Tuesday, 17 August 2021

सुभाष चंद्र कुशवाहा - कृष्णा सोबती का उपन्यास - 'गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान.

कृष्णा सोबती ने अपने अंतिम दिनों में भारत-पाक विभाजन त्रासदी की कथा-व्यथा को केन्द्र में रखकर  ‘गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान’ उपन्यास लिखा। भारत-पाक बंटवारे के बाद, विभाजित गुजरात से संबंध रहा है कृष्णा सोबती का। इसलिए उन्होंने विभाजन की त्रासदी पर, आमजन के  जड़ों से उखड़ने, गांव, शहर, परिवेश और संस्कृति से निर्ममता पूर्वक बेदखल कर, अभिशप्त जीवन जीने की मजबूरी का जो बिम्ब उकेरा है, वह समय-सापेक्ष होते हुए भी वास्तविक जान पड़ता है। ‘गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान’ एक आत्म-कथात्मक औपन्यासिक कृति है, जिसमें लेखिका स्वयं ‘सोबती बाई’ के रूप में शामिल है। इस उपन्यास की कथावस्तु में उनका निज है, विभाजित समाज है और तत्कालीन राजे-रजवाड़ों के चाल-चरित्र का अक्स है। उनकी ठसक और समृद्धि है। समृद्धि है तो लोकतंत्र की सत्ता पर उन्हीं का अंकुश है। 

‘सोबती बाई’ के जमीन से उखड़ने के बाद, विभाजन की त्रासदियों के जीवन के साथ गुथा यह उपन्यास, भारत-पाक विभाजन का दस्तावेज है। कृष्णा सोबती स्वयं इस दस्तावेज में दर्ज होकर उसके यथार्थ को प्रमाणित कर रही हैं। वह आजाद हिंदुस्तान के सामंती गढ़ों की बेचैनी और चतुर चालों का अक्स उकेरती हैं। 

हिन्दोस्तान की सरजमीन से बेइंतहा प्यार करने वालों ने औपनिवेशिक सत्ता से मुक्ति की लड़ाई मिल-जुल कर लड़ी थी। मिल-जुल कर जेल की यातनाओं से लेकर फांसी के फंदे को चूमा था मगर इस जमीन की सबसे बड़ी त्रासदी यह रही है कि आजादी मिली भी तो बंटवारे के दंश के साथ। बहुतों को अपने प्यारे हिन्दुस्तान के टुकड़ों में समाहित होना पड़ा। वे जिस हवा-पानी में जन्मे थे, वहां से विस्थापित हुए । लेखिका लिखती हैं-‘खुशहाली की नदियां, दरिया, नहरें सब बंट चुके। विभाजन और तकसीम का आख्यान लिखा जा रहा है-एक नया दस्तावेज मुल्क की आजादी का । जो लोग आजाद भारत से पाकिस्तान या पाकिस्तान से भारत विस्थापित किए गए, उनकी जिंदगी, स्मृतियों से कराहती और सिसकती रही । यह उपन्यास उसी कराह या सिसकियों की कथा-व्यथा को व्यक्त कर रहा है।

बंटवारे के साथ ही हिंदुस्तान ने गांधी की हत्या का दंश भी झेला है।  उस महा त्रासदी की भी गूंज इस उपन्यास में सुनाई देती है। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में महात्मा गांधी का, अपनी वैचारिकी तथा कर्म के साथ, समाज-परिवर्तन और दासता-मुक्ति का निराला प्रयोग, याद किया जाता रहेगा। बेशक आलोचना-प्रत्यालोचना भी होती रहेगी। ऐसा अनोखा व्यक्तित्व, साहित्य और समाज को, अंतरमन तक प्रभावित करता रहेगा।  खासकर जब ऐतिहासिक या सामाजिक संघर्ष के संदर्भों को सामने रख, कुछ लिखा-पढ़ा जा रहा हो। कृष्णा सोबती ने इस उपन्यास में महात्मा गांधी के जीवन संघर्षों का अक्स कुछ इस प्रकार उकेरा गया है-‘साहिब, बापू गांधी को गोली मार दी गई है,.... हाय रब्बा! अभी यह भी बाकी था । अंधेर साईं का-अरे किसने यह कुकर्म किया? 
साहिब अभी कुछ मालूम नहीं। कोई कहता है-शरणार्थी था, कोई मुसलमान बताता है।’ 
कृष्णा सोबती इस उपन्यास की कथावस्तु और दर्द से इस तरह सराबोर हैं कि हर कहीं उनका अतीत पीछा करता है। उसमें उनका परिवार है। परिवेश है। लाहौर है। वहां की नदियां, उनका बड़ा परिवार और उनकी सहेलियां हैं।  

विभाजन के बाद देशी रियासतों की सत्ता का भारतीय सत्ता में समाहित होने की प्रक्रिया की कथावस्तु भी इस उपन्यास का मुख्य कथ्य है। इस कृति का समयकाल, विभाजन के बाद की मारकाट से शुरु होकर, देशी रियासतों के ठाट-बाट  और उनकी संस्कृति के अंतिम दौर की ठसक को व्यक्त करता  है।  कुल मिलाकर संवेदना का, ठसक की ओर खिसकना, उपन्यास का कमजोर पक्ष कहा जा सकता है। इस उपन्यास में ऐतिहासिकता के साथ-साथ अमानवीयता भी शामिल है। ऐसे में जोर उन निरीह जनता के पक्ष में जाना चाहिए था, जहां अकारण, बिना उनकी मर्जी के, एक आपदा, सत्ता के लोभियों द्वारा लाद दी गई थी। इसी कारण से इस उपन्यास का ताना-बाना बिखर जाता है। कुल मिलाकर उपन्यास को पढ़ने के बाद कहा जा सकता है कि कृष्णा सोबती जैसी महान लेखिका की यह कृति कुछ कमजोर लगती है। 

उपन्यास में विभाजन के समय मची मारकाट की वेदना पर फोकस किया जाना चाहिए था, जिसे शुरू में व्यक्त किया गया है-‘दौड़ो-भागो.... भागो, छोड़ दो उन्हें जो बेबस हैं- बूढ़े हैं, बीमार हैं, जो दौड़ नहीं सकते। वह अब जी नहीं सकते। अपने हों या पराये, उन्हें जाने दो। गिर जाने दो। मर जाने दो। इस फटे पहरन को सी नहीं सकते।  एक-दूसरे को खोज-खोजकर मार रहे हैं, एक दूूसरे के जानी दुश्मन।’ 

विस्थापन के बाद स्मृतियांे का दर्द! छोटे चचा बलराम के वहीं छूट जाने का दर्द। घर के नौकर मौलू को भंडारघर की तालियांे को सौंपते हुए अपना बसेरा सदा के लिए छोड़ने का दर्द-‘आज से फार्म और घर तुम्हारा हुआ। बरखुरदार किसी और के हाथ में न जाने देना।’ यानि जाते-जाते अपनी विरासत को बेहतर हाथों में रखने की चाह। यही वह मार्मिक बिन्दु हैं जो उपन्यास की ओर पाठकों को खींचता है मगर सिरोही राज-परिवार और उनके स्वरूपविलास पैलेस और केसरविलास की भव्यता की झलक में आकर यह उपन्यास कुछ बेजान हो जाता है। 

उपन्यास की नायिका लाहौर से दिल्ली और दिल्ली से गुजरात, तत्कालीन राजपूताना प्रांत के सिरोही स्टेट में नौकरी के लिए आती हैं। रईसी में पली-बढ़ी नायिका के लिए रियासत से अलग नौकरी करना आसान भी न था। पहले से संपर्क था। गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिन्दुस्तान तक आना, पूर्व उच्चवर्गीय परिवारिक संबंधों का प्रतिफल रहा।  लाहौर के बाद दिल्ली से तालीम प्राप्त कर वह शरणार्थी कैम्प के बच्चों को कुछ प्रशिक्षित करती हैं फिर वहां से सिरोही स्टेट के महत्वाकांक्षी शिशुशाला के लिए उन्हें बुलाया जाता है। लेखिका रियासत के द्वार पर पहुंचती हैं मगर विस्थापन उसका पीछा नहीं छोड़ता । वहां जुत्शी साहिब फरमाते हैं कि अगर आप शरणार्थी होने का फार्म भर देंगी तो राशन मुफ्त मिल जायेगा। ओढ़ने को रजाइयां और कंबल भी। 
सोबती बाई के कानों में विभाजन शब्द गूंजते रहते हैं। वह सोचती हैं-शरणार्थी -एक विश्लेषण । लुटा-पुटा गरीब। कैम्पों में रहनेवाला । विस्थापितों को राशन मुफ्त मिल सकता है। फार्म भरा होना चाहिए तो कम्बल के भी हकदार हो सकते हैं। ....यह तो एक स्थिति है।  अपनी जड़ों से उखड़ने की।  नई जगहों पर जमने की। फिर से वह गुजरात पाकिस्तान लौटती हैं, स्मृतियों में । जहां कई जवान लड़कियां दंगाइयों के हाथों में फंस गई थीं। सोबती बाई की सहेली-बिम्बो, बार-बार सपने में पीछा करती- "तुम यहां कैसे पहुंच गई री बिम्बो?"
"मरे हुओं का क्या, इधर-उधर भटकते रहते हैं ?"
"बिम्बो, मैंने तुम्हें कैम्प में तो नहीं देखा।"
"मैं और मेरा धनी, ब्याह की रात ही मौत की घाट उतार दिए गए।"
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बिम्बो की मां को रोते-पीटते देख उसका दिल दहल गया था। उसकी बेटी और मेरे बचपन की सहेली भारत मां की धरती तक न पहुंच सकी। चिट्टा दूध उसका रंग-सुनहरे बाल और घनीली आंखें!
मां छाती पीटकर रो पड़ती, हाय दुश्मनों, उसे वहीं रख लिया होता! उसका चोला बदल दिया होता। उसकी बांहें क्यों काट फेंकीं?

.........बिम्बो की मां का आगमन। रोने-करलाने की आवाजें एक-एक को दहला गईं। छाती पीट-पीटकर नेहरू, जिन्ना को गालियां देती उसने सबको डांवाडोल कर दिया था।  अरे सरकार वालों-कुर्सियोंवालों, तुम्हारी भी वहीं जाए, जहां हमारी पली-पलाई सजरी परणाई बेटी गई है। अरे खलकत को बचाने के लिए तुम्हारे पास पुलिस-फौज नहीं थी, तो क्यों बंटवारा माना था। बापू गांधी, तुम क्यों चुप हो? जिस नेहरू को तुमने अपना पुत्र बनाया, उससे अपना हुक्म क्यों न मनवाया!

वरिष्ठ कथाकार कृष्णा सोबती का यह उपन्यास एक बार फिर से हमें बंटवारे के उस खून से सने अतीत में ले जाता है जो जितना हिंदुस्तान का है, उतना ही पाकिस्तान का भी। वास्तविक घटनाओं और पात्रों से बुना यह उपन्यास, विभाजन के बाद के समय के इर्द-गिर्द रचा गया है। तब अंग्रेज तो चले गए थे, लेकिन देश में रियासतें और राजा-रानियों का दौर पूरी तरह खत्म नहीं हुआ था।

यह उपन्यास विभाजन की पीड़ा को महसूस कराने में तो सफल होता है, लेकिन वह कशिश यहां लगभग गुम है, जो पूरा उपन्यास पढ़ते चले जाने को प्रेरित करे। ‘सूरजमुखी अंधेरे के’, ‘डार से बिछुड़ी’, ‘ऐ लड़की’ जैसे शानदार उपन्यासों की लेखिका का जादू यहां चूक गया सा महसूस होता है। हां, कृष्णा सोबती का भाषाई जादू, उपन्यास की जान है। वह पाठकों पर प्रभाव डालने में सफल रहा है। 

सोबती बाई ने जिस लगन से शिशुशाला को स्थापित करने का प्रयास किया, वह पूरी न हुई। यद्यपि उन्होंने जरूरी सामानों की व्यवस्था करने की भरसक कोशिश की।  रियासतों के अंदर की राजनीति कम न थीं।  वहां एक लेखिका के वश में बहुत कुछ नहीं था। जब राजनीतिक कारणों से शिशुशाला नहीं खुलती तो वह ‘सिरोही रियासत’ के महाराज की गवर्नेस के पद पर नियुक्त कर दी जाती हैं। विभाजन के सात दशक बाद, एक बार फिर विभाजन के समय, रियासतों के ठाट-बाट, महलों, कारिंदों की खुफियागिरी, आदि से गुजरते हुए उपन्यास, शाही ठाठ-बाठ में पलते तेजसिंह पर केन्द्रित होती है।  वहां तेजसिंह राजा के बेटे हैं और अभी रियासत की शिक्षा ले रहे हैं।  यद्यपि अब रियासत सैद्धांतिक रूप से है नहीं । तेजसिंह, सोबती बाई पर बहुत विश्वास करते हैं।  राजनैतिक रूप से परिपक्व न होने के कारण वह अपने फैसले सोबती बाई के सहारे लेते हैं, जिसको तिकड़मी राजदरबार के दूसरे अधिकारी पसंद नहीं करते। महाराज के पहले दिन के स्कूल का वर्णन करते हुए कृष्णा लिखती हैं -
‘तेजसिंह इधर आइए। मेरे पास आइए - आप दरवाजे पर खड़े होंगे और मुझसे पूछेंगे, क्या मैं अन्दर आ सकता हूं। मैं कहूंगी - हां आप अन्दर आ सकते हैं - तो आप अन्दर प्रवेश करेंगे।
बड़ी मां ने घूरकर पूछा - "यह क्या करने जा रही हैं? महाराज मांगेंगे आपसे आज्ञा कि अन्दर आ जांऊं?"
" देखिए, मैं महाराज की शिक्षिका हूं। यह सब सिखाने का काम-कर्तव्य मुझ पर छोड़ दीजिए।"
" नहीं-नहीं, बाई हमारी बात सुनो।
"इस तरह की दखलअन्दाजी न करें!"
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तेजसिंह कुछ उत्साहित हुए-
" मैम, मे आई कम इन प्लीज।"
" यस तेजसिंह, डू कम इन! पिक अप युअर बैग एंड टेक युअर सीट।"
...............
जयसिंह जी ने बैग खोला और लाल-गुलाबी और पीले चमकते कागजों में रिबन से बंधे उपहार महाराज के सामने पेश कर दिए गए।
'वाह, यह कलम, यह दवात, यह चांदी के कवर वाली लिखने की पोथी।’
देखा जाये तो शिक्षिका सोबती बाई, कुंवर महाराज की स्वतंत्र भारत में जो भूमिका होनी चाहिए, उसे  ध्यान में रखते हुए शिक्षित कर रही हैं जबकि महारानी साहिबा अभी पुराने दिनों से मुक्त नहीं हो रही हैं।  

बाई सोचती है-पुरानी रस्म कब बदलेगी।  विदेशी रेजीडैंट की रजामंदी से तेजसिंह गोद ले लिये गए।  अंग्रेज के चले जाने के बाद स्वदेशी राज की नीतियों के अनुसार गद्दी पर आसीन हैं। इस छोटे से बच्चे के आस-पास सिर उठाती चिन्ताओं की भीड़ है। अलवर महाराज जैसे हितचिन्तक कम हैं, दुश्मन ज्यादा। 

सिरोही राज के नए एडमिनिस्ट्रेटर प्रेमा भाई से सहानुभूति की कोई उम्मीद नहीं। अम्बाजी तीर्थ के दबाव में राजस्थान से गुजरात में जोड़ दी जाएगी तो भी क्या तेजसिंह दरबार बने रहेंगे? दिल्ली सरकार इस रियासती तामझाम को किसी और को सौंप देगी? कुछ कहा नहीं जा सकता!’ 

दरबार मैम से पूछ रहे हैं- "मैम हम लोग पोलो ग्राउंड की ओर से क्यों नहीं जा रहे? सन-सैट पाइंट से सूर्यास्त भी देेख सकते हैं।"
जवाब दिया कर्नल साहिब ने।
"हुक्म, यह बात हमेशा याद रखने की है कि जहां के लिए निकलें, वहां का रास्ता कभी न बदलें।"
बाई मन-ही-मन हंसी। पुराने वक्तों की पुरानी सीख। रास्ते क्या अपने बदलने से बदलते हैं।’

इस प्रकार विभाजन की त्रासदी से शुरू हुआ यह उपन्यास रियासतों के अंतिम दौर में,  उनके पहरेदारों में खलबली, तनाव और अफरातफरी के माहौल से गुजरता है। बहुत कुछ उपन्यास में अस्पष्ट ही रहता है। 

पाकिस्तान के गुजरात के बारे में इस उपन्यास में बहुत कम जिक्र है। जिक्र हिन्दुस्तान के गुजरात का ही है। कृष्णा सोबती विस्थापन के बाद हिन्दुस्तान आती हैं और उन्हें अपनी पहली नौकरी के लिए सिरोही रियासत जाना पड़ता है जहां वह अंततः कुंवर तेजसिंह की शिक्षिका बनती हैं। वह उस बच्चे को अतीत, वर्तमान और भविष्य का भान कराने की कोशिश करती हैं, खासकर सत्ता से बेदखली का । सोबती बाई के अंदर स्वतंत्र देश के नागरिक का विचार जन्म ले चुका है।  वह स्वाभिमानी दिखती हैं और रियासती गुलामियों से खुद को मुक्त रखने में कामयाब होती हैं।  यही तत्कालीन समय और समाज में हो रहे परिवर्तन का बिंम्ब है।  कुलमिलाकर ‘गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान,’ कृष्णा सोबती का एक आत्मकथात्मक, उपन्यास है जो उनके दूसरे उपन्यासों की तुलना में उतना प्रभावी नहीं कहा जा सकता मगर उनकी भाषा की खनक और विभिन्न सामाजिक स्थितियों के बीच से घुसपैठ के कारण पढ़ा जाता रहेगा।

© सुभाष चंद्र कुशवाहा
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