त्रियुगी नारायण उत्तराखंड के जिला रुद्रप्रयाग में स्थित है। इस स्थान तक पहुंचने का ट्रैक बेहद कठिन है। एक दम ऊँची चढ़ाई किसी की भी सांस फुला देती है। जो टिहरी जिले के घुत्तू से थोड़ा आगे पांवली तक बेहद खतरनाक हो जाती है। इसलिए यहां एक स्थानीय कहावत है। 'जर्मनी की लड़ाई और पांवली की चढ़ाई'। इस कहावत में इतिहास का वो तथ्य भी छुपा हुवा है, जिसको लेकर फ़्रांस की सरकार और जनता गढ़वाल के लोगों की बहुत इज़्ज़त करती है और गढ़वाल राइफल के अपने देश में कई स्मारक भी बनाये हुवे है।
उस कहावत की मूल कहानी की शुरुवात हम महज एक साल पूर्व इसी महीने से शुरू कर सकते हैं। जब फ्रांस के रिंचेबर्ग में खुदाई के दौरान दो नर कंकाल मिले थे। बाद में पता चला की ये शव लगभग 100 साल पहले के हैं और ये दफन लोग भारत के गढ़वाल से है। जो गढ़वाल राइफल के योद्धा थे। फिर शोध शुरू हुआ की अगर उस स्थान पर और भी सैकड़ों गढ़वाली योद्धाओं के शव मिल सकते हैं। रिेंचेबर्ग ही नहीं, बल्कि फेस्टूवल्ट और न्यू चेपल्स में भी खुदाई की जाये तो दोनों मोर्चों में भी गढ़वाली योद्धाओं के शव मिल सकते हैं। प्रख्यात साहित्यकार एवं घुमक्कड़ राहुल सांकृत्यायन के साथ ही इतिहासकार डा. शिव प्रसाद डबराल की किताबों में इन बातों का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। इन किताबों में उन समय के फ्रांस के विभिन्न मोर्चों पर लड़े योद्धाओं की जीवनी के साथ कई महत्वपूर्ण तथ्य भी शामिल है। प्रसिद्ध गढ़वाली कहावत, ‘जर्मनी की लड़ाई और पांवली की चढ़ाई’ भी इस मोर्चे से निकला हुआ है। क्योंकि ये लड़ाई आज तक की सबसे जानलेवा और कठिन लड़ाई मानी गयी। इस युद्ध में सबसे ज्यादा जहाँ के लोग शहीद हुवे वो घनशाली बेल्ट के लोग थे। इसलिए जो बच कर वापस लौटे, वो इस युद्ध की तुलना, पांवली की चढ़ाई से करते रहे। जिससे, ये कहावत जन्मी।
गढ़वाल के इतिहास पर विशेष शोध करने वाले महिपाल सिंह नेगी बताते हैं कि, असल में, रिचें बर्ग का मोर्चा फ्रांस और जर्मीनी के बार्डर से लगता हुआ है। जर्मनी ने वहां पर सत्तर से ज्यादा खंदक (बड़ी नालियां) खोदी हुई थी। फ्रांस की सेना जब इन खंदकों को पार नहीं कर पाई तो, उसने इंग्लैंड के सेन्य अधिकारियों से यह कहकर मदद मांगी कि, उनकी सेना इन खंदकों को पार करने में असक्षम है। ऐसे में, दुनिया की सबसे बेहतरीन इन्फेंट्री ही रिंचेबर्ग और न्यू चेपल्स का मोर्चा पार कर सकती है। इंग्लैंड क्योंकि फ्रांस के साथ मित्र राष्ट्र क्लब में था। जो मिलकर जर्मनी और इनके साथ के देशों के खिलाफ लड़ रहे थे।
पत्र मिलने के बाद गढ़वाल रजीमेंट की 39 बटालियन को 21 सितंबर 1914 को इस मोर्चे के लिये पानी के जहाज से रवाना कर दिया गया। यह बटालियन 13 अक्टूबर को इन दोनों मोर्चों पर पहुंची। फ्रांस की सेना ने गढ़वाल रेजीमेंट के सिपाहियों को बिना कोई भौगोलिक परिचय दिये सीधे मोर्चों पर झोंक दिया। जहां अपनी अदम्य साहस का परिचय देते हुये गढ़वाली खंदकों में घुस गये। ये हमला इतना तेज गति से हुआ कि खंदकों में उस समय पेट्रोलिंग के लिये पचास से ज्यादा जर्मन सैनिक आये हुये थे। गढ़वाली सैनिकों ने उन्हें बंधक बना लिया। इसका उल्लेख फ्रांस की सैन्य किताबों में भी है। पचास सैनिकों का बंधक बन जाने की खबर अगर उस समय जर्मनी के चांसलर को दी जाती तो वो जर्मन रजीमेंट को यांत्रणा शिविर में भेज दिया जाता। लिहाजा, जर्मनी अधिकारियेां ने हुक्म दिया कि इन खंदकों में इतने हैंड ग्रेनेड फैेंके जाये की सभी मर जायें।
गढ़वाल का इतिहास (भाग-दो) में डा. शिव प्रसाद डबराल लिखते हैं कि, हैंड ग्रेनेड फैंकने से गिली मिट्टी में बनाये गये खंदक ढह गये और उसमें जर्मन सैनिकों के साथ ही कई गढ़वाली भी इतिहास में दफन हो गये। ऐसा ही रिंचेबर्ग और फेस्टूवल्ट में भी हुआ। गढ़वाल रजीमेंट की इस बटालियन के बाद ही एक अन्य बटालियन गढ़वाली सैनिकों की मदद के लिये रवाना की गई थी। जिसमें पेशावर कांड के नायक चंद्र सिंह गढ़वाली भी थे। चंद्रसिंह गढ़वाली की जो आत्मकथा राहुल सांकृत्यायन ने लिखी है। उसमें इस मोर्चे का उल्लेख है। वहीं डा. शिव प्रसाद डबराल के एहितासिक शोध दस्तावेजों में भी इन मोर्चो का उल्लेख है। 39 गढ़वाल राइफल से सैकड़ों सिपाही इस मोर्चे से वापस नही आ पाए। वो सैन्य रिकॉर्ड आजतक मीसिंग हैं।
● इतना साहस देखकर भौंचक्के हुई दुनिया.
फ्रांस के मोर्चों पर गढ़वाल रजीमेंट के पहुंचने के बाद युद्ध चरम पर पहुंच गया। जो जर्मनी लगातार आगे बढ़ रहा था। वो अब पीछे हटने लगा। न्यू चेपल्स के मोर्चे में ही टिहरी गढ़वाल के गबर सिंह को इंग्लैंड का सर्वोच्य वीरता पुरस्कार विक्टोरिया क्रॉस पुरस्कार मरोणोंप्रांत प्राप्त हुआ। जबकि नायक दरबान सिंह को भी विक्टोरिया क्रास से सम्मानित किया गया। इसके तुरंत बाद इंग्लैंड के राजा ड्यूक भारत आये और गढ़वाल रजीमेंट को ‘रॉयल गढ़वाल राइफल’ से नवाजा। लेकिन इस वीरता के बाद गढ़वाल रेजीमेंट को भारत भेजने के बजाये मेंसोपटामिया के मोर्चों में भेजा। जहां फिर से गढ़वालियों ने युद्ध जीता।
● क्या था मामला.
एक साल पूर्व फ्रांस के रिचेबर्ग में खुदाई के दौरान कुछ शव मिले थे। जो जांच करने पर गढ़वाल रेजीमेंट के थे। उनकी तस्दीक शवों के साथ मिले बैच से हुई। जिसमें 39 गढ़वाल राइफल्स का नाम और निशान था। इन शवों के साथ ही जर्मन सैनिक और ब्रिटिश सैनिकों भी कुछ शव मिले थे। इसकी जानकारी फ्रांस सरकार ने गढ़वाल रेजीमेंट के अधिकारियों को दी। उसके बाद गढवाल रेजीेमेंट से अधिकारियों की एक टीम फ्रांस रवाना हो गई थी।
मनमीत
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