थक युग की शुरुआत की , बल्कि , उन्होंने निर्भीक पत्रकारों की एक बड़ी जमात भी खड़ी की। विद्यार्थी जी , मूलतः आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के शिष्य थे।  आचार्य उस समय की अत्यन्त प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका ' सरस्वती 'के सम्पादक थे। आचार्य द्विवेदी ने आधुनिक हिंदी साहित्य के साथ साथ हिंदी भाषा के खड़ी बोली के स्वरुप का निर्धारण किया। हिंदी साहित्य के इतिहास में उनका अप्रतिम योगदान है। उस समय जो अन्य प्रमुख लेखक पत्रकार , विद्यार्थी जी से जुड़े थे , उनमें से , बाल मुकुंद गुप्त , लक्ष्मी नारायण गर्दै , बाबूराव विष्णु पराड़कर , आदि थे।  साथ ही , उनके सहयोगियों में से बनारसी दास चतुर्वेदी , वृंदावन लाल वर्मा , कृष्ण दत्त पालीवाल , बाल कृष्ण शर्मा नवीन , दशरथ प्रसाद द्विवेदी , माखन लाल चतुर्वेदी आदि अन्य अन्य विभूतियाँ भी थीं।  

1931 का साल देश के इतिहास में अत्यन्त उथल पुथल भरा रहा। इसी साल 27 फरवरी को , इलाहबाद में चन्द्रशेखर आज़ाद शहीद हुए। आज़ाद हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के संस्थापकों में से थे। भगत सिंह भी इसी संगठन के थे। इस संगठन को विद्यार्थी जी और प्रताप का खुला समर्थन था। उनका घर और कार्यालय ,  क्रांतिकारियों के गोपनीय गतिविधियों का केंद्र भी हुआ करता था। इसी साल 1931 को , 23 मार्च को , भगत सिंह , राजगुरु , और सुखदेव को लाहौर सेन्ट्रल जेल में फांसी पर लटका दिया गया था। अगर आप स्वाधीनता संग्राम की इतिहास यात्रा का अध्ययन करेंगे तो एक हैरान करने वाला रोचक तथ्य यह मिलेगा कि , जैसे जैसे आज़ादी की जंग तेज़ होती गयी , वैसे वैसे ही हिन्दू मुस्लिम वैमनस्य बढ़ता गया। अँगरेज़ 1857 के विप्लव का  प्रमुख विन्दु , कि दोनों धार्मिक समुदायों की एकता का वह प्रतिफल था , भूले नहीं थे। देश का साम्प्रदायिक वातावरण बिगड़ रहा था। उसी समय इलाहबाद में दंगा भड़का और उसका असर कानपुर तक आया। उसी समय कानपुर के चौबेगोला क्षेत्र में दंगा भड़क गया। विद्यार्थी जी बहुत लोकप्रिय थे और वे दोनों ही समुदायों में सामान रूप से सम्मानित भी थे। वे इस दंगे के बीच बचाव के लिए चौबेगोला गए और वहीं आज ही के दिन 25 मार्च को उनकी हत्या हो गयी।  उनका युद्ध अंग्रेज़ों के खिलाफ था। वे हिन्दू मुस्लिम एकता के प्रबल पक्षधर भी थे। पर वे उसी पागलपन और उन्माद  शिकार हुए जिसके विरोध में वे आजीवन खड़े रहे। उनका शव तत्काल।  उन्हें उस समय गुमशुदा घोषित किया गया था। पर बाद में उनका शव बरामद हुआ था। उस समय उनकी उम्र चालीस वर्ष थी।  यह एक सपने का अंत था । 

गांधी जी ने उनके मृत्यु पर अपने पत्र यंग इंडिया में उनके दुखद निधन के बारे में जो लिखा वह इस प्रकार है ,
 "I do not know if the sacrifice of Mr. Ganesh Shankar Vidyarthi has gone in vain. His spirit always inspired me. I nvy his sacrifice. Is it not shocking that this country has not produced another Ganesh Shankar? None after him came to fill the gap. Ganesh Shankar's Ahimsa was perfect Ahimsa. My Ahimsa will also be perfect if I could die similarly peacefully with axe blows on my head. I have always been dreaming of such a death, and I wish to treasure this dream. How noble that death will be,—a daggar attack on me from one side; an axe blow from another; a lathi wound administered from yet another direction and kicks and abuses from all sides and if in the midst of these I could rise to the occasion and remain non-violent and peaceful and could ask others to act and behave likewise, and finally I could die with cheer on my face and smile on my lips, then and then alone my Ahimsa will be perfect and true. I am hankering after such an opportunity and also wish Congressmen to remain in search of such an opportunity."

कानपुर में उस स्थान पर एक स्मारक है जहाँ वह शहीद हुए थे। इसके अतिरिक्त कानपुर मेडिकल कॉलेज का नाम और यहाँ के  स्थल फूल बाग़ का नाम गणेश शंकर विद्यार्थी के नाम है। 1962 में भारत सरकार ने उनके सम्मान में डाक टिकट जारी किया था और 1989 में उनके नाम पर पत्रकारिता में योगदान के लिए पुरस्कार की व्यवस्था की गयी है।  आज जब कि कॉरपोरेटीकरण की आंधी में कभी मिशन के रूप में प्रचलित पत्रकारिता , जब क्रोनी जर्नलिज़्म या गिरोहबंद पत्रकारिता में तब्दील हो रही है तो ऐसे हुतात्मा की याद आना स्वाभाविक है।
गणेश शंकर विद्यार्थी को विनम्र श्रद्धांजलि !!

( विजय शंकर सिंह )

Wednesday, 23 March 2016

धर्म और राजनीति के घाल मेल पर डॉ लोहिया / विजय शंकर सिंह



शायद ही कोई भारतीय चिन्तक ऐसा हो जो भारत में विद्यमान धर्म या धर्मों से प्रभावित न हुआ हो। डॉ लोहिया भी इसके अपवाद नहीं  रहे । डॉ लोहिया के समय भारतीय राजनीति में धर्म को मिलाने और राजनीतिक सत्ता की तुलना में उसे सर्वोपरि मानने का प्रयास भी चल पड़े थे, ऐसी स्थिति में तत्कालीन भारतीय समाज और धर्म के प्रति लोहिया भी सोचते रहे और उनके सोच और कर्म में यह देखने को मिला कि वे ईश्वर के बारे में रूढि़वादी मान्यताओं में कम ही विश्वास रखते थे, यहाँ तक कि वे ईश्वर अस्तित्व को भी मानने से इंकार करते रहे लेकिन जब ध्यान से हम उनके चरित्र का अध्ययन करेंगे तो पायेंगे कि उन्हें अन्तर्भूत विराट शक्तियों से कभी इंकार नहीं था। डॉ लोहिया से एक बार किसी ने व्यंग्य से कहा कि, अभी आप को ईश्वर पर यकीन नहीं है , पर जब उम्र ढलेगी तो ईश्वर पर विश्वास खुद ही हो जाएगा। लोहिया इस बात पर खिलखिला उठे और कहा कि , तुम्हारा ईश्वर भी बुढ़ौती में कमज़ोर होने पर ही सताता है क्या ? वह नास्तिक थे पर देश के अद्भुत सांस्कृतिक फलक के साथ उनका तादात्म्य सदैव बना रहा । वह देश की राजनीति में धर्म के घाल मेल के विरुद्ध थे। जब गोरक्षा के आंदोलन में दिल्ली में भीड़ उमड़ी तो उन्होंने कहा कि ऐसी चेतना और उत्तेजना रोटी, भूख और सामाजिक गैरबराबरी के खिलाफ क्यों नहीं उमड़ती है। उन्हें धर्म के कर्मकाण्ड से घृणा थी पर धर्म के उदात्त दर्शन के प्रति उनका आकर्षण साफ़ दिखता है । 

राम मंदिर आंदोलन की शुरुआत 1989 में न तो राम के प्रति श्रद्धा और मोह के कारण हुयी थी और न ही वह स्वाभिमान का स्वतः जागरण था। वह देश के दो प्रमुख दलों कांग्रेस और भाजपा की सत्ता हथियाने की कुटिल चाल थी । राम दोनों ही दलों द्वारा छले गए और दोनों के ही स्वार्थ पूर्ति का साधन बने । लेकिन इस आंदोलन के पचीस वर्ष पूर्व ही डॉ लोहिया ने रामायण मेला की शुरुआत कर के राम को लोक फलक पर एक सांस्कृतिक चेतना के रूप में ला दिया । रामायण मेला की शुरुआत चित्रकूट से हुयी थी, जहाँ तुलसी दास ने राम कथा कही थी और जहाँ राम ने अपने बनवास के सबसे सुन्दर वर्ष बिताये थे । लोहिया ने रामायण मेले के अन्तर्राष्ट्रीय महोत्सव की एक बड़ी ही मोलिक तथा विराट परिकल्पना की थी। राम उनके लिए धार्मिक अवतार नहीं बल्कि सांस्कृतिक पुरुष थे। राम , कृष्ण और शिव उनके अद्भुत प्रेरणा श्रोत थे । वे प्रार्थना करते हैं ,
‘हे भारतमाता! हमें शिव का मस्तिष्क दो, कृष्ण का हृदय और राम का कर्म और वचन दो। हमें असीम मस्तिष्क और उन्मुक्त हृदय के साथ जीवन की मर्यादा से रचो।’
यह प्रार्थना उनके व्यक्तित्व और विचारधारा के एक अलग और विलक्षण पक्ष का दर्शन कराती है। वे राम को आदर्श मानते तो पर सीता त्याग और सीता की अग्नि परीक्षा के मुद्दों पर वे राम की आलोचना भी करते हैं। राम राज्य उनका आदर्श नहीं है बल्कि वे सीता राम राज्य की कल्पना करता है। वे इस प्रकार आज के युग में प्रचलित और ज्वलंत प्रकरण नारी विमर्श की प्रस्तावना भी लिख देते हैं ।

लोहिया ने तुलसी के राम चरित मानस को महानतम ग्रन्थ बताया है और मानस पर वे कहते हैं ,
"कहा कि तुलसी की कविता से अनगिनत ऐसी सूक्तियां एवं लोकोक्तियाँ निकली है, जो थके-हारे, टूटे निराश आदमी को टिकाती है, साहस देती है और सीधे रखती है। साथ ही उसमें ऐसी कविता है जो एक बहुत ही क्रूर अथवा क्षणभंगुर धर्म से जुड़ी हुई है। ऐसी कविता मोतियों के बीच कूड़ा सी परिलक्षित होती हैं और मोती चुंगने के लिए कूड़ा निगलना जरूरी नहीं, न ही कूड़ा साफ करते वक्त मोती फेंकना।’’
डॉ लोहिया से जब विवादित चौपाई , ढोल गंवार शूद्र पशु नारी, के बारे में सवाल किया जाता था तो वह इस प्रकरण को हँस कर टाल देने का सुझाव देते थे।  उन्होंने कहा कि,
"हमें रामायण की उन पंक्तियों को जिसमें नारी को कलंकित किया गया है और शूद्रों को दीन हीन बनाया गया है, हँसकर टाल देना चाहिए। '
वे आगे कहते हैं ,
‘‘मैं उन लोगों में नहीं जो चैपाइयों के अर्थ की खींचतान करते हैं, अथवा 100 चैपाइयों के मुकाबले में केवल विपरीत चैपाई का उदाहरण देकर अपनी बात को मनवाना चाहते हैं। किसी चौपाई के सैकड़ो मतलब बनाने में न तुलसी की प्रतिभा है, न बताने वाले की। विद्वता तो इसी में है कि सभी संभव अर्थो पर टीका करते हुए सबके अर्थ को स्थिर करना।’’
मानस के सन्दर्भ में, इतने उदार विचार डॉ लोहिया के ही हो सकते हैं। लोगों ने इस चौपाई के अर्थ और व्याख्या में न जाने कल्पना के कितने वितान ताने हैं । मानस के बारे में वे यह भी कहते हैं,
" पिछड़े वर्गों और स्त्रियों को लेकर जहाँ-जहाँ रामायण में अतिरेक है, इसे समय का दोष और कवि को समय का शिकार समझकर इस महान ग्रंथ का रसपान करना चाहिए।
डॉ लोहिया ने जब अपनी आँखों से देखा कि कुछ धर्म के ठेकेदार धर्म को राजनीति में मिलाकर गलत उपयोग कर रहे हैं और साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दे रहे हैं तो लोहिया ने कहा-
‘‘धर्म और राजनीति के दायरे अलग-अलग हैं, पर दोनों की जड़ें एक हैं, धर्म दीर्घकालीन राजनीति है, राजनीति अल्पकालीन धर्म है। धर्म का काम है, अच्छाई करे और उसकी स्तुति करे। राजनीति का काम है बुराई से लड़े और उसकी निन्दा करे। जब धर्म अच्छाई न करे केवल स्तुति भर करता है तो वह निष्प्राण हो जाता है और राजनीति जब बुराई से लड़ती नहीं, केवल निन्दा भर करती है तो वह कलही हो जाती है। इसलिए आवश्यक है कि धर्म और राजनीति के मूल तत्व समझ में आ जाए। धर्म और राजनीति का अविवेकी मिलन दोनों को भ्रष्ट कर देता है, फिर भी जरूरी है कि धर्म और राजनीति एक दूसरे से सम्पर्क न तोड़ें, मर्यादा निभाते रहें।’’

धर्म और राजनीति के अविवेकी मिलन से दोनों भ्रष्ट होते हैं, इस अविवेकपूर्ण मिलन से साम्प्रदायिक कट्टरता जन्म लेती है। डॉ लोहिया भारत के बंटवारे के प्रबल विरोधी थे। वे उस समय कांग्रेस में तो सक्रिय थे पर उनका कद इतना बड़ा नहीं था कि वे बंटवारे के विरोध में खड़े हो सकें या कोई आंदोलन करते।  वे नेहरू के प्रखरतम आलोचक रहे है और अपनी पुस्तक भारत विभाजन के दोषी में कांग्रेस के प्रथम पंक्ति के सभी बड़े नेताओं की उस मूक सहमति पर सवाल उठाते हैं जो भारत के बंटवारे के मुद्दे पर जिन्ना और उनकी मुस्लिम लीग से बातचीत कर रहे थे। यह धर्म का राजनीति के साथ मिलावट का सबसे जहरीला काल था। लोहिया ने तभी कह दिया था कि यह बंटवारा 25 साल से अधिक नहीं चलेगा और 1971 में ही उनकी भविष्यवाणी सच साबित हो गयी और धर्म , राष्ट्र का आधार हो सकता है यह सिद्धांत खंडित हो गया । धर्म और राजनीति को अलग रखने का सबसे बड़ा मतलब यही है कि साम्प्रदायिक कट्टरता से बचा जाय। राजनीति के दण्ड और धर्म की व्यवस्थाओं को अलग रखना चाहिए नहीं तो, दकियानूसी बढ़ सकती है और अत्याचार भी। लेकिन फिर भी जरूरी है कि धर्म और राजनीति सम्पर्क न तोड़े बल्कि मर्यादा निभाते हुए परस्पर सहयोग करें। लोहिया ने कहा कि
"आज राजनीति के क्षेत्र में धर्म ने जाने-अनजाने धकियानूसी, प्रतिक्रियावादी, गुलामी और सामप्रदायिकता को बढ़ावा दिया है।
डॉ लोहिया का यह वाक्य भारतीय समाज और राजनीति के लिए सटीक है और आज भी प्रासांगिक है।

23 मार्च को डॉ लोहिया के जन्म दिवस पर उनका विनम्र स्मरण !!
( विजय शंकर सिंह )

Wednesday, 9 March 2016

विजय माल्या फरार नहीं हुए हैं ! / विजय शंकर सिंह

विजय माल्या फरार नहीं हुए है ! उन्होंने देश छोड़ा है। वे भला फरार कैसे हो सकते हैं ? वे तो देशभक्त है । याद है न, वे टीपू सुलतान की तलवार और गांधी जी से जुडी कुछ वस्तुएं नीलाम में ले कर आये थे। उनका जज़्बा , उनकी देशभक्ति का पूरा देश कायल था कभी। 7000 करोड़ की ही तो बात है। आधा प्रतिशत बैंक उबारू सेस लगा कर सारे बैड लोन , को गुड लोन में बदल सकते हैं। सरकार को इस पर विचार करना चाहिए ! वे मेरे नाम राशि हैं। पर उन्हें मैं बिलकुल नहीं जानता हूँ। मिलने का तो सवाल ही नहीं। पर उनकी कहानियां ज़रूर अखबारों में पढ़ा हूँ। उनका कैलेण्डर भी देखा है और मुझे वह पसंद भी आया है। आज जब समाचार देखा तो पता चला कि उधर ये मंहगे वकीलों की फ़ौज़ लिए उन्हें रोकने को आमादा थे और वे चुपचाप खिसक लिए। पता नहीं लुक आउट नोटिस थी भी या नहीं। या सब महठिया गए थे, या मानवता जाग गयी थी, राम जाने क्या हुआ था, वे परदेस निकल गए।

यह पहली महाभिनिष्क्रमण टाइप फरारी नहीं है, और न ही आखिरी ही होगी। याद कीजिए क्वात्रोची सर को। वे भी सरक गए थे, जब बोफोर्स की तोप गरजने लगी थी तो। उनसे पहले एक एंडरसन जनाब थे। भोपाल में जो हवा इन्होंने छोड़ी थी उसका असर आज तक भी है। वह भी जब मामला गरमाया तो निकल लिए। शोर तो मचा। संसद में भी और सड़क पर भी। शोर उन्होंने भी मचाया जो चाहते थे भाग जाएँ। पर हुआ कुछ नहीं। किसी का इंटरेस्ट एंडरसन के भाग जाने पर था तो कोई मायके के मोह से पीड़ित निकला और उधर जांच की केस डायरी में दरोगा जी ने परचा काटा और मुल्ज़िम फरार। चिल्लाते रहें कप्तान साहब, अब मूलज़िम फरार तो फरार।

तीसरा किस्सा जो मुझे याद है, ललित मोदी का। यह कथा अत्यंत लालित्य समेटे हैं। कभी यह सज्जन क्रिकेट में अभिनव प्रयोग के लिए याद किये जाते थे। खिलाड़ी पहली बार नीलाम हुए। उनकी पैंठ लगी जैसे पशु मेले लगते हैं। जिसे क्रिकेट के बॉल का वज़न और क्रीज़ का कदम भी पता न हो वह भी अजीबोगरीब नाम धर कर खरीदना लगा। नयी पीढी तो पगला ही गयी। अच्छा है इसी खेल तमाशे में उलझी रहे, अन्यथा सोचने और पढ़ने लगेंगे तो आफत ही जोत देंगे ! खूब पैसा आया। धन और नेता का सम्बन्ध गुड़ च्यूंटे जैसा है। धकाधक नेता खेल में आये। और जब नेता इसमें आये तो पूंजीपति भी शामिल हो गए। यह खेल जिसे अंग्रेज़ बड़े शान से गेम ऑफ़ द लॉर्ड्स यानी भद्र लोगों का खेल कहते थे, भारत में आ कर , कलियुग के चौथे पन में दलालों, भ्रष्ट राजनीतिज्ञों, अफसरों और सट्टेबाजों का खेल बन गया। यही ललित मोदी , किसी समय राजस्थान के सत्ता के बरामदे में सबसे चहेते चेहरे थे और वसुंधरा जी के नाक के बाल थे। पर नाक का बाल ऐसा इरेज हुआ कि सीधे टेम्स के किनारे दिखा। फिर शुरू हुआ, कौआ रोर। कैसे भागा, कौन भगाया, कब भागा और न जाने क्या क्या । चिल्ला और पूछ सभी रहे थे, जिसने भगाया वह भी और जिसे कुछ मालुम नहीं था तो वह तो शोर मचायेगा ही। बाद में इस ललित कथा में एक मोड़ भी आया। सरकार ने चुपके से मदद की, सोचा कि किसी को पता ही नहीं चलेगा , बात आयी गयी हो जायेगी। पर जब से कर लो दुनिया मुट्ठी में का परम ज्ञान सब को प्राप्त हो गया है, यह बात भी खुल ही गयी। फिर क्या था। हम सब तो परम तार्किक परम्परा के ठहरे। एक नंबर के आर्गुमेंटेटिव। कह दिया कि , उनकी पत्नी बीमार थी, तो मानवीय आधार पर मदद कर दी। चलिए कहा सुना माफ़ किया। नियम भी है एम्बुलेंस को सबसे पहले वरीयता दी जाय!

पर यह सारी मानवी भावनाएं धन पशुओं के लिए ही क्यों जागती हैं ? यह सवाल न तो नया है और न ही इसका उत्तर भी सबके लिए अनजान है। दर असल मानवीय भावनाएं जागती हैं या नहीं पर वे एक आड़ के रूप में ज़रूर सामने आती हैं। जितना क़र्ज़ देश के बड़े पूंजीपतियों पर बकाया है और जितना वह डूब गया है या डूबने की कगार पर है, उसका 10 प्रतिशत अंश कृषि क्षेत्र में किसानो पर है।मैंने किसी भी बड़े पूंजीपति को क़र्ज़ में डूब जाने पर आत्म हत्या करते नहीं देखा है। मध्यम स्तर के व्यापारियों को ज़रूर क़र्ज़ डूबने पर आत्म हत्या करते सुना है, पर देश में हर हफ्ते किसान आत्म हत्या कर रहे हैं यह खबर आती तो है पर अब झकझोरती नहीं है।

2014 में 5642 किसानों ने आत्महत्या कर ली। हिन्दू अखबार की एक रिपोर्ट के अनुसार महाराष्ट्र में 2001 से लेकर 2015 तक 20,504 किसानों ने आत्महत्या की है। 26 फरवरी 2016 के इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट में लिखा है कि महाराष्ट्र के मराठवाड़ा में 2015 में 1100 किसानों ने आत्महत्या की और इस साल जनवरी-फरवरी में 139 किसानों ने आत्महत्या की है। कर्ज़ न चुका पाना आत्महत्या का बड़ा कारण है।

अब जरा आंकड़ों पर नज़र डालें।
2013 से 2015 के बीच भारत के सरकारी बैंकों ने बड़ी-बड़ी कंपनियों का 1.14 लाख करोड़ का डूबा हुआ कर्ज़ माफ़ कर दिया। देश के क़रीब आधे किसान कर्ज़ में डूबे हैं। इनमें से 42 फीसदी बैंकों के कर्ज़दार हैं और 26 फीसदी महाजनों के कर्ज़दार हैं।
31 मार्च, 2015 तक देश के टॉप पांच बैंकों का 4.87 लाख करोड़ रुपया सिर्फ़ 44 बड़ी कंपनियों पर बकाया था। ये सभी बकाएदार वो हैं जिन पर पांच हज़ार करोड़ से ज़्यादा का बकाया है। स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने ऐलान किया है कि 21,313 करोड़ का कर्ज़ अब वापस नहीं मिल सकता।
लेकिन क्या ऐसी पहल छोटे क़र्ज़ लेने वाले किसानों या मध्यम दर्जे के व्यापारियों के लिए किसी बैंक ने कभी की है ? शायद नहीं।

विजय माल्या की कंपनी किंगफिशर एयरलाइन्स जो अब बंद हो चुकी है और इस पर 17 कर्ज़दाताओं के 7800 करोड़ रुपए बकाया हैं। स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया के 1600 करोड़ रुपया किंगफिशर पर बाकी हैं। बाकी कर्ज़दाताओं में पंजाब नेशनल बैंक, बैंक ऑफ बड़ौदा, ककनरा बैंक, बैंक ऑफ़ इंडिया, सेंट्रल बैंक ऑफ़ इंडिया, फेडरल बैंक, यूको बैंक और देना बैंक शामिल हैं। किंगफिशर एयरलाइंस ने घाटे में जाने के बाद जनवरी 2012 से कर्ज़ चुकाना जाना बंद कर दिया था। पिछले साल स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने माल्या को विलफुल डिफॉल्‍टर यानी जानबूझकर कर्ज़ ना चुकाने वाला घोषित कर दिया। पंजाब नेशनल बैंक ने भी विजय माल्या उनकी कंपनी यूनाइटेड ब्रुअरीज़ होल्डिंग्स और किंगफिशर एयरलाइंस को विलफुल डिफॉल्‍टर घोषित किया था।

इस बीच स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया विजय माल्या के ख़िलाफ़ डेट रिकवरी ट्रि‍ब्यूनल चला गया। स्टेट बैंक ने कहा कि डियाजिओ कंपनी से यूपी ग्रुप के प्रमोटर विजय माल्या को 515 करोड़ रुपए मिल रहे हैं, उस पर कर्ज़दारों का पहला हक़ होना चाहिए। बैंक ने डेट रिकवरी ट्रिब्यूनल से कहा है कि माल्या के ख़िलाफ़ कार्रवाई की जाए। ट्रिब्यूनल ने प्राथमिकता के आधार पर सबसे पहले उस याचिका को लिया जिसमें डियाजिओ से मिली रकम पर पहला हक़ कर्ज़दाताओं का बताया गया है। विजय माल्या के वकील होला ने कहा कि उनके मुवक्किल रिलायंस जैसी बड़ी कंपनियों के मुक़ाबले बहुत छोटे डिफ़ॉल्टर हैं। उनका आरोप है कि बैंक छोटे डिफॉल्टरों को परेशान कर रहे हैं जबकि बड़े डिफॉल्टरों को छोड़ रहे हैं। उन्होंने रिज़र्व बैंक का हवाला देते हुए कहा कि बैंक बड़ी मछलियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई नहीं करते हैं। कई कंपनियों ने तो चालीस हज़ार करोड़ तक का डिफ़ॉल्ट किया है और उन्हें कुछ नहीं होता। मतलब अभी और भी बड़े बड़े क़र्ज़ खोर बैठे हैं। माल्या सर तो बेचारे हैं !

इंडियन एक्सप्रेस ने आरटीआई के ज़रिये पता किया है कि सरकारी बैंकों ने पिछले तीन साल में 1 लाख 14 हज़ार करोड़ रुपये माफ किये हैं। जिसे अंग्रेजी में राइट ऑफ कहते हैं। भारत के प्रधान न्यायाधीश जस्टिस टी.एस. ठाकुर की बेंच ने कहा है कि लोगों पर सरकारी बैंकों के हज़ारों करोड़ रुपये के कर्ज़ हैं। यह सबसे बड़ा फ्रॉड है। 2015 में दस बड़े बैंकों ने 40,000 करोड़ के कर्ज़ माफ कर दिये। कोर्ट ने ऐसे लेनदारों की सूची भी मांगी है जिन्होंने 500 करोड़ से अधिक के कर्ज़ लिये हैं।

क्या सरकार और रिजर्व बैंक कोई ऐसा दंडात्मक प्राविधान बनाएंगे जिस से देश के कर से प्राप्त धन का ऐसा बन्दर बाँट न हो ने पाये ?
( विजय शंकर सिंह )