Wednesday, 29 January 2020
जनवरी 30 1948, के पहले गांधी जी की हत्या के प्रयास की क्रोनोलॉजी / विजय शंकर सिंह
कुणाल कामरा पर प्रतिबंध सिविल एविएशन के नियमों के विरुद्ध है / विजय शंकर सिंह
आज से कुछ माह पहले बम ब्लास्ट के आतंकी मामले में अभियुक्त और भाजपा की भोपाल से सांसद प्रज्ञा ठाकुर ने जहाज में ही एक खिड़की वाली सीट के लिये हंगामा किया था। हंगामा इतना बढ़ा कि सहयात्री भी उनसे उनकी ज़िद छोड़ने के लिये और उन्हें जो सीट आवंटित थी, वहां जाने के लिये कहने लगे। काफी तमाशा हुआ। पर तब न मंत्री का कोई ट्वीट ऐडवाज़ारी जारी हुआ और न एयरलाइंस ने उनको प्रतिबंधित किया। वे तो एक अभियुक्त हैं। अभियुक्त भी बम ब्लास्ट की आतंकी घटना का। अगर सरकार और प्रतिष्ठान नियम कानूनो को लागू करते समय दोहरी दृष्टि का उपयोग करेंगे तो जनता से ही केवल यह अपेक्षा करना कि वह कानून का पालन करे, यह कानून का मज़ाक बनाना है।
Tuesday, 28 January 2020
सीएए से क्या हमारी अंतरराष्ट्रीय साख भी गिरी है ? / विजय शंकर सिंह
Saturday, 25 January 2020
विडंबना है कि लोकतंत्र के महापर्व के लिये हम एक लोकतंत्र समर्थक मुख्य अतिथि भी नहीं पा सके ! / विजय शंकर सिंह
गणतंत्र दिवस 2020 की आप सबको बधाई और अनंत शुभकामनाएं। आज 26 जनवरी को राजपथ पर सेना और पुलिस के जवान एक भव्य परेड करेंगे, राज्य अपनी अपनी संस्कृति की झांकिया प्रस्तुत करेंगे और देश मे एक उत्सव का माहौल रहेगा। 26 जनवरी की परेड देश के लिये एक बेहद अहम परेड होती है। जिसमे देश के आमंत्रण पर एक विदेशी राष्ट्राध्यक्ष भी मुख्य अतिथि के रूप में भाग लेते हैं। यह परंपरा बहुत दिनों से चली आ रही है। इस बार ब्राजील के राष्ट्रपति इस लोकतंत्र के महापर्व के मुख्य अतिथि हैं।
गणतंत्र दिवस समारोह के लिए मुख्य अतिथि कौन होगा इसका फैसला लंबे विचार-विमर्श के बाद किया जाता है। मुख्य अतिथि को लेकर फैसला भारत के राजनयिक हितों को ध्यान में रखकर किया जाता है। विदेश मंत्रालय भारत और उसके करीबी देश के बीच संबंधों को ध्यान में रखकई कई मुद्दों पर विचार करता है। जिसके बाद मुख्य अतिथि को निमंत्रण दिया जाता है। कई मुद्दों पर चर्चा की जाती है इनमें राजनीतिक, आर्थिक, और वाणिज्यिक संबंध, सैन्य सहयोग आदि शामिल हैं।विदेश मंत्रालय विचार-विमर्श के बाद अतिथि को निमंत्रण देने के लिए प्रधानमंत्री की मंजूरी लेता है। जिसके बाद राष्ट्रपति भवन की मंजूरी ली जाती है. मंजूरी मिलने के बाद जिस देश के व्यक्ति को मुख्य अतिथि के रूप में चुना जाता है. उस देश में भारत के राजदूत अतिथि की उपलब्धता का पता लगाने की कोशिश करते हैं। इसके बाद विदेश मंत्रालय की तरफ से बातचीत शुरु होती है और अतिथि के लिए निमंत्रण भेजा जाता है। गणतंत्र दिवस के लिए मुख्य अतिथि अन्य देशों की रुचि और अतिथि की उपलब्धता के आधार पर किया जाता है.
ब्राजील के राष्ट्रपति जाएर बोलसोनारो के बारे में कुछ लिखा जाय उसके पहले उनका एक प्रसिद्ध उद्धरण पढ़ लें।
“I wouldn’t rape you because you are ugly and you don’t deserve it....
( "मैं तुम्हारा बलात्कार नहीं करूंगा क्यूंकि तुम इस लायक भी नहीं हो." )
यह बयान वर्ष 2014 के सितम्बर महीने में भरी संसद में जब बोल्सोनारो संबोधित कर रहे तो उन्होंने लेफ़्टिस्ट वर्कर्स पार्टी की सांसद मारिया डो रोज़ारियो से कहा था । ऐसा कहने के बाद जाइर ने धक्का देने के मकसद से मारिया के सीने में एक छोटा-मोटा मुक्का भी धर दिया। बाद में एक अख़बार ने जब उनसे इस बारे में सफ़ाई मांगी तो उन्होंने कहा कि वो रेपिस्ट तो नहीं हैं लेकिन अगर होते तो मारिया का रेप नहीं करते क्यूंकि मारिया बदसूरत हैं और उनके टाइप की नहीं हैं. ये जाइर बोल्सोनारो इस महान देश के 71वें गणतंत्र दिवस में मुख्य अतिथि हैं। जाएर बोलसोनारो एक घोर दक्षिणपंथी माने जाते हैं और राष्ट्रपति बनने के बाद ब्राज़ील की समाजवाद से आज़ादी की घोषणा कर दी थी। बीस सालों से सैनिक तानाशाही देख चुकने वाली ब्राज़ील की जनता के बारे में उनका कहना है कि तानाशाही अभी उसने देखी ही कहाँ है। यानी वे अभी और दिखाएंगे।
जाएर बोल्सोनारो के कुछ और बयान नीचे हैं, ज़रा इनपर भी दृष्टिपात कर लें।
● अगर मेरा बेटा समलैंगिक होगा तो मैं उसे प्यार नहीं करूंगा. बजाय इसके कि मेरा बेटा किसी दिन एक पुरुष के साथ अपने घर में दिखाई दे, मैं चाहूंगा कि वो किसी एक्सीडेंट में मर जाए.
● मैं समलैंगिकता के ख़िलाफ़ लड़ूंगा नहीं और न ही किसी भी तरह का भेदभाव करूंगा लेकिन अगर मुझे दो पुरुष एक दूसरे को चूमते दिख गए तो मैं उन्हें पीट के रख दूंगा.
● मेरे 5 बच्चे हैं. लेकिन पांचवें मौके पर मैं कुछ कमज़ोर पड़ गया और मुझे बेटी हो गई.
● मैं एक अफ़्रीकी कॉलोनी में गया और वहां सबसे हल्की महिला भी 230 पाउंड की थी. वो (वहां की महिलाएं) कुछ नहीं करतीं. उनका इस्तेमाल बच्चे पैदा करने तक के लिए नहीं किया जा सकता.
● (इमिग्रेशन के बारे में बात करते हुए) सारी दुनिया की गंदगी ब्राज़ील में आ रही है. जैसे हमारे निपटने के लिए हमारे पास पहले कम समस्याएं थीं।
उपरोक्त बयान में कुछ उनके निजी विचार हो सकते हैं, दक्षिणपंथ की तरफ भी उनका वैचारिक झुकाव हो सकता है पर उसके विचारों से ही किसी भी व्यक्ति की मानसिकता का अनुमान लगाया जा सकता हैं। 1999 में जब वह 44 साल के थे अपने एक टेलीविज़न इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि,
" चुनावों से कोई बदलाव आने वाला नही है इस देश मे. बदलाव उस दिन आएगा जब देश मे गृह युद्ध होगा और तब वो काम होगा जो मिलिट्री रूल नही कर पाया यानि 30000 लोगों का मारा जाना. यदि इसमे बेगुनाह मरते हैं तो कोई बात नही, हर युद्ध मे बेगुनाह मरते ही हैं ।"
उन्होंने यूएसए टुडे को 2016 मे दिए एक इंटरव्यू में कहा था कि दो दशकों की
"सैनिक तानाशाही की सबसे बड़ी ग़लती यही रही कि उसने लोगों को यातना दिया, मारा नही।"
अमेरिकी पत्रिका प्ले बॉय को दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि
" अपने बेटे की दुर्घटना में मृत्यु पसन्द करूँगा बजाय उसे किसी आदमी के साथ देखूँ, समलैंगिक बेटे को प्यार नही कर सकता । "
उपरोक्त विचारों के बाद रंगभेद पर इनके विचार भी जान लेना जरूरी है। नस्लीय घृणावाद इनके अंदर इतना भरा हुआ है कि,
काले लोगों के बारे में इनका कहना है कि
" वो महज चिड़ियाघर में भेजे जाने लायक़ हैं, वो कुछ नही करते, बच्चा पैदा करने लायक तक नही हैं। "
बीबीसी के अनुसार, इनका स्त्रीद्वेष इस हद विद्रूप और घृणा से भरा पड़ा है कि अपनी साथी कानूनविद जो महिला हैं के बारे में उनका कहना है कि
" वो इतनी बदसूरत हैं कि उनके साथ बलात्कार करना तक पसन्द नही करेंगे। " इस व्यक्ति के लिये सौंदर्य बलात्कार के जुगुप्सा भरे अपराध का प्रेरक तत्व है।
यही नही वर्ष 2016 में दिए अपने एक टीवी इंटरव्यू में 4 लड़कों के बाद एक लड़की के पैदा होने को उन्होंने कमज़ोरी का एक लम्हा बताया। यह एक निहायत ही स्त्रीद्वेषी मानसिकता है। उनके अनुसार बहुत सी स्त्रियाँ योग्य हैं मगर स्त्रियों को पुरुषों बराबर वेतन नही मिलना चाहिये क्योंकि वो मेटरनिटी लीव लेती हैं।
हाल ही में ब्राजील के अमेजन के जंगलों में भारी आग लग गयी थीं। पर्यावरण के विद्वान अमेजन के जंगलों को धरती का फेफड़ा कहते हैं। कहा जाता है कि, ये जंगल धरती को 20 % ऑक्सिजन आपूर्ति करते हैं। उन्ही अमेज़न के जंगलों को आग लगने पर कुछ भी न करने और उसे भड़काने का दोष भी कुछ पर्यावरण एक्टविस्ट इन्हें ही देते हैं। यूएनओ की जनरल असेंबली में दिए गए अपने एक भाषण में इन्होंने अमेजन की आग के बारे में कहा कि,
" यह भ्रामक धारणा है कि, अमेज़न के जंगल धरती का फेफड़ा हैं, कि वो पूरी मनुष्यता की थाती हैं, वो सिर्फ़ ब्राज़ील के हैं।"
एक महिला पत्रकार को धमकाते हुये इसने उसे वैश्या कहते हुये मैसेज किया और उसका जीवन इस तरह बर्बाद करने की धमकी दी कि वो अपने पैदा होने पर पछ्तायेगी! इस सनकी व्यक्ति के ऊपर सेना में रहते हुये अपने ही एक आर्मी सेक्शन में बम लगाने का आरोप लग चुका है और इनपर मानसिक रूप से अस्थिर होने का भी आरोप लग चुका है!
एफ्रो-ब्राजीलियन समुदाय को मिलने वाले आरक्षण (कोटा) का विरोध करते हुये इसने कहा अगर राष्ट्रपति बना तो कोटा ख़त्म नहीं कर सका लेकिन कम ज़रूर कर दूंगा। एफ्रो ब्राजीलियन समुदाय वह समुदाय है जो यूरोपियन देशों विशेषकर स्पेन, पुर्तगाल, फ्रांस द्वारा अफ्रीका के निवासियों को गुलाम बनाकर आज से दो सौ साल पहले दक्षिण अमेरिका के देशों में ले जाया गया था। उन्ही की संतानें जब ब्राज़ील के मूल निवासियों से मिलीं तो एफ्रो ब्राजीलियन नस्ल बनी। यह सभी गुलाम थे और उन्हें बेहतर जीवन के लिये आरक्षण की सुविधा दी गयी थी। उसी आरक्षण कोटे के विरोध में इन्होंने कहा था कि,
" उनकी दासता का कारण पोर्तुगीज नहीं बल्कि वो ख़ुद हैं इसलिए अब उनको आरक्षण देने की ज़िम्मेदारी हमारी नहीं है।"
पुर्तगाल ने ही अधिकार उपनिवेश खोजे थे जो बाद में ब्रिटेन, फ्रांस, स्पेन, हॉलैंड आदि के उपनिवेश बने।
ऐसा स्त्रीद्वेषी, नस्लीय घृणावाद से भरा रेसिस्ट,, पर्यावरण विरोधी और हत्यारी मानसिकता का राष्ट्रपति हमारे गणतंत्र दिवस का अतिथि है। यदि ब्राज़ील से द्विपक्षीय समझौते भी करने हो तब भी क्या गणतंत्र दिवस इसके लिये अनुकूल है? यह ऐसे राजनेता हैं जो एक नहीं, कई मायनों में एक सनकी तानाशाह है! ये भयंकर स्त्रीद्वेशी, होमोफोबिक, और आदिवासी-किसान विरोधी है! इनके उपर यौन शोषण के कई आरोप अब भी हैं। बल्कि एक पीड़िता,जो कि ब्राज़ील की सांसद भी रह चुकी थीं।
यह हमारे आज के अतिधि हैं। अतिथि बड़ा गूढ़ शब्द है। अतिथि यानी बिना तिथि के कोई आगंतुक आ जाय। जो भी बिना तिथि के आ जाय, जिसे हम जानते भी न हों तो भी उसका स्वागत है। यह एक महान परंपरा थी अनजान व्यक्ति के स्वागत की ऐसी उदार परंपरा हो सकता है कहीं और भी हो पर उसे देवता सरीखा सम्मान की बात तो शायद ही कहीं कही गयी हो। पर इन महोदय को तो एक अतिथि के रूप में तो, हमने चुना है और एक ऐसे अवसर के लिये चुना है जो हमारी थाती, विरासत, संस्कृति और महापर्व है। ब्राजील के राष्ट्रपति के स्त्री, वंचित और दलित समाज, पर्यावरण, विधि, आदि के लिये जिस प्रकार के विचार हैं वे हमारी परंपरा से बिल्कुल उलट है। हमारी विचार परंपरा, ऐसा भी नहीं है कि इन्ही 70 सालों के विकास का परिणाम हो, बल्कि यह सनातन काल से चली आ रही है। ऐसा भी नहीं कि हमारे यहां ऐसे विपरीत विचार के लोग जैसा कि ब्राजील के राष्ट्रपति के हैं, बिलकुल नहीं रहे हैं या हैं । ऐसे लोग थे और अब भी हैं, पर हमारे समाज ने उनको अपने विचारों पर हावी नहीं होने दिया।
ब्राजील का राष्ट्रपति न तो हमने चुना है और न यह हमारी समस्या है। लेकिन एक अतिथि के रूप में और वह भी एक ऐसे देश के लोकशाही के महापर्व पर जो अपनी बहुलतावादी और विराट संस्कृति के लिये विश्व विश्रुत है, उनका आमंत्रण विरोधाभासी है। वे एक राष्ट्राध्यक्ष के रूप में जब आएं उनका स्वागत किया जाना चाहिये पर इस पर्व पर उनका हमारे गणतंत्र दिवस के अवसर पर आना, आज आलोचना के केंद में है।
© विजय शंकर सिंह
अदनान सामी को पद्मश्री / विजय शंकर सिंह
Friday, 24 January 2020
शाहीनबाग में दीपक चौरसिया के साथ हुयी घटना अनुचित है / विजय शंकर सिंह
सीएए एनआरसी के विरोध में दिल्ली के शाहीनबाग में चल रहे प्रतिरोध सत्याग्रह में न्यूज़ नेशन के पत्रकार दीपक चौरसिया के साथ धक्का मुक्की और रोके जाने की घटना अनुचित है। भले ही यह घटना आंदोलन में शामिल कुछ थोड़े लोगों का ही काम हो, पर इसकी बदनामी के दाग, न केवल शाहीनबाग पर बल्कि देश मे जगह जगह हो रहे इसी तरह के स्वयंस्फूर्त आंदोलनों पर भी पड़ सकते है। बात मीडिया की ही नहीं है, बात उन आदर्शों की है जिनके नाम पर यह आंदोलन चल रहा है। गांधी के तरीकों पर चले आंदोलन गांधी के ही समय मे अहिंसक नहीँ रह पाए। न पहला असहयोग आंदोलन और न ही अंतिम भारत छोड़ो आंदोलन। पर हिंसा न हो यह सतर्कता तो किसी भी सत्याग्रह से जुड़े आंदोलन के लिये एक अनिवार्य शर्त है। इसे हर संभव प्रयास से बनाये रखना होगा।
यह घटना कितनी सच है, कितनी प्रायोजित यह तो धीरे धीरे सबको पता चल ही जायेगा, लेकिन अगर यह घटना प्रायोजित हो तब भी इस घटना का घटित होना, आंदोलन को ही बदनाम करेगा और पुलिस तथा आंदोलन विरोधियों को ऐसे आदोलनों के खिलाफ मुखरित होने का अवसर देगा। साथ ही, देश भर में हो रहे इस प्रकार के स्वयंस्फूर्त आंदोलनों को संदिग्ध ही बनाएगा। दीपक अगर गोदी मीडिया हैं तो भी वे तो सरकार के गोद मे बैठे ही हैं। सड़कों पर तो जनता ही है जो अपने अधिकार के लिये विपरीत मौसम में भी डटी है। यह कहा जा रहा है कि उन्हें कवरेज करने से रोका गया क्योंकि उनके चैनल ने आंदोलन के बारे में गलत खबरें जैसे पांच सौ रुपये लेकर सड़क पर बैठने की बात प्रसारित की थी। या जो सच मे जो हुआ है उसे बढ़ा चढ़ा कर बताया जा रहा है। इन सब पर, अलग अलग तथ्य आ रहे हैं। पर यह सब तमाशे, दीपक चौरसिया को तो टीआरपी दे देंगे पर आंदोलन को विवादित ही बनाएंगे। ऐसे विवाद से बचा जाना चाहिये।
शांतिपूर्ण धरना प्रदर्शन अगर सबसे अधिक किसी को असहज करता है तो, सरकार और पुलिस को असहज करता है जो उस आंदोलन को खत्म करना तो चाहते हैं पर आंदोलन के शांतिपूर्ण और स्वयंस्फूर्त होने के कारण ऐसा कुछ नहीं कर नहीं पाते हैं जिससे कानून को बाईपास कर के किया जा सके। ऐसे समय एक मौके की तलाश रहती है कि कब कोई आंदोलन एक भीड़ में तब्दील हो और भीड़ को लठिया कर भगा दिया जाय। लेकिन शाहीनबाग में यह हो नहीं पा रहा है। महिलाओं और बच्चों के इस आंदोलन के खिलाफ बिना किसी उत्तेजना के बल प्रयोग करना कानूनी और नैतिक रुप से औचित्यपूर्ण भी नहीं होता है। अगर सरकार का कोई व्यक्ति या सत्तारूढ़ दल का कोई नेता या सीएए एनआरसी समर्थक भी ऐसे आंदोलनों में आकर सीएए एनआरसी के पक्ष में कुछ समझाना चाहे तो उसकी बात भी सुनिए और उसका जवाब दीजिए। इस तरह की मारपीट, किसी भी आंदोलन की कुंठा का भी संकेत दे सकती है।
रवीशकुमार ने इस घटना पर एक लेख लिखा है जिसे पढा जाना चाहिये। उनके अनुसार,
" शाहीन बाग़ को ही इम्तहान देना है। इसलिए मीडिया हो या कोई और हो उसके साथ किसी तरह की धक्का मुक्की या हिंसा नहीं होनी चाहिए। पत्रकार भले वो स्टुडियो से हिंसा की भाषा बोलते रहें। जो आंदोलन की ज़मीन पर उतरता है उसे ही अपने भीतर आत्म बल विकसित करना होता है। उसे ही संयम रखना होता है। इसलिए मेरी राय में उत्तम तो यही होगा कि दीपक चौरसिया के साथ हुई घटना की मंच से निंदा की जाए। इससे एक काम यह होगा कि वहाँ मौजूद सभी लोगों में अहिंसा के अनुशासन का संदेश जाएगा। जब शाहीन बाग़ कश्मीरी पंडितों पर चर्चा कर सकता है और उनके साथ खड़े होने का एलान कर सकता है तो मुझे उम्मीद है कि यह भी करेगा। पत्रकार के साथ हिंसा हो यह अच्छी बात नहीं। मैं अगर या मगर लगा कर, तब और अब लगा कर यह बात नहीं कहना चाहता। "
उन्होंने मीडिया का अध्ययन करने वाले विनीत कुमार की भी एक पोस्ट साझा की है। विनीत कुमार के अनुसार,
“ शाहीनबाग में दीपक चौरसिया के साथ जो हुआ गलत हुआ. हम इसकी निंदा करते हैं.
कारोबारी मीडिया को पता है कि हम चाहे लोकतंत्र और नागरिकों के खिलाफ कितने खड़े हो जाएं, कॉर्पोरेट की बैलेंस शीट दुरूस्त रखने और अपनी कुंठा की दूकान चलाने के लिए चाहे जिस हद तक गिर जाएं, समाज का संवेदनशील और तरक्कीपसंद तबका ये हम पर हुए हमले, हिंसा की जरूर आवोचना करेगा. उसे खुद को मानवीय दिखने के लिए ऐसा करना जरूरी होगा.
यही कारण है कि सालभर तक जिस कारोबारी मीडिया की कारगुजारियों को जो लोग सिर झुकाकर झेलते हैं या फिर जमकर आलोचना करते हैं, दोनों एक स्वर में ऐसे मीडियाकर्मियों पर हुए हमले की निंदा करते हैं. कोई विकल्प भी नहीं है उनके पास.
राजदीप सरदेसाई को विदेश में जिस तरह जलील करते हैं, हमले करते हैं, एक तबका इस पर जश्न मनाता है और दीपक चौरसिया या फिर जी न्यूज के मीडियाकर्मी पर हुए हमले की निंदा करता है. ऐसा क्यों है ?
यदि आप मानवीय संवेदना के पक्षधर हैं तो आपको समान रूप से सबका विरोध करना चाहिए. लेकिन नहीं. आप ऐसा नहीं कर सकते. अब किसी भी मीडियाकर्मी पर हमला एक राजनीतिक गुट के प्रतिनिधि पर हमला है और आपको उस हिसाब से विरोध या जश्न के साथ होना होता है. बाकी संवेदनशीलता का फायदा तो उन्हें मिलता ही है.
इससे पहले कि आप मुझे इस हमले का समर्थक मान लें, मैं आपसे बस एक सवाल पूछना चाहता हूं कि दीपक चौरसिया ने पिछले एक साल-दो साल- तीन साल...में ऐसी कौन सी रिपोर्टिंग की है जो जनतंत्र को मजबूत करता है ?
अपील : इस हमले का विरोध करते हुए मेरी अपील होगी कि कारोबारी मीडिया के मीडियाकर्मियों को मारिए नहीं, हमले मत कीजिए. आपको लगे कि वो नागरिक के खिलाफ काम कर रहा है, नाम लेना बंद कर दीजिए. एक पब्लिक फेस, मीडियाकर्मी के लिए गुमनामी से बड़ी मौत कुछ नहीं. शाहीनबाग में उन पर हमला करके एक मरे चुके ज़मीर के मीडिया कारोबारी को हमलावरों ने लोगों की निगाह में जिंदा कर दिया जो कि गलत हुआ।”
अब दीपक चौरसिया से जुड़ी घटना को ही लें। आंदोलन का उद्देश्य, उसकी गम्भीरता, रचनाशीलता, और व्यापकता पर कल की घटना के बाद से बात कम हो रही है, बल्कि बात हो रही है तो आंदोलन के अनियंत्रित भीड़पने की। एक अनियंत्रित भीड़पने की क्षवि किसी भी आंदोलन को न केवल बदनाम करती है बल्कि वह उसे खोखला कर के, उस आंदोलन को तोड़ने के लिये आधार बना देती है। जन आंदोलन विशेष कर गांधीवादी आधार पर कोई आंदोलन चलाना, उसे जारी रखना और लक्ष्य तक पहुंचने तक अहिंसक बनाये रखना आसान काम नहीं है। फिर भी जो लोग यह आंदोलन चला रहे हैं उनकी प्रशंसा की जानी चाहिये कि लंबे समय से वे इस सर्द रात में मौसम की परवाह किये बगैर अपनी बात सरकार तक पहुंचाने के लिये सड़कों पर बैठे हैं। धैर्य सबके बस की बात नहीं होती है। अधिकारसंपन्नता स्वभातः अधीर होती है।
© विजय शंकर सिंह
Thursday, 23 January 2020
गृहमंत्री का यह कथन तथ्यों के विपरीत है कि अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान में अल्पसंख्यक चुनाव नहीं लड़ सकते हैं / विजय शंकर सिंह
Wednesday, 22 January 2020
सुभाष बाबू, सांप्रदायिकता के प्रबल विरोधी थे / विजय शंकर सिंह
आज 23 जनवरी है। आज ही नेताजी सुभाष चंद्र बोस की जयंती भी है। सुभाष एक विलक्षण प्रतिभासंपन्न और अपनी तरह के अनोखे स्वाधीनता संग्राम सेनानी थे। सांप्रदायिकता और राष्ट्रवाद के बारे में आज, उनका एक प्रसिद्ध उद्धरण पढें।
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हिंदू महासभा भारतीय राष्ट्रवाद का यह शत्रु तत्व है और इसे हराने की हमारी चुनौती है। आज हिंदू महासभा मुसलिम विद्वेष से प्रेरित अंग्रेजी हुकूमत के साथ खड़ी दिख रही है। उनका एक ही मकसद है किसी भी तरह मुसलमानों को सबक सिखाना।
इस मकसद को हासिल करने के लिए वे अंग्रेजों का साथ देने में हिचकिचायेंगे भी नहीं। अंग्रेजों की कदमबोशी करने से भी उन्हें खास परहेज नहीं है।
मुसलमान हमारे दुश्मन हैं और अंग्रेज हमारे दोस्त हैं, यह मानसिकता हमारी समझ से बाहर है। उन्होंने कहा कि राजनीति का पहला सबक यह है कि हम याद रखें कि हमारा दुश्मन विदेशी साम्राज्यवाद है। फिर याद रखना है कि विदेशी साम्राज्यवाद के सहयोगी जो हैं, जो भारतीय नागरिक और भारतीय संगठन साम्राज्यवादियों के हमजोली हैं, वे तमाम लोग और उनके वे तमाम संगठन भी हमारे दुश्मन हैं।
( नेताजी सुभाष चन्द्र बोस )
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16 दिसम्बर 1938, तत्कालीन काँग्रेस अध्यक्ष नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने एक प्रस्ताव पारित करके काँग्रेस के किसी भी सदस्य को हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग का सदस्य बनने पर रोक लगवाई थी।
( संदर्भ - Hindu Mahasabha in colonial North India, Page 40.
Author:-Prabhu Bapu)
आज भी हिंदू महासभा, ब्रिटिश महारानी की आरती उतारती है। गोडसे का मंदिर बना कर उस आतंकी हत्यारे का महिमामण्डन करती है। आज भी गांधी हत्या का सीन रिक्रिएट कर के अखबारों में छपवा कर दुनियाभर में देश का नाम बदनाम करती है। हिन्दू महासभा, आरएसएस यह दोनों आज़ादी के आंदोलन को तोड़ने के लिये अंग्रेजों द्वारा पाले पोसे गये थे जो उनके इशारे पर मुस्लिम लीग की विभाजनकारी नीति के साथ गलबहियां कर रहे थे। जब पूरा देश इतिहास के सबसे बड़े जन आंदोलन के साथ आज़ाद होने के लिये एक निर्णायक लड़ाई लड़ रहा था तो इनके नेता और आका अंग्रेजों की मुखबिरी कर रहे थे और जिन्ना के साथ सरकार में थे। आज भी भाजपा का एक मंत्री नितिन गडकरी गांधी हत्या को वध कहता है। यह उसका दोष नहीं है, यह उसकी मानसिकता का दोष है, जो उसे उसके आकाओं ने सिखाया पढ़ाया है।
सुभाष इन साम्प्रदायिक तत्वो को पहचान गये थे, इसीलिए उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष बनते ही यह प्रतिबंध लगा दिया था कि कोई भी कार्यकर्ता जो कांग्रेस का सदस्य है, वह हिंदू महासभा का सदस्य नहीं हो सकेगा। दोहरी सदस्यता पर प्रतिबंध का यह अनोखा कदम सुभाष ही उठा सकते थे। ऐसा कदम उठाने का निर्णायक साहस न नेहरू ने दिखाया, न पटेल ने न आज़ाद ने, और न ही महात्मा गांधी ने । 1938 के बाद दोहरी सदस्यता का मुद्दा 1979 में मधु लिमये ने जब जनता पार्टी की सरकार केंद में मोरार जी देसाई और कुछ महीनों के लिये चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व में थी, तो उठाया था। मधु लिमये का प्रस्ताव था कि एक साथ जनता पार्टी और आरएसएस का सदस्य नहीं रहा जा सकता है। इसी बात पर भारतीय जनसंघ से जनता पार्टी में गये नेता, अटल बिहारी बाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, नानाजी देशमुख आदि ने जनता पार्टी से अलग हो कर भारतीय जनता पार्टी का गठन किया। विडंबना देखिये, भाजपा ने अपना वैचारिक स्रोत, न तो हेडगेवार को माना, न गोलवलकर को, और न ही आरएसएस को, बल्कि गांधी को माना और कहा कि उनका वैचारिक आधार गांधीवादी समाजवाद होगा।
क्या आप को हिंदू महासभा और आरएसएस का एक भी ऐसा उद्धरण, लेख, या दस्तावेज इतिहास के पन्नों में मिला है जहां इन संगठनों के नेताओं, डॉ हेडगेवार, गुरु गोलवलकर, डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी आदि ने ब्रिटिश औपनिवेशिक साम्राज्य की निंदा की हो ? अंग्रेजों के खिलाफ कभी कुछ कहा हो ? ढूंढ़ियेगा मित्रों। अगर ऐसी कोई सामग्री मिले तो हम सबसे साझा कीजिएगा। सुभाष बाबू की जयंती पर ऐसे विलक्षण और प्रतिभाशाली स्वाधीनता संग्राम सेनानी को कोटि कोटि प्रणाम, और उनका विनम्र स्मरण।
© विजय शंकर सिंह
फीसवृद्धि के खिलाफ आंदोलन और जेएनयू प्रशासन का झूठ. / विजय शंकर सिंह
Monday, 20 January 2020
आतंकवाद और देवेंदर सिंह की गिरफ्तारी से उठते कुछ सवाल / विजय शंकर सिंह
Saturday, 18 January 2020
लखनऊ पुलिस पर इस समय सबकी नजर है / विजय शंकर सिंह
सआदत हसन मंटो की पुण्यतिथि पर उन्हें याद करते हुए / विजय शंकर सिंह
एक फौजी जवान नरेन्द्र की एक कविता - ऐ शाहीनों / विजय शंकर सिंह
एनएसए, राष्ट्रीय सुरक्षा कानून 1980 - ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और प्राविधान / विजय शंकर सिंह
दिल्ली सरकार ने दिल्ली के पुलिस आयुक्त को राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम-1980, के अंतर्गत तीन माह के लिये अधिकृत किये जाने वाले आदेश को जारी किया है। यह कोई नयी बात नहीं है। यह कानून 1980 से लागू है। यह देश की सुरक्षा के लिए सरकार को अधिक शक्ति देने से संबंधित एक कानून है। यह कानून केंद्र और राज्य सरकार को किसी भी व्यक्ति को निरुद्ध, डिटेंन करने का आदेश देता है। 23 सितंबर 1980 को यह कानून भारत सरकार ने लागू किया था। इसका उद्देश्य,
“to provide for preventive detention in certain cases and for matters connected therewith”.
कुछ मामलों में किसी कि, अगर आवश्यकता हो तो निरोधात्मक निरुद्धि का अधिकार देता है।
अब इस कानून की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की चर्चा करते हैं। 1914 में प्रथम विश्वयुद्ध शुरू हो गया था और तब तक देश मे ब्रिटिश राज के खिलाफ असंतोष भी बढ़ने लगा था। देश के बाहर आज़ाद भारत की सरकार बनाने के उपक्रम भी शुरू हो गए थे और 1907 के सूरत अधिवेशन के बाद कांग्रेस के तेवर जो राजभक्ति की तरफ झुके थे, बदलने लगे थे। कांग्रेस तब तक ब्रिटिश के साथ ही प्रथम विश्वयुद्ध मे थी। लेकिन क्रांतिकारी गतिविधियों ने युवाओं को मोहित करना शुरू कर दिया था। तभी 1915 में डिफेंस ऑफ इंडिया एक्ट लाया गया जिसमें सरकार को किसी भी व्यक्ति को निरुध्द करने का स्वेच्छाचारी प्राविधान था। तब ब्रिटिश सरकार ने यह तर्क दिया कि यह एक अस्थायी और आपात प्राविधान है जो विश्वयुद्ध के कारण लाया गया है। तब इसका कारण यह बताया गया था,
" for the purpose of securing the public safety and the defence of British India and as to the powers and duties of public servants and other persons in furtherance of that purpose..."
( जनता की सुरक्षा और ब्रिटिश भारत की रक्षा के लिये सरकार अपने लोकसेवकों को यह शक्ति और अधिकार प्रदान करती है। )
वैसे 1812 में बंगाल की सरकार ने इसी प्रकार का एक कानून सबसे पहले बनाया था।
1915 का बना यह कानून 1975 में भी, आपातकाल के दौरान राजनीतिक विरोधियों को निरुध्द और गिरफ्तार करने का एक उपकरण बना रहा। बाद में यह कानून हटा दिया गया। ऐसा नहीं है कि 1915 का ही कानून 1975 में भी लागू किया गया था। बल्कि बीच बीच मे इस कानून में थोड़ी बहुत तब्दीलियां भी की गयीं। 1915 के डिफेंस ऑफ इंडिया रूल्स एक्ट जिसे संक्षिप्त रूप से डीआईआर कहा जाता है का जबरदस्त विरोध किया गया। रोलेट की अध्यक्षता में एक कमेटी भी इस पर पुनर्विचार के लिए बनी थी। प्रखर वकील, एमए जिन्ना जो तब कांग्रेस के एक बड़े नेता बन चुके थे ने इसके खिलाफ अभियान छेड़ा था। गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 के आधीन 1939 ई में, पुनः यह कानून, नए सिरे से लाया गया, क्योंकि तब द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हो चुका था। 1962 में जब भारत चीन युद्ध शुरू हुआ तो पुनः यह कानून कुछ नए फेरबदल के साथ लाया गया। यही कानून 1980 तक बना रहा। 1980 में डीआईआर एक्ट समाप्त कर दिया गया और राष्ट्रीय सुरक्षा कानून 1980 बना।
1915, 1939 और 1962 , अधिकतर रूप से यह कानून युद्ध की पृष्ठभूमि में ही लाया गया था। 1965, 1971 के युद्धों के समय भी यह कानून लागू रहा। मुख्य रूप से यह एक आपातकालीन व्यवस्था है जो युद्ध और संकटकाल में राज्य को किसी भी व्यक्ति को निरुध्द करने के लिये असीमित शक्ति देती है। अतः यह भी अपेक्षा की गयी है कि यह कानून आपात स्थिति मे ही सरकार द्वारा प्रयुक्त हो, न कि यह एक सामान्य रूप से किसी निरोधात्मक प्राविधान की तरह लागू किया जाय। क्योंकि यह कानून व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का हनन करता है। इमरजेंसी के दौरान, 1975 से 76 में इस कानून का बहुत दुरुपयोग हुआ। इसीलिए इसे बदल कर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून 1980 लाया गया।
रासुका के प्राविधान इस प्रकार हैं।
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● अगर सरकार को लगता कि कोई व्यक्ति उसे देश की सुरक्षा सुनिश्चित करने वाले कार्यों को करने से रोक रहा है तो वह उसे गिरफ्तार कर निरुद्ध करने की शक्ति जिला मैजिस्ट्रेट या पुलिस आयुक्त, जहां जैसी स्थितियां हो, को दे सकती है।
● सरकार को अगर यह लगता है, कि कोई व्यक्ति कानून-व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने में उसके सामने बाधा खड़ा कर रहा है तो वह उसे गिरफ्तार कर निरुद्ध करने का आदेश दे सकती है।
● अगर उसे लगे कि वह व्यक्ति आवश्यक सेवा की आपूर्ति में बाधा बन रहा है तो वह उसे गिरफ्तार कर निरुद्ध करने का आदेश दे सकती है।
● इस कानून के तहत आर्थिक अपराधी और जमाखोरों की भी निरुद्धि की जा सकती है।
● अगर सरकार को ये लगे तो कोई व्यक्ति अनावश्यक रूप से देश में रह रहा है और वह लोक व्यवस्था ( Public Order ) के लिए खतरा बन रहा है तो उसकी भी गिरफ्तारी कर उसे, निरुद्ध कर सकती है।
निरुद्धि का आधार और समयावधि.
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● इस कानून के अंतर्गत किसी व्यक्ति को पहले तीन महीने के लिए निरुद्ध किया जा सकता है। फिर, आवश्यकतानुसार, तीन-तीन महीने के लिए उसके निरुद्धि की अवधि बढ़ाई जा सकती है।
● एक बार में ही तीन महीने से अधिक की अवधि नहीं बढ़ाई जा सकती है। हर तीन माह बाद समीक्षा करके ही यह अवधि बधाई जा सकती है।
● राज्य सरकार को निरुद्धि का आधार, बताना होगा, कि किस आधार पर यह निरुद्धि की गयी है।
निरुद्धि का अनुमोदन.
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● जब तक राज्य सरकार इस निरुद्धि का अनुमोदन नहीं कर दे, तब तक यह निरुद्धि बारह दिन से अधिक समय तक नहीं हो सकती है।
● अगर निरुद्धि का आदेश देने वाला अधिकारी पांच से दस दिन में अपना पक्ष, निरुद्धि का आधार स्पष्ट करते हुए, दाखिल करता है तो इस अवधि को बारह की जगह पंद्रह दिन की जा सकती है।
● अगर उस रिपोर्ट को राज्य सरकार स्वीकृत कर देती है तो इसे सात दिनों के भीतर केंद्र सरकार को भेजना होता है। इसमें इस बात का जिक्र करना आवश्यक है कि किस आधार पर यह आदेश जारी किया गया और राज्य सरकार का इसपर क्या विचार है और यह आदेश क्यों जरूरी है।
( यह उन मामलों में हैं जहां सीधे केंद के आधीन कानून व्यवस्था का विषय हो। जैसे दिल्ली )
निरुद्धि का आदेश और नियमन
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● सीआरसीपी, 1973 के तहत जिस व्यक्ति के खिलाफ आदेश जारी किया जाता है, उसकी निरुद्धि भारत में कहीं भी हो सकती है।
● निरुद्धि के आदेश का नियमन किसी भी व्यक्ति पर किया जा सकता है।
● उसे एक जगह से दूसरी जगह पर भेजा जा सकता है।
● पर संबंधित राज्य सरकार के संज्ञान के बगैर व्यक्ति को उस राज्य में नहीं भेजा जा सकता है।
निरुद्धि की अवैधता
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● गिरफ्तारी के आदेश को सिर्फ इस आधार पर अवैध नहीं माना जा सकता है कि इसमें से एक या दो कारण नहीं हैं। अगर यह चारो कारण हैं तो निरुद्धि अवैध मानी जायेगी। निरुद्धि की अवैधता का निर्णय सरकार ही करेगी।
(1) अस्पष्ट हो
(2) उसका अस्तित्व नहीं हो
(3) अप्रसांगिक हो
(4) उस व्यक्ति से संबंधित नहीं हो
● इसलिए किसी अधिकारी को उपरोक्त आधार पर निरुद्धि का आदेश पालन करने से नहीं रोका जा सकता है।
● निरुद्धि के आदेश को इसलिए अवैध करार नहीं दिया जा सकता है कि वह व्यक्ति उस क्षेत्र से बाहर हो जहां से उसके खिलाफ आदेश जारी किया गया है।
● अगर वह व्यक्ति फरार हो तो सरकार या अधिकारी,
(1) वह व्यक्ति के निवास क्षेत्र के मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट या प्रथम श्रेणी के ज्यूडीशियल मजिस्ट्रेट को लिखित रूप से रिपोर्ट दे सकता है।
( 2) अधिसूचना जारी कर व्यक्ति को तय समय सीमा के अंदर बताई गई जगह पर उपस्थित करने के लिए कह सकता है।
( 3) अगर, वह व्यक्ति उपरोक्त अधिसूचना का पालन नहीं करता है तो उसकी सजा एक साल और जुर्माना, या दोनों बढ़ाई जा सकती है।
सलाहकार समिति का गठन
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● इस अधिनियम के उद्देश्य से केंद्र सरकार और राज्य सरकारें आवश्यकता के अनुसार एक या एक से अधिक सलाहकार समितियां बना सकती हैं।
● इस समिति में तीन सदस्य होंगे, जिसमें प्रत्येक एक उच्च न्यायालय के सदस्य रहे हों या हो या होने के योग्य हों. समिति के सदस्य सरकार नियुक्त करती हैं।
● संघ शासित प्रदेश में सलाहकार समिति के सदस्य किसी राज्य के न्यायधीश या उसकी क्षमता वाले व्यक्ति को ही नियुक्त किया जा सकेगा, नियुक्ति से पहले इस विषय में संबंधित राज्य से अनुमति लेना आवश्यक है।
सलाहकार समिति का महत्व
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● इस कानून के तहत निरुद्ध किसी व्यक्ति को तीन सप्ताह के अंदर सलाहकार समिति के सामने उपस्थित करना होता है।
● सरकार या निरुद्धि का आदेश देने वाले वाले अधिकारी को यह भी बताना पड़ता है कि उसे क्यों निरुद्ध किया गया है ।
● सलाहकार समिति उपलब्ध कराए गए तथ्यों के आधार पर विचार करती है या वह नए तथ्य पेश करने के लिए कह सकती है। ● सुनवाई के बाद समिति को सात सप्ताह के भीतर सरकार के समक्ष रिपोर्ट प्रस्तुत करना होता है।
● सलाहकार बोर्ड को अपनी रिपोर्ट में साफ-साफ लिखना होता है कि निरुद्धि के जो कारण बताए गए हैं वो निरुद्धि के लिये कानूनी रूप से पर्याप्त हैं या नहीं।
● अगर सलाहकार समिति के सदस्यों के बीच मतभेद है तो बहुमत के आधार निर्णय माना जाता है।
● सलाहकार बोर्ड से जुड़े किसी मामले में निरुद्ध व्यक्ति की ओर से कोई वकील उसका पक्ष नहीं रख सकता है और सलाहकार बोर्ड की रिपोर्ट गोपनीय रखने का प्रावधान है। निरुध्द व्यक्ति स्वयं ही अपना पक्ष रखता है। एक पक्ष जिला मैजिस्ट्रेट और एसपी का होता है दूसरा निरुध्द व्यक्ति का होता है। इसमे न तो सरकारी वकील रहते हैं और न हीं निरुध्द व्यक्ति के वकील।
सलाहकार बोर्ड की रिपोर्ट पर कार्रवाई
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● अगर सलाहकार बोर्ड व्यक्ति की निरुद्धि के कारणों को सही मानता है तो सरकार उसकी निरुद्धि को उपयुक्त समय, जितना पर्याप्त वह समझती है, तक बढ़ा सकती है। ● अगर समिति निरुद्धि के कारणों को पर्याप्त नहीं मानती है तो निरुद्धि का आदेश रद्द हो जाता है और व्यक्ति को रिहा करना पड़ता है।
गिरफ्तारी की अधिकतम अवधि
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● अगर, निरुद्धि के कारण पर्याप्त साबित हो जाते हैं तो व्यक्ति को गिरफ्तारी की अवधि से एक साल तक हिरासत में रखा जा सकता है।
● समयावधि पूरा होने से पहले न तो निरुद्धि को समाप्त किया जा सकता है और न ही उसमें फेरबदल हो सकता है।
निरुद्धि के आदेश की समाप्ति
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● निरुद्धि के आदेश को रद्द किया जा सकता है या बदला जा सकता है, जो सरकार ही करेगी,
(1) इसके बावजूद, कि निरुद्धि केंद्र या राज्य सरकार के आदेश के उसके अधीनस्थ अधिकारी ने की है।
(2) इसके बावजूद कि यह निरुद्धि केंद्र या राज्य सरकार के आदेश के हुई हो।
यह कानून, सामान्य गिरफ्तारी से अलग है, क्योंकि,
● सामान्य गिरफ्तारी में पुलिस को गिरफ्तार व्यक्ति को, चौबीस घँटे के अंदर निकटतम मैजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत करना पड़ता है, जो बाध्यता इस कानून में नहीं है । ( धारा 56 और 76 सीआरपीसी )
● सामान्य गिरफ्तारी में, सीआरपीसी की धारा 50 के अंतर्गत गिरफ्तार व्यक्ति को गिरफ्तार करने का काऱण बताना पड़ता है और उसे जमानत के लिये अदालत से अपनी प्रार्थना करने का अधिकार होता है जो इस कानून में नहीं है।
● संविधान के अनुच्छेद 22 (1) जो मौलिक अधिकारों के अंतर्गत है हर व्यक्ति को यह अधिकार देता है कि वह आपना पक्ष रखने के लिये कानूनी सहायता ले सकता है और वकील एख सकता है, लेकिन इस कानून में यह सुविधा प्रतिबंधित है।
उपरोक्त कारणों के ही कारण इस कानून को स्वेच्छाचारी बताया जाता है और इसकी निंदा की जाती है। लेकिन जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है, यह कानून, अत्यंत आपात स्थिति में ही अपवादस्वरूप लागू करने के लिये ही बनाया गया है न कि रूटीन कानून व्यवस्था के मामलों में। मुझे अपने साथी जिला मैजिस्ट्रेट के साथ कई बार एडवायजरी बोर्ड के समक्ष उपस्थित होना पड़ा है और बोर्ड को यह विश्वास दिलाना पड़ा है कि यह लोक व्यवस्था के भंग होने का मामला था। ऐडवाज़ारी बोर्ड का जोर इसी बात पर रहता है कि जब कानून व्यवस्था को दुरुस्त करने के सारे प्राविधान विफल हो जांय तभी यह कानून अमल में लाया जाय, क्योंकि यह व्यक्ति के मौलिक और अन्य कानूनी अधिकारों का हनन करता है जो उसे एक नागरिक होने के कारण प्राप्त हैं।
© विजय शंकर सिंह